मालवगढ़ की मालविका / भाग - 5 / संतोष श्रीवास्तव
"इंतजाम पूरा है... आज तुम मलावगढ़ लौट रहे हो अभय। तारीखें वही रहेंगी..."
उन्होंने बाबूजी को आँखें फाड़-फाड़कर सारा मंजर देखते पा अपने नजदीक बुलाया, जमीन पर बैठने का संकेत किया।
"आज तुमसे भी अंतिम मिलन है समर... तुम्हारी पढ़ाई भी समाप्त हो चुकी है और तुम मालवगढ़ लौट रहे हो अपने पिता का कारोबार सम्हालने। लेकिन क्रांतिकारी नहीं बनना है तुम्हें... वचन दो।"
उन्होंने अपना हाथ आगे बढ़ाया। बाबूजी झिझके, बाबा की ओर देखा... वहाँ अनेक ज्वालाएँ एक-दूसरे में समाहित हो दावानल बन रही थीं।
"वचन दो समर।"
बाबा मिश्रीनाथ ने पुनः कहा और बाबा की ओर संशय से देखा... कुछ पल सन्नाटा रहा, अब की बाबा ने सख्ती से पूछा - "क्या सोच रहे हो समर?" बाबूजी ने वेग से उठती रुलाई को अंदर ही अंदर जब्त कर बाबा की गोद में अपना शीश नवा दिया - "वचन देता हूँ मैं... मेरा रणक्षेत्र घर होगा... कर्तव्य और जिम्मेदारियाँ होंगी।"
दोनों ने बारी-बारी से बाबूजी को गले लगाया। बाबा मिश्रीनाथ ने झोले में से जलेबियों का दोना निकाला - "हमारे भविष्य की कामयाबी की कामना सहित।"
तीनों ने एक-एक जलेबी दोने में से उठाई. जलेबियाँ हलकी-हलकी गरम थीं।
"इतनी सुबह जलेबियाँ कहाँ मिल गईं तुम्हें?"
"लल्लू ने रात तीन बजे बनाकर दीं। लालूराम क्रांतिकारी।"
"अब उसकी दुकान कौन सम्हालेगा? कल से तो तुम्हारे दल अपनी मुहिम पर रवाना हो रहा है।"
"उसका बेटा छेदीराम। अभय, लालू ने दूध भी औंटाया है और कचौरियाँ भी बनाई हैं खास तुम दोनों के लिए. वहीं बैठकर नाश्ता करेंगे।"
तीनों अंधी खोह से मंदिर की ओर निकलती गुप्त सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर आए. चौकोर पत्थर के पास पुजारी खड़ा था और बाबूजी ने आश्चर्य से देखा कि उसने प्रणाम करने की जगह सेल्यूट मारा और वंदेमातरम् कहा।
लालूराम ने अपने हाथों बाबा, बाबूजी और मिश्रीनाथ के लिए जलेबियों, कचौरियों से प्लेट सजाकर दी। दोने में चटनी... मिट्टी के कुल्हड़ में औंटाया हुआ मलाई डला दूध। बाबूजी न उस सुबह को आज तक भूले हैं, न नाश्ते और दूध के स्वाद को और न लालूराम, पुजारी और बाबा मिश्रीनाथ को।
उषा बुआ ने प्रथम श्रेणी में इंटर पास किया और जब बी.ए. का फॉर्म भरना चाहा तो बड़ी दादी का ब्लड प्रैशर बढ़ गया। बिस्तर पर पड़े-पड़े वे बड़े बाबा पर चीखने लगीं जो गलियारे में तखत पर ध्यानमग्न बैठे थे - "अरे, साधू-संन्यासी होने से गिरस्ती नहीं चलती। छोरी बूढ़ी हो जाएगी तब चेतोगे?"
बड़े बाबा का ध्यान तब भी नहीं टूटा तो बड़ी दादी जोर-जोर से हाँफने लगीं, हाथ-पैर पटकने लगीं, सारा शरीर ठंडे पसीने से नहा उठा। मारिया ने दौड़कर उन्हें सम्हाला... इंजेक्शन दिया। दादी भी उनके पायताने बैठकर उनके तलुए सहलाती हुई ढाँढ़स देने लगीं - "जीजी, चिंता से बीमारी और बढ़ेगी... उषा की शादी इस साल ज़रूर हो जाएगी।"
और दादी का कहा सच हो गया। जोधपुर में रियासती घराने में उनकी शादी तय हो गई. उनके खानदान को महाराजाओं के समय सोने का कड़ा मिला था और जिस खानदान को सोने का कड़ा मिल जाता उसके ठाठ का तो कहना ही क्या। खानदानी महिलाएँ पैरों में सोने के बिछुए, पायल पहन सकती हैं... उषा बुआ भी पहनेंगी। मेरे मन में सवाल उठा था कि हम लोग क्यों नहीं पैर में सोना पहन सकते पर यह उसी तरह तर्क देकर टाला गया था जिस तरह मंदिर में जूते पहनकर प्रवेश। मेरे कुछ सवाल मेरे जेहन में आज तक टँगे के टँगे हैं जो हवा में हिलती तोरन की तरह कभी-कभी मेरे अंदर खलबली मचा देते हैं। किंतु जवाब नहीं मिलता जैसे यह सवाल कि कोठी को हर आफत-मुसीबत के लिए दादी ही क्यों पहल करतीं, मन्नतें माँगतीं, और कोई क्यों नहीं?
दादी ने उषा बुआ की शादी के लिए यज्ञ कराने का संकल्प लिया था। उषा बुआ की सगाई की रस्म होते ही उन्होंने यज्ञ की घोषणा कर दी थी। शादी का मुहूर्त सवा महीने बाद का था तब तक यज्ञ निपट जाएगा। दादी का तर्क था कि शादी निपट जाने दो लेकिन दादी की मन्नत शादी पक्की होने की ही थी। लिहाजा कोठी में यज्ञ और शादी दोनों की तैयारियाँ शुरू हो गईं। पंडितजी बुलाए गए. दादी ने चाँदी मढ़ी चौकी पर उन्हें बिठलाकर विधि विधान पूछे। पंडितजी ने भी यही कहा कि शादी निपट जाए, उसके पाँचवे दिन यज्ञ कराइए. कोई भी संकल्प कार्य संपन्न हुए बिना कैसे पूरा माना जाए? दादी नतमस्तक थीं, तर्क नहीं किया।
"पंडितजी, क्या-क्या तैयारी करनी होगी बता दें। शादी तेईस तारीख की है, अट्ठाईस को पूर्णमासी के दिन यज्ञ करा लेते हैं।"
महाराजिन पंडितजी के लिए चाँदी की तश्तरी में सूखे मेवे, काजू और पिश्ते की बर्फी और चाँदी के गिलास में केशर मसाले वाला दूध रख गईं। पंडितजी ने बिना किसी तकल्लुफ के फौरन ही नाश्ता करना शुरू कर दिया। दूध पीकर डकार ली और अँगोछे से मुँह पोंछते हुए बोले - "सोने के लक्ष्मी-विष्णु बनवा लीजिए. रेशमी कपड़े बनेंगे उनके, गोटा किनारी लगेगी। छत्र बनेगा। चाँदी का पान, नारियल, सुपारी... पंडितजी के जोड़े से कपड़े बनेंगे। यज्ञ पाँच दिन का होगा। आप पाँचवे दिन सबको भोजन करा सकती हैं।"
कहकर पंडितजी पोथी पत्रा समेट चल दिए. मैं रजनी बुआ के कान में फुसफुसाई - "ढोंगी बाबा गए."
"ढोंगी क्यों?"
"यज्ञ में अपने कपड़ों की फरमाइश जो कर रहे थे।"
जाड़ों के शुरुआती दिन। कोठी के आगे सड़क के उस पार नीम, कचनार के पेड़ों के साए में ऊँटों का काफिला ठहरा हुआ था। कपड़े के टेंट लगे थे... इक्का-दुक्का। दादी ने घर में दर्जी बैठा लिया था। सुबह निराहार रहकर पवित्र वातावरण में भगवान के कपड़े सिए जाते और दोपहर को शादी के लिए कपड़ों की सिलाई होती। हुक टाँकने, गोटा, किरन टाँकने और तुरपन करने के लिए दर्जी अपनी दो लड़कियों को भी लाता था। दादी तीनों के लिए खाना बनवातीं... शाम को चाय नाश्ता कराकर ही उन्हें भेजतीं। पूरे दस दिन लगे कपड़े सिलाने में। भगवान के कपड़े क्या शानदार बने थे। पीले रेशम पर चाँदी का गोटा, मोती, लाल पायपिंग। लक्ष्मीजी का दुपट्टा बहुत कीमती था। उसमें सोने के तार से कढ़ाई की गई थी। विष्णुजी की पगड़ी भी बड़ी प्यारी बनी थी। उषा बुआ के ब्लाउज, पेटीकोट साड़ियों के संग तहकर रख दिए गए. उषा बुआ का लहँगा चोली और ओढ़नी भी बेहद कीमती बने थे। सोने-चाँदी और सच्चे मोतियों से उन पर बेल-बूटे काढ़े गए थे। उषा बुआ की शादी के निमंत्रण कार्ड का डिजाइन मैंने तैयार किया था। रंगों का चुनाव भी असाधारण था और जब निमंत्रण पत्र की इबारत में दर्शनाभिलाषी और विनीत के नामों के बाद बीच की जगह में लाल सुनहरे अक्षरों में मैंने लिखा -'बुआ के ब्याह में नन्हा वीरेंद्र बाट जोहे'तो सभी चकित रह गए. बड़ी दादी बोलीं - "होशियारी की गठरी है इसके दिमाग में, चाहे जब खोल लेती है।"
दादी हँस दी, उन्हें तो दम मारने की फुरसत नहीं थी। राधो बुआ भी आ गई थीं। धीरे-धीरे मेहमान आने शुरू हो गए थे। उनके आने से काम में हाथ बँटाना तो खैर मामूली-सा हुआ अलबत्ता उन्हीं के काम अधिक बढ़ गए. बड़ी दादी छड़ी के सहारे थोड़ा बहुत चल लेती थीं। शादी की तैयारियों में मीन-मेख निकालकर वे पैर दर्द से परेशान हो फिर बिस्तर पर ढह जातीं। उनके बाल मात्र उँगली बराबर मोटी और लंबी चुटिया में सिमट आए थे। माँग के पास चाँद चमक रही थी। बड़ी दादी की ऐसी दुर्दशा में उनका अपना भी हाथ था। हमेशा आराम, दूसरों की बुराई और चिड़चिड़े स्वभाव के कारण ही बड़े बाबा उनसे विरक्त हो गए थे। नहीं तो बड़े बाबा जैसा सीधा सादा, इनसानियत से ओतप्रोत इनसान मिलना कठिन है।
पूरे मालवगढ़ में खबर फैल गई थी कि उषा बुआ की ससुराल रजवाड़ों से ताल्लुक रखती है। पैरों में सोना पहनती है। बारात देखने पूरा नगर उमड़ पड़ा था। क्या शानदार बारात थी उषा बुआ की। घोड़े, ऊँट कारें... कोसों सड़क बारातियों से घिर गई थी। बाबा का इंतजाम भी क्या खूब था। मजाल है कि किसी की शान में गुस्ताखी हो जाए. स्वागत सत्कार, फूल माला, इत्र फुलेल से पाट दिया था सबको। घोड़े से उतरते ही दूल्हे राजा के पैर लाल कालीन में धँसे पड़ रहे थे। कालीन पर फूल लिए स्त्रियाँ खड़ी थीं जो दूल्हे राजा पर फूल बरसा रही थीं। कोठी की भीतरी व्यवस्था अम्मा और दादी के जिम्मे। हॉल में ढोलक, मजीरे की धुन पर औरतों के द्वारा गाए गीतों की मधुर स्वर लहरी जादुई समा बाँध रही थी। आज मैंने भी लहँगा, चुनरी पहनी थी। बालों की चोटी गूँथकर उसमें मोगरे की माला पिरोई थी और मोतियों के गहने पहने थे। रजनी बुआ ने कुंदन के गहने पहने थे। संध्या बुआ कुछ उदास-सी दिख रही थी। राधो बुआ ने चुटकी ली - "क्या बात है संध्या... शादी का मन हो आया क्या?"
संध्या बुआ शरमा गईं।
"कहो तो दूल्हे राजा के छोटे भैया से छेड़ें बात?"