मालवगढ़ की मालविका / भाग - 3 / संतोष श्रीवास्तव
वैसे यह राजस्थान का खास पहनावा था। घूँघट के बावजूद ओढ़नी छाती पर नहीं रहती। दादी ने समझाया - "देखो, मर्दों का आना-जाना होता है। तुम ओढ़नी ज़रा ढंग से लिया करो।"
नौकरानी फिस्स से हँस दी थी - "माई, मर्द देखें तब न।"
दादी ने उसे फौरन रुखसत किया। ऐसी निर्लज्ज का सेवा चाकरी में ध्यान रमेगा?
कई बार ऐसी औरतों को दादी ने साधू के कुएँ पर अपना घाघरा-चोली उतारकर धोते देखा है। तब ये नंगे बदन पर ओढ़नी लपेट लेती हैं और घाघरा-चोली धोकर रेत पर सूखने के लिए फैला देती हैं। मर्द आते-जाते इनकी ओर पलटकर भी नहीं देखते। साधू तो खर्राटे भरता चटाई पर लंबा चित्त पड़ा रहता है। जब तक कपड़े सूखते ये औरतें आपस में सिर जोड़कर सुरीले गाने गातीं। जिनमें रेगिस्तान के ऊँटों का काफिला, रेत के ढूह, सपाट चट्टानें, बबूल, की कर और भटकटैया की झाड़ियाँ, उनमें खिले बैंगनी फूल और खुश्क, रेतीले मैदानों का जिक्र होता। उन गानों में सजनी का साजन उनकी आँखों के सामने कुदाल चला रहा है, चट्टानें तोड़ रहा है और वे बेचैन हैं - "साजन आओ... मिलकर सत्तू खाएँ। लेकिन सत्तू माँडे किससे? यहाँ तो रेत ही रेत है, पानी का निशाँ तक नहीं। रात भर पपीहा टेरता है - पीकहाँ, पी कहाँ? टिटहरी भी उसी की खोज में अपने शुष्क गले से पुकारती है - टिटीहट, टिटीहट।" अम्मा कहती हैं प्यासे को पानी ज़रूर पिलाना चाहिए नहीं तो पपीहा या टिटहरी का जनम मिलता है।
सावन लग चुका है। कभी बादल छा जाते हैं, कभी हलके बरसकर रुखसत हो जाते हैं। चिलचिलाती धूप में सपेरे साँपों की पिटारी लेकर निकले हैं। कल नागपंचमी जो है। सपेरों के चीकट झोलों में बीन है। ये झोले इतने गहरे होते हैं कि जो कुछ दो, सब उस सुरंग में समाता जाता है। प्रताप भवन की ड्योढ़ी पर जब बीन बजी तो दादी ने नारियल की नरैटी में दूध भरा और पुराने कपड़े दरबान के हाथ सपेरे के लिए भेजे. सपेरा बीन बजा-बजाकर नाग का फन काढ़ रहा था, उसके पैरों में घुँघरू बँधे थे। सँपेरन ढोल बजा रही थी। ऐसा लगता मानो बरसात अब होने ही वाली है, ढोल बिल्कुल बादल की गर्जन-तर्जन करता बजता। घंटे भर के इस सुरीले समाँ के बाद सपेरों के जाते ही सन्नाटा-सा छा गया। अंदर से उषा बुआ की चीख सन्नाटे को तोड़ रही थी। सभी को पता था क्या होने वाला है। पुश्तान पुश्तों से प्रताप भवन में एक साँप भी रहता था। जो ऐन नागपंचमी के दिन कोठी के अहाते की दीवार पर रेंगता था। लंबा... चितकबरा... बूढ़ा साँप... सब अपनी-अपनी खिड़कियों, झरोखों से उसके दर्शन करते। बिल से बाहर निकलते ही वह पाखाना करना शुरू कर देता। अजीब तरह की चिर्-चिर् की आवाज होती और उसकी जीभ लपलपाती रहती। यह साँप कोठी की स्त्रियों का शाप था ऐसा अम्मा कहती थीं। उनका कहना था कि पुश्तान पुश्तों से इस कोठी की बहुएँ, बेटिएँ न कभी सुखी रहेंगी, न रही हैं।
क्या मारिया पर भी साँप का शाप फलीभूत हो रहा है? लेकिन खुश लौटी है मारिया। उसके साँवले सलोने चेहरे पर एक संतुष्टि का भाव व्याप्त है। पूरे मुखड़े पर उसके दाँत ही हैं जो आकर्षक हैं, मोती-से सफेद... बेहद आकर्षक हँसी... जैसे ग्रेनाइट की चट्टान पर दुग्ध धार का सोता फूट पड़ा हो।
बड़ी दादी का बदन टोहकर, दवा-दारू से निपटकर मारिया हमारे कमरे में आई. तब तक सड़क पर लैंप पोस्ट के उज्ज्वल दायरे फैल चुके थे। हवा रुक-रुककर चल रही थी लेकिन ठंडक थी। दूर सन्नाटे को तोड़ता किसी अंग्रेज का घोड़ा अपनी टाप छोड़ता निकल गया... पीछे-पीछे ऊँटों का बलबलाना... नीम की ताजी टूटी डालियों की तुर्श कड़वी गंध...
"कैसे हैं तुम्हारे बापू मारिया।"
"बापू कमजोर हो गए हैं पायल बाई. अब कोई उधर टोकने वाला तो है नहीं। जब मनचाहा खा लिया, नहीं तो लेट गए भूखे ही। लेकिन अब थॉमस खाना बना देता है।"
"थॉमस।" मैं चौंक पड़ी - "वही, तुम्हारा मंगेतर?"
"हाँ, वह मिशनरी अस्पताल में कंपाउंडर हो गया है। शादी भी नहीं कि उसने। इस बार मेरे से बोला कि जब तू नर्स हो गई मारिया तो मुझे तो कंपाउंडर बनना ही चाहिए. पायल बाई... उस दिन का उसका वह खौफनाक अटैक एक जुनून ही था सच्चे प्यार का। मुझे पाने की एक दहशतनाक कोशिश..."
मारिया की आँखें झुकीं और उनमें से दो बूँदें चादर पर चू पड़ीं।
"एक बेटे की तरह थॉमस बापू का खयाल रख रहा है। कहता है -'बापू, तुम मेरी मारिया के बापू यानी मेरे बापू। तुम्हारी सारी जिम्मेवारी मेरी।'"
"तुम शादी क्यों नहीं कर लेतीं उससे? वह तुम्हें कितना अधिक चाहता है।" रजनी बुआ बोलीं तो मारिया के हाथ कानों तक पहुँच गए - "नहीं... नहीं... मैंने प्रभु यीशु को वचन दिया है लाचार, असहाय व्यक्तियों की सेवा करने का। शादी बहुत बड़ी बाधा बन जाएगी मेरे इस मिशन में।"
बड़ी देर तक चुप्पी छाई रही। जहाँ ऊँटों के काफिले ने डेरा जमाया था, उधर तंबू के आगे आग जल रही थी। एक चहल-पहल-सी थी जो लौ की लपलपाहट में चलती-फिरती नजर आ रही थी। पाजेब की छुनछुन, हँसी की खिलखिलाहट फिर बिरहा की थाप... एक मनुहार...
म्हारी लाड़ली नी कीमत कीजो, घण मान सू रखियो जी,
कुँवर-सा अर्जी सुणियों जी, कुँवर-सा काँची भोली जी.
मानो मारिया का बापू ही थॉमस से मनुहार कर रहा है, शायद वात्सल्य की ऐसी ही पुकार होती है लेकिन मारिया तो इस भाव से कोसों दूर चली गई है... दूर... एकाकी... तपस्विनी-सी... कल्याण को आतुर।
मारिया कोठी में पुत्री की हैसियत से रहने लगी। उसके समर्पण भाव और गजब के बर्दाश्त ने सबका मन मोह लिया। जब दादी रात के पहर बिस्तर पर जाती तो मारिया जिद करके पैर दबाती, बालों में तेल डालती। उषा बुआ बड़ी दादी की मर्जी के खिलाफ इंटर की परीक्षा की तैयारी कर रही थीं। भादों के लगते ही कोठी चहल-पहल से भर उठी थी। उषा बुआ की फुफेरी बहन राधो बुआ और फूफाजी आ रहे थे। फूफाजी अपनी साली को अंग्रेजी पढ़ाने आ रहे थे।
"इस बार तीजों पर रौनक रहेगी, राधो और कुँवरसा के आने से।" दादी ने अम्मा से कहा और झटपट तैयार होने की ताकीद की। तीजों का बाज़ार भर गया है। तमाम बेटियों के लिए खरीदी करनी है। सिंजारा होगा। बेटी दामाद जीमेंगे। मेहँदी, चूड़ी, टिकली, बिंदी, पायल, बिछिये, साड़ी, कपड़ों के थान... दादी ने मारिया की पसंद के भी कपड़े खरीदे, नई चप्पलें खरीद कर दीं और सोने की चौकोर घड़ी। मारिया गद्गद हो दादी से लिपट ही तो गई. मेरी ननिहाल से अम्मा, बाबूजी, दादी, बाबा के लिए तीज की भेंट मामा लेकर आए. भैया के जन्म पर छोटे मामा आए छूछक लेकर... अब बड़े मामा अम्मा का सिंजारा करने आए हैं। कोठी के गेट पर उनकी फिटन खड़ी है। अम्मा को और कुछ चाहिए तो बता दें, आज ही लौटना होगा। अम्मा क्या कहतीं, मन भर आया था उनका, बस पूजा तक रुकने की जिद की जो मामा को माननी पड़ी। दादी ने गोबर से आँगन लिपवाकर बीचोंबीच मिट्टी का ढेर लगाकर उसमें नीम की डगाल रोपी. पूजा की तैयारी सभी बुआओं ने मिलकर की। सत्तू के लड्डूओं का थाल आया। बुआएँ लकदक कपड़ों में थीं। राधो बुआ ने दुल्हन जैसा सिंगार किया था। फूफा-सा ने शेरवानी पर कटार लटकाई थी। सिर पर हलकी गुलाबी पगड़ी। पगड़ी में हीरे की कनी। ऊपर छत से बाबा ने नौकर दौड़ाया, चाँद निकल आया है। सभी सुहागिनों ने चाँद को अर्घ दिया और आपस में कहानी कही। लड्डू के छोटे-छोटे टुकड़े काटे गए और नीम के पत्तों के साथ श्रद्धापूर्वक खाए गए. मैंने मुँह बनाया तो अम्मा ने घुड़क दिया। मैं घुटनों में मुँह छुपाए मन-ही-मन हँसती रही। बड़े होकर मैं तो कभी तीज का व्रत नहीं रखूँगी, कभी नीम के कड़ू पत्ते नहीं खाऊँगी।
अम्मा ने बड़े मामा के लिए पापड़ भूनकर उसका चूरा बनाकर उसमें घी-नमक डाला और घी का धुआँ दिखाकर उनकी थाली में परोसा। यह उनका प्रिय व्यंजन था। उन्होंने थाली के नीचे नए करारे नोट रखकर खाना खाया और सबसे विदा ले फिटन में जा बैठे। मैं अम्मा बाबूजी के साथ उन्हें छोड़ने गेट तक आई थी। तभी देखा फिटन के बाजू में अंग्रेज अफसर का घोड़ा खड़ा है। बाबा छत पर थे, बातें करने की आवाज वहीं से आ रही थी। दादी ने बड़े बेमन से छत पर परोसा भिजवाया लेकिन मन उनका बेचैन हो गया था। बार-बार बाबा के स्टडी रूम में जातीं। टेबिल पर फैले तमाम कागजों पर टेबिल क्लॉथ बिछा दिया उन्होंने। फिर आहट लेती रहीं। तलघर की सीढ़ियाँ गहरे अँधेरे में थीं। बाबा कोहरे जैसे धूमिल आलोक में बहुत रात तक छत पर बैठे रहे। जब घोड़े की टाप दादी ने सुन ली तब जाकर मुँह जुठारा। दादी के खाने के बाद अम्मा ने खाया।
जब दादी सोने के कमरे में आईं तो बाबा पलंग पर लेट चुके थे।
"पूरे चार घंटे चाट गया वह फिरंगी।"
"मैं तो डर रही थी... ढंग से पारायण भी नहीं किया, कान वहीं लगे रहे।"
"अरे, तुम नाहक डरती हो... हम महात्मा गांधी के सहयोगी ज़रूर हैं पर अहिंसक नहीं... बिना हिंसा के आजादी कैसे मिल सकती है? हिंसा होगी तो लहू भी बहेगा, एक-न-एक दिन हमारा भी बहेगा।" आजादी की चमक उनकी आँखों में मशाल-सी जल उठी। उन्होंने अपनी मालविका को बाँहों में दबोच लिया था। रेशमी गद्दे पर वे मोम-सी पिघल गईं। बाबा के कद्दावर जिस्म में बीर बहूटी-सी गुम हो गईं।