मालवगढ़ की मालविका / भाग - 6 / संतोष श्रीवास्तव
"जीजी" संध्या बुआ ने आँखें तरेरकर राधो बुआ को देखा फिर दोनों खिलखिला पड़ीं। एक साथ कई कलियाँ बाहर बगीचे में खिल गईं। चाँद पूरणमासी का नहीं था फिर भी निरभ्र आकाश में निर्मल कांति बिखेर रहा था। हॉल में ट्रे में चाँदी के वर्क लगी गिलोरियाँ भेजी जा रही थीं। गानेवालियों के लिए चाय प्यालों में। राधो बुआ ने एक गिलोरी उठाकर संध्या बुआ के मुँह में ठूँस दी - "उदास साली नए जीजाजी की अगवानी कैसे करेगी?"
"क्या राधो जीजी आप भी?"
संध्या बुआ खुश दिखने के प्रयत्न में भी उदासी छिपा नहीं पा रही थीं। रजनी बुआ मुझे ऊपर की मंजिल में झरोखे के पास ले गईं। जहाँ उषा बुआ की सहेलियाँ उन्हें चुपके-चुपके दूल्हे राजा के दर्शन करा रही थीं। उत्तर दिशा का कोना सूना था। वहीं रजनी बुआ धीमी आवाज में बताने लगीं -
"संध्या जीजी का इश्क चल रहा है, उन्हीं के साथ पढ़ता है वह... अजय नाम है उसका।"
मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ... आज तक प्रताप भवन में इश्क शब्द का पदार्पण नहीं हुआ था। हमें जन्मघुट्टी में यह बात पिला दी जाती थी कि हम लड़कियाँ हैं जो मर्दों के साए के बिना साँस नहीं ले सकतीं। हमारा सब कुछ हमारा शौहर है... इज्जत और सलामती से इस घर से बिदा ले हमें अपने-अपने घर जाना है और अपनी दुनिया बसानी है, जैसे उषा बुआ जा रही हैं। फिर संध्या बुआ ये क्या कर बैठीं? साफ दिखाई दे रहा है कि यह सरासर मुसीबतों और पीड़ाओं को न्योता देना था।
नीचे शहनाइयाँ बज रही थीं। उषा बुआ कितनी सुंदर लग रही थीं। दुल्हन के वेश में साक्षात लक्ष्मी जैसी. सोने, हीरे, मोती से लकदक। सारा प्रताप भवन रोशनी, फूलों की खुशबू, कहकहे और अफरा तफरी में डूबा था। जो जहाँ जिसे मिलता हँसी कहकहे में छेड़ने लगता... उदास थे तो हम दोनों, हमउम्र, हममिजाज, सखियों जैसे मैं और रजनी बुआ।
हॉल से उठकर गानेवालियाँ शादी के मंडप तक पहुँच गईं -'लाड़ल सासरिया न जासी, पीहर सूनो सो कर जासी... म्हारी उषा राज दुलारी...'
पीहर सूना... प्रताप भवन सूना... कमरे, गलियारे, आँगन, चबूतरा... उषा बुआ जब तक यहाँ रहीं गंभीरता और खामोशी ही तो ओढ़े रहती थीं फिर उनके जाते ही सब कुछ सूना क्यों रहने लगा? क्यों उनकी पहचल सुनने को कान सजग रहने लगे? जग की यह कैसी रीत है... इनसान की गैरमौजूदगी ही उसकी मौजूदगी के लिए तड़पती है। उनकी बिदाई की रात कोई नहीं सोया।
दूसरे दिन से मेहमान बिदा होने लगे। केवल यज्ञ में शामिल होने वाले लोग ही बच गए. दादी तो मशीन बन चुकी थीं। उनका थका हुआ सौंदर्य उनके मन की दृढ़ता को स्पष्ट कर रहा था।
मारिया ने यज्ञ का पूरा विधान समझ लिया था और जब पाँच दिन के प्रसाद की योजना बाबा, दादी बना रहे थे तो वह एकदम निश्छलता से उनके सामने जाकर खड़ी हो गई थी। उसकी हथेली में सौ-सौ के नोट दबे थे -
"छोटी आंटी, आखिरी दिन का प्रसाद मेरी ओर से।"
दादी चौंक पड़ीं - "लेकिन तुम तो ईसाई धर्म..."
उनकी बात अधूरी रह गई. मारिया बीच में ही बोल पड़ी, "तो क्या हुआ... ईश्वर एक है... हम सब उसी के बंदे हैं। मैं भी, आप भी। छोटी आंटी आपने संकल्प किया था उषा बुआ की शादी हो गई. अब मैं संकल्प कर रही हूँ जन सेवा के व्रत का... ईश्वर मेरी मदद करे।"
दादी इनकार नहीं कर सकीं, रुपए ले लिए जबकि बड़ी दादी सुनकर खीझी थीं- "तुम तो दुलहिन, जात कुजात कुछ नहीं देखतीं... वह ईसाई... उनका और फिरंगियों का धरम एक ही तो है न।"
दादी चुप रही थीं। उनके मन में कोई संशय न था। ईश्वर की शरण में आने वाला हर इनसान ईश्वरमय है। क्या कोढ़ियों के घाव धोते ईसामसीह देवतुल्य नहीं, क्या वेश्या के हाथ से भिक्षा ग्रहण करते गौतम बुद्ध देवतुल्य नहीं... क्या अछूत शबरी के जूठे बेर राम ने नहीं चखे थे?
दादी ने मारिया के रुपयों से महाप्रसाद बनवाने का सोच डाला था।
उस रात मारिया ने मुझे बताया था - "पायल बाई, मैं छोटी आंटी से थॉमस का जिक्र कैसे करती लेकिन मेरा संकल्प उसको लेकर है। उसने मेरे लिए बड़े कष्ट सहे, अब हम दोनों मिलकर जिंदगी भर मानव सेवा करना चाहते हैं। मैं एक ऐसा सेवा केंद्र खोलूँगी जो दीन-दुखियों के लिए हो। अपने खेत-खलिहान बेच दूँगी इस सेवा केंद्र के लिए. मेरे बापू उस सेवा केंद्र की देखभाल करेंगे और मैं थॉमस के साथ मिलकर निरीह, असहाय और सताए हुए लोगों की सेवा करूँगी, यही संकल्प है मेरा।"
शायद मारिया के पवित्र मन की चाहत थी जो अंतिम दिन की आहुतियाँ देखने भीड़ उमड़ी पड़ रही थी। यज्ञ मंडप में यज्ञ कुंड के सामने बाबा, दादी हाथ जोड़े बैठे थे। वातावरण में धूप अगरबत्ती की सुगंध बिखरी हुई थी। यज्ञ कुंड से सुगंधित लपटें उठ रही थीं और नेवैद्य की आहुतियाँ लकड़ी के बड़े चमचे से डाली जा रही थीं। दादी ने मारिया के नाम का महाप्रसाद बड़ी परात में यज्ञ कुंड के पास क्रोशिए से बने थालपोश से ढककर रखवाया था। जब दादी, बाबा ने आहुतियाँ देना समाप्त किया तो पंडितजी ने कहा - "जो आहुति देना चाहते हैं, यहाँ आ जाएँ।"
दादी ने मुझसे कहा - "पायल, मारिया को बुला लाओ."
मारिया को खोजना नहीं पड़ा। वह फूलों के खंभे के पास ही थी।
"आओ मारिया, आहुति दो... अपना संकल्प दोहराओ."
पंडित चौंके - "मालकिन।"
दादी ने उन्हें चुप रहने का इशारा किया। जब मारिया आहुति दे रही थी तो पंडितजी ने मंत्रों को पढ़ने से इनकार कर दिया... दादी की आँखों में ज्वाला-सी भभकी और वे जोर-जोर से मंत्र पढ़ने लगीं। मारिया आहुति देती रही। बाबा दंग रह गए. मालविका का यह रूप उन्होंने कभी देखा न था। मंत्र समाप्त होने पर उसने दादी बाबा के पैर छुए. दादी ने उससे संकल्प के इक्यावन रुपए पंडितजी के आगे रखवाए. रुपयों पर फूल, रोली, चावल...
"अगर आपको संकल्प भी नहीं ग्रहण करना है तो बता दीजिए, मारिया इन रुपयों को गरीबों में बाँट देगी।"
पंडितजी कुछ न कह सके. सिर झुकाकर उन्होंने रुपए उठा लिए और मारिया के माथे पर रोली का टीका लगाकर कलाई में कलावा बाँधकर मंत्र पढ़ दिया।
अक्स हो गया था वह यज्ञ मेरे जेहन में। दादी के शरीर में कोई शापग्रस्त दैवी आत्मा है वरना उन्हें मनुष्य रूप में क्यों जन्म लेना पड़ता। उनका निवास तो देवलोक होना चाहिए था। उसी दिन मैंने निर्णय लिया था हर ग़लत बात पर विरोध करने, आवाज उठाने का... नहीं, खामोशी से अत्याचार सहना भी पाप है... उतना ही जितना अत्याचार करना।
दादी के मंत्रोच्चारण से बाबा इतने प्रभावित हुए थे कि उन्हें बाइबिल पढ़कर सुनाने लगे। घंटों समझाते रहते। दादी बहुत प्रभावित हुईं बाइबिल सुनकर लेकिन यह बात उनकी समझ में नहीं आई कि बाइबिल में ऐसा क्यों लिखा है कि कोढ़ियों और औरतों पर समान रूप से दया भाव रखो। आखिर उन दोनों में समानता क्या है? क्या नारी इतनी निरीह, लाचार है... क्या वह पुरुष समाज के लिए कोढ़ की तरह है? दादी ने मारिया से भी इस बात को लेकर बहस की। मारिया के तर्क उन्हें आश्चर्यचकित अवश्य करते रहे लेकिन संतुष्ट नहीं और जब बाबा ने कुरान की आयतें भी पढ़कर सुनाईं और बताया कि उसमें नारी को खेत और अंगूर का बगीचा कहा गया है तो दादी के मन की दीवार दरक गई... मानो भूकंप आया हो। नारी खेत है, इस बात को तो वे मानती हैं। पुरुष से बीज ग्रहण कर वक्त आने पर उसे अंकुरित कर पल्लवों, डालियों में विकसित कर एक समाज रच डालती है। वह जड़ बनकर धरती के सारे रसों को अपने में समोकर इन वृक्षों को सौंपती है। वह ताकत भी सौंपती है जो उन्हें छाया देने, आश्रय देने, रस देने, संतुष्टि देने और स्वास्थ्य देने के योग्य बनाती हैं। लेकिन यह अंगूर का बगीचा? यह तो विलासिता का प्रतीक है... नारी को मात्र भोग्या सिद्ध करता हुआ। इस्लाम में ये दो विरोधी बातें एक साथ कैसे... जहाँ एक ओर वह वसुंधरा बनकर मातृरूपा है वहीं भोग्या भी... पुरुष किस नजरिए से उसे देखे जबकि वह उसी के शरीर में रचा, साँस पाया, रक्त पाया इनसान है? पुराणों में नारी को उपासना में बाधक बताया है। वह नरक का द्वार है, संतान उत्पत्ति के अतिरिक्त उसका सामीप्य नरक है... नारी यदि नरक है तो पुरुष उस नरक की उत्पत्ति... जो उत्पत्ति का स्रोत है उसे पुरुष कैसे नकार सकता है? उसे कोढ़ियों की श्रेणी में रखकर, अंगूर का बगीचा मानकर, नरक का द्वार कहकर आखिर वह जताना क्या चाहता है? अपने पुरुषत्व की संतुष्टि के लिए उसने धर्म की आड़ क्यों ली? क्यों नहीं खुलकर अपनी मानसिक प्रवृत्ति बिना किसी आड़ के सामने रखी? नहीं, इस आड़ में पांडित्य का ढोंग, कठमुल्लापन और केथोलिक नाटकीयता है। अधिक-से-अधिक लोकप्रियता पाने की, अधिक-से-अधिक शासन करने की, अधिक-से-अधिक कल्याणकारी सिद्ध होने की। दादी ने स्पष्ट कह दिया... नहीं मान्यता देंगी वे इन ढकोसलों को। हाँ, वे मात्र इनसानियत का धर्म मानेंगी, जो धर्म मारिया मानती है। मारिया न ईसाई है न मुस्लिम न हिंदू। वह एक इनसान है... जो अंधकार की आँखों पर हथेली रख उज्ज्वलता की किरणों को फैलाएगी और जहाँ उजाला है वहाँ अँधेरा कैसा? अंधकार तो हमेशा सहारा लेकर ही फैलता है। शाखों और पत्तियों का सहारा लेकर ही तो वह धरती तक सूर्य की किरणें आने से रोकता है। वह साया बन जाता है लेकिन रोशनी उसको तब भी घेरे रहती है चारों ओर से... रोशनी का हौसला बहुत विस्तृत है। इतना मैं समझ गई थी उस छोटी वयस में ही कि नारी को किसी धर्म, किसी समाज में बराबरी का दर्जा नहीं मिला है। वह निकृष्ट, हेय, भोग्या और संपत्ति मानी गई है। उसमें न आत्मा है न कयामत तक मुर्दा बनकर सोते रहने का हौसला... कयामत आने पर केवल पुरुषों के मृत शरीर जीवित होंगे क्योंकि उनमें आत्मा है और मेरी कोमल सोच पर एक छाप पड़ गई विद्रोह की, आंदोलन की... वह सब कुछ करने की जो पुरुष करता है और जो नारी के लिए अपराध माना जाता है। हाँ, बदलना है, परिवेश बदलना है अपना, भले ही वह इतने बड़े ब्रह्मांड में किया बूँद भर भी प्रयास क्यों न हो।