मालवगढ़ की मालविका / भाग - 4 / संतोष श्रीवास्तव
यही कद्दावर जिस्म बाबा के इकलौते बेटे मेरे बाबूजी ने पाया था। बाबा अक्सर कहते - "शेरनी एक ही नर शेर जन्मती है।"
उन्होंने अपने शेर-से पुत्र का नाम समरसिंह रखा था। बाबूजी जितने ऊँचे, तगड़े, अम्मा उतनी ही नाजुक, बूटे से कद की... उजला रंग और भोला-भाला चेहरा। बाह-विवाह था उनका। बाबूजी तब बारह के थे, अम्मा दस साल की। प्रताप भवन में तब भी बाबा का ही हुक्म चलता था। अंग्रेजों से चिढ़ के कारण ही उन्होंने अंग्रेजी स्कूल में बाबूजी को नहीं पढ़ाया। बनारस में अपने दोस्त को पत्र लिखा - "समर को भेज रहा हूँ अध्ययन के लिए. काशी हिंदू यूनिवर्सिटी में इसका दाखिला करवाने और हॉस्टल के लोकल गार्जियन बनने का जिम्मा तुम्हारा।" लौटती डाक से जवाब आया -
"समर मेरा भी पुत्र है, आप निश्चिंत रहिए."
पड़बाबा के नाम से प्रसिद्ध प्रताप भवन अपनी आन, बान, शान के लिए तो प्रसिद्ध था ही, पढ़ाई के लिए भी उसका खासा नाम था। लड़कों की तो छोड़ो, लड़कियों तक की पढ़ाई विधिवत हुई जबकि उस जमाने में ज्यादातर छोटी उम्र में लड़कियों की शादी कर दी जाती थी... बहुत हुआ तो साक्षर हो गई जैसे अम्मा। लड़कों को व्यापार में लगा दिया जाता। लेकिन बाबा इन सबसे परे थे। हालाँकि पड़बाबा का सूरत में सूती कपड़ों का कारखाना था पर बाबा ने कभी रुचि नहीं दिखाई. खानदान के तीनों चाचा और उनके लड़कों ने व्यापार सम्हाला और बाबा और बड़े बाबा के हिस्से का रुपया बदस्तूर आता रहा। बाबा तो पूरी तरह आजादी के दीवाने हो चुके थे और बड़े बाबा विरक्त।
बाबूजी कई सालों तक बनारस में पढ़ते रहे। लॉ पास किया, संस्कृत के वेदों, उपनिषदों और गीता का अध्ययन किया। गीता के श्लोक उन्हें जबानी याद थे। योग सीखा, संगीत, सितार वादन, चित्रकारी यहाँ तक कि मूर्तिकला भी। दादी अम्मा को बाबूजी की गैरमौजूदगी में गृहस्थी के लिए पारंगत करती रहीं। चादरें, तकिए के गिलाफ, परदे, कुशन कव्हर पर एम्ब्रॉइडरी करना सिखाया। अम्मा ने दादी के पेटीकोट के लिए इतनी बारीक क्रोशिए की लेस बुनी और बाबा के लिए चिकन वर्क का कुरता बनाया कि सब देखते ही रह गए. काँच की रंगीन सलाखों और मोतियों से बनाए परदे बेमिसाल थे।
अध्ययन के वे वर्ष आज दिन भी बाबूजी को जबानी याद हैं। अक्सर रात के भोजन के समय बनारस का किस्सा छिड़ जाता था। सब धीरे-धीरे उठ जाते थे पर मैं बड़े चाव से सुनती रहती थी। अम्मा भी बैठी रहतीं।
तपोभूमि है बनारस। बाबूजी प्रतिदिन संध्या होते ही दशाश्वमेध घाट चले जाते और चबूतरे पर बैठकर योगासन लगाते। उनके एक साथी ने योगासन में इतनी सिद्धि प्राप्त कर ली थी कि जमीन से एक फुट ऊपर पद्मासन की मुद्रा में उठ जाते थे। इलाके के अंग्रेज यह करिश्मा देखने आए थे। अंग्रेज कलेक्टर ने तो स्केल पद्मासन के नीचे घुमाकर देखी थी और ताज्जुब से उसकी आँखें फटी की फटी रह गई थीं। उस जमाने में पंडित मदन मोहन मालवीय बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के कुलपति थे। छात्रावास के विद्यार्थियों को अपने बच्चों की तरह मानते थे। उनके खाने-पीने, दूध, मेवे का पूरा इंतजाम उनकी देखरेख में होता था। बाबूजी ने सभी वेदों का अध्ययन वहीं रहकर किया। केवल अथर्ववेद के कुछ मंडल के श्लोक वे नहीं समझ पाए थे। लिहाजा गुरु तलाशा गया। किसी ने बताया बंगाली टोले में एक पंडित यह सिखा सकते हैं। बाबूजी गए. पीपल के दरख्तों से घिरा एक खंडहरनुमा घर। मुख्य दरवाजों पर टूटे-फूटे-से लकड़ी के किवाड़ लोहे की जंग लगी साँकल... अंदर भुतहा कमरा... दीवार में आला और आले में जलता हुआ मिट्टी का दीपक। पंडितजी की शर्त थी कि अँधेरा होने पर ही वे पढ़ाएँगे। इसके लिए छात्रावास से विशेष अनुमति लेनी पड़ी थी। पंडितजी आसन पर विराजमान हो लगातार तीन महीनों तक बाबूजी को पढ़ाते रहे। जब सभी श्लोक स्पष्ट हो गए तो दूसरे दिन बाबूजी ने गुरुदक्षिणा के नाम पर एक कीमती शॉल खरीदा और जब वे उसे देने पंडितजी के घर गए तो वहाँ दूर-दूर तक भुतहा सन्नाटा पसरा था। जहाँ बैठकर वे पढ़ाते थे वहाँ तमाम कबूतरों की बीट बिखरी थी। आले का दिया तेल के बिना सूखा और जल-जल कर काला हो चुका था। बाहर पीपल के दरख्तों से होकर जब हवाएँ चलतीं तो पत्तों से भरी डालियाँ साँय-साँय का खौफनाक मंजर पेश करतीं। तभी साइकिल पर दूध के डब्बे लटकाए एक दूध वाला वहाँ से गुजरा। बाबूजी ने उसे रोककर पूछा - भैया, बाबा मिश्रीनाथ दत्त कहीं चले गए क्या? मुझे आज ही उनसे मिलना था, सुबह की गाड़ी से घर लौटना है।
दूध वाले का मुँह खुला का खुला रह गया - "बाबा मिश्रीनाथ! अरे भैया... उनको गुजरे तो सालों हो गए. अब यहाँ कोई नहीं रहता। कोई इस खंडहर को खरीदता भी नहीं... सुना है इधर भूतों का साया है।"
"भूतों का? तो क्या वे बाबा मिश्रीनाथ के भूत से पढ़ते रहे? तीन मास तक?"
और बाबूजी बेहोश हो गए थे।
होश आया तो वे अस्पताल में थे। सामने छात्रावास के विद्यार्थी, गुरु और बाबा... बाबा खबर मिलते ही बनारस आ गए थे। बाबूजी को डिस्चार्ज कराके बाबा तुलसी घाट ले गए जहाँ
संवत् सोलह सौ असी, असी गंग के तीर
श्रावण शुक्ला सप्तमी तुलसी तजो शरीर।
जहाँ चरण पादुका और स्मारक चिह्न बने हैं वहाँ बैठकर बड़ी देर तक बाबा बाबूजी से बातें करते रहे। बाबूजी के दिमाग में बस एक बात थी... बाबा मिश्रीनाथ क्या भूत बन गए, ब्रह्मराक्षस बन गए. हाँ, जिस विद्वान की विद्या की पिपासा अधूरी रह जाती है वह मरकर ब्रह्मराक्षस ही होता है ऐसा दादी बताती हैं... वे सिहर गए थे, उन्हें बंगाली टोले का वह पीपल का हरहराता दरख्त याद आया जिसके साए में वह खंडहरनुमा मकान था। सामने गंगा की लहरों पर एक बजरा तैर रहा था। डूबते सूरज की सुनहली किरणें गंगा को पारदर्शी बना रही थीं... तट के उस पार रेतीला विस्तार और उस पर चलते इक्का-दुक्का लोगों के काले साए... अचानक बजरा किनारे पर आकर रुका। बाबा तेजी से सीढ़ियाँ उतरकर बजरे पर चढ़ गए. बाबूजी को भी चढ़ने का इशारा किया। तब तक अँधेरा हो चला था। दूर हरिश्चंद्र घाट पर चिताओं की लपटें स्पष्ट हो चली थीं। उनके बैठते ही बजरा चल पड़ा। अचानक बाबूजी दंग रह गए. बजरे पर तीसरा व्यक्ति सफेद दाढ़ी, मूँछ और जटाओं में अपनी स्पष्ट पहचान बता रहा था - "गुरुजी आप?"
"चकमा खा गए न? इसीलिए यह वेश रखा है।" बाबा मिश्रीनाथ ने मुस्कुराते हुए कहा।
बाबूजी ने उनका चरणस्पर्श किया।
"तुमने इसे कुछ बताया नहीं अभय?"
"नहीं मिश्री... लेकिन अब समय आ गया है। सुनो समर... मिश्री और मैं क्रांतिकारी दल के सदस्य हैं। अंतर यह है कि मिश्री अंग्रेजों का दुश्मन बन गया है। इसने कमिश्नर की अदालत में बम फोड़ा था। कम-से-कम दस अंग्रेजों का सफाया हो गया तभी से ये वेश बदलकर घूमता है। सबने मान लिया है कि बम विस्फोट में यह भी मारा गया। तुम सोच रहे होगे समर कि मैं क्रांतिकारी दल का हूँ फिर अपने घर अंग्रेज क्यों आते हैं? इसलिए कि मैं उनका दोस्त बनकर उनके राज पता कर रहा हूँ..."
बाबूजी अवाक सुनते रहे... जाने क्या सोचकर बोले - "मैं भी क्रांतिदल में शामिल होना चाहता हूँ।"
बाबा और मिश्रीनाथ एक साथ चौंके. बाबा मिश्रीनाथ ने बाबूजी का हाथ पकड़ लिया - "नहीं समर, फिर प्रताप भवन की देखभाल कौन करेगा। तुम इकलौते बेटे हो अभय के. अपने ताऊ और ताई की हालत देख ही रहे हो। तुम्हारे सभी चाचाओं ने व्यापार सम्हाला है, प्रताप भवन तुम्हें सम्हालना है। हम लोगों का कोई भरोसा नहीं... कब मौत आ जाए."
अचानक बाबूजी रो पड़े थे... बजरा गंगा की लहरों पर डोलता रहा। अँधेरा खूब गाढ़ा होने पर बजरा दशाश्वमेध घाट पर आकर रुका। रास्ते में चलते हुए एक सुनसान जगह पर बाबा मिश्रीनाथ ने विदा ली और झाड़ियों में खो गए.
सुबहे बनारस। धीरे-धीरे अंगड़ाई लेती हुई, फूल की पंखुड़ी-सी खिलती वाराणसी जहाँ वरणा और गंगा का मिलन होता है और जहाँ के पंचगंगा घाट में यमुना, सरस्वती, किरणा और धूपताया नदियाँ गुप्त रूप से मिलती हैं। अंग्रेज ऑफिसर्स ढूँढ़-ढूँढ़ कर हार गए थे कि चारों नदियों की जलधारा आखिर आती कहाँ से हैं परंतु जिस तरह यहाँ के संस्कृत विद्यालयों से निकले हजारों स्नातक एकता, बंधुत्व और'वसुधैव कुटुंबकम्'की ज्योति पूरे विश्व में फैला रहे हैं उसी तरह ये नदियाँ वसुधैव कुटुंबकम् की कल-कल जलधारा को अलग कैसे दरशा सकती हैं। अलग नहीं है भारत। मुस्लिम शासकों की अकर्मण्यता और विलासिता के कारण भले ही अंग्रेजों ने चालाकी से अपने पैर जमा लिए हैं यहाँ, पर कितने दिन? बाबा का मालवगढ़, मिश्रीनाथ का बनारस अब जाग उठा है। क्रांति की बारूद तैयार है, चिनगारी भर की देर है।
मंदिर की मूर्ति के पिछवाड़े चौकोर पत्थर सरकाकर पाताल में उतरती सीढ़ियों की अंधी खोह में बाबूजी बाबा के साथ गए थे। तड़के सुबह... जब सुबहे बनारस की निर्मल ताजगी फोटो के निगेटिव की तरह धुँधली थी और जब मणिकर्णिका कुंड से लगी गंगा तट तक जाती सीढ़ियों की लंबी कतार निपट सुनसान थी... पाताल में पैर जमे तो अंधी खोह में दीया टिमटिमाया... धीरे-धीरे तलघर स्पष्ट होने लगा। हथियार, बम, हथगोले, बारूद, नक्शे... मानो रणभूमि हो बाबा मिश्रीनाथ दीये की लौ तेज कर रहे थे। इस बार वे मारवाड़ी वेशभूषा में थे। गादी पर बैठने वाले सेठ की तरह।