मिजोरम और जेम्स डेकुमा / अशोक अग्रवाल
मि=आदमी, जो=पहाड़ी, रम=भूमि, मिजोरम का शाब्दिक अर्थ हुआ—पहाड़ी आदमियों की भूमि। मिजोरम पूवोत्तर का सबसे सघन पहाड़ी क्षेत्र है, जिसकी पहाड़ियाँ मध्य भाग में उठी और शेष दोनों तरफ ढलुआ होती हुई उत्तर से दक्षिण की ओर फैली हैं।
मैं आइजोल के अपर मार्केट की दो दुकानों के बीच में से लोअर मार्केट को जाती फिसलती सीढ़ियों पर पैर जमाते मैं लगातार जेम्स डेकुमा के निर्देशों को दोहरा रहा हूँ।
सीढ़ियाँ उतरा तो सामने मिनी बस खड़ी थी। मैं बेझिझक उसमें सवार हुआ और डेकुमा के निर्देशानुसार चार रुपये कंडक्टर को पकड़ा दिए।
कुलीकोन-आइजोल के सुदूर दक्षिणी छोर तक पहुँचते बस में इक्का-दुक्का सवारी बची थीं। तिराहे के स्टाप पर उतरने वाला मैं अकेला था। रिमझिम से बचने के लिए मैंने छाता खोला और सामने से आती स्कूली छात्र को रोकते पूछा, —”जेम्स डेकुमा का घर!“ अचकचायी छात्र कुछ समझ नहीं पायी तो मैंने दो बार दोहराया,— ”जेम्स डेकुमा...जेम्स डेकुमा।“
स्कूली लड़की हँसी और पीछे आने का इशारा करते तिराहे की ढलवा सड़क पर चलने लगी। जेम्स डेकुमा ने ग़लत नहीं कहा था, ”कुलीकोन में कोई छोटा बच्चा भी तुम्हे मेरे घर ले आएगा।“
सड़क किनारे लकड़ी के बने छोटे घर की ओर इशारा करती लड़की आगे बढ़ गई। बरामदे में फुदकती मुर्गियों को दाना खिलाती स्थूलकाय वृद्ध महिला ने मेरी ओर देखा तक नहीं। झिझक के साथ मैंने घण्टी बजाई।
दरवाजा खोलने वाले डेकुमा ही थे, — ”भीतर चले आइए। जूते उतारने की ज़रूरत नहीं।“
कमरे की दीवारों पर बने ताख और शीशे के पल्लों वाली अलमारियाँ पुस्तकों से ठसाठस भरी थीं। पिछवाड़े की घाटी की ओर खुलने वाली खिड़कियों के परदे सरकाते डेकुमा मुस्काए,— ”पहले हम चाय लें तो कैसा रहे? मैं बिना शूगर की काली चाय लेता हूँ, आप...“
किसी एथेलिट की बलिष्ट देहयष्टि से सम्पन्न डेकुमा लेखक की जगह देहात के किसान सरीखे लगे। ऐसा मुक्केबाज़ जो सोफ़े के बाजू या दीवार पर हाथ आजमाना कभी भी शुरू कर देगा।
”अन्दाजा लगाइए मेरी वय क्या होगी?“ — शरीर के प्रति सचेत डेकुमा ने शरारती स्कूली बच्चे की तरह उत्सुकता से मेरी ओर देखा।
”सफेद केशों वाला कोई मिजो मुझे नहीं दिखा। लगता है ‘आइजोल’ में बूढ़े नहीं रहते,“ — मैंने उत्तर दिया।
”मैं सत्तर को छू रहा हूँ।“ — डेकुमा खुलकर हँस दिए।
वर्तमान मिजोरम के सर्वाधिक प्रतिष्ठित व्यक्ति जेम्स डेकुमा को देख पैंतीस साल पहले के उस युवक की कल्पना करना कठिन है जो लुशाई पहाड़ियों के घने जंगल में बरसों भूमिगत सशस्त्रा आन्दोलन में सक्रिय रहा।
मिजोरम के बेहद पिछड़े और दुर्गम गाँव ‘सियालसुक’ के कबिलाई परिवार में जन्मे जेम्स डेकुमा ने कभी औपचारिक शिक्षा नहीं पाई। स्वाध्याय के बूते हिन्दी और अँग्रेजी भाषाओं का ज्ञान अर्जित किया।
चौथे दरजे के कामगार के बतौर उन्हें असम राइफ़ल्स में नौकरी मिल गई। हिन्दी-अँग्रेजी भाषाओं की जानकारी उनके काम आई और जल्दी ही उन्हें नए भर्ती हुए मिजो रंगरूटों को हिन्दी सिखाने के लिए हिन्दी अध्यापक का पद दे दिया गया।
ये वे दिन थे, जब लाल डेंगा लुशाई पहाड़ियों को भारत सरकार से मुक्त कराने के लिए भूमिगत सशस्त्र अभियान में जुटे थे। लाल डेंगा ने ‘मिजो नेशनल फ्रंट’ की स्थापना कर ली थी। जेम्स डेकुमा भी अपनी राइफ़ल के साथ ‘असम राइफ़ल्स’ की नौकरी छोड़ उनके साथ जा मिले।
यहाँ से डेकुमा के जीवन का दूसरा अध्याय प्रारम्भ हुआ। हिन्दी-अँग्रेजी भाषाओं की जानकारी यहाँ भी काम आई। उन्हें संगठन में भारी महत्व मिला। शीघ्र ही उन्हें भूमिगत सरकार की पार्लियामेन्ट का सदस्य बना लिया गया और एक साल के भीतर वह स्पीकर के पद पर नियुक्त कर दिए गए।
13 मार्च 1968 का दिन डेकुमा को आज भी अच्छी तरह स्मरण है। संगठन की एक महत्वपूर्ण मीटिंग के बाद वह अपने साथियों के साथ जीप में लौट रहे थे कि असम राइफ़ल्स की टुकड़ी के साथ मुठभेड़ हो गई। घण्टों चले उस एनकाउण्टर में उनके दो साथी मारे गे, एक भागने में कामयाब हुआ और डेकुमा गम्भीर घायलावस्था में सेना द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए।
चाय के खाली प्याले को सामने से हटाते हुए जेम्स डेकुमा हँसे, — ”यह घर जिसमे आप बैठे हैं सेना ने आग के हवाले कर दिया। परिवार के सदस्य गाँव लौट गए।“
डेकुमा को पहले आइजोल में रखा गया, फिर वहाँ खतरा देख उन्हें गुवाहाटी जेल में स्थानान्तरित कर दिया गया। भारत सरकार के विरूद्ध सशस्त्र युद्ध छेड़ने के आरोप में उन्हें 6 साल कठोर कारावास का दण्ड सुनाया गया। कारावास के एकान्त और अकेलेपन ने उन्हें लेखन की ओर प्रवृत्त किया। पहले उन्होंने जंगल जीवन के अनुभवों को शब्दबद्ध करने की सोची, फिर अपने ‘मिजो नेशनल फ़्रण्ट’ के साथियों को केन्द्र में रखते एक उपन्यास लिखने का निर्णय लिया।
जेम्स डेकुमा अलमारी से एक किताब निकालकर लाए।
”यह मेरा वह उपन्यास है, जिसे गुवाहाटी जेल में लिखा। मिजो भाषा में, फिर एक साल उसके अँग्रेज़ी अनुवाद में लगाया।“
कोई 400 पृष्ठ की उस किताब को मैं उलटता-पलटता रहा। फिर विवशता से बोला,— ”मुझे मिजो भाषा नहीं आती। कृपया इसका नाम बताएँ।“
”पूरी रात का चाँद“ — डेकुमा हँसे, — ”मूलतः यह प्रेम उपन्यास है। मिजो युवाओं में बेहद लोकप्रिय। दूसरे-तीसरे साल इसका नया संस्करण होता रहता है।“
”मेरे मित्र पंजाबी भाषा के प्रसिद्ध लेखक गुरदयाल सिंह के एक उपन्यास का नाम है—‘अध चाननी रात’ यानी ‘आधे चाँद की रात’,“— मैंने डेकुमा को बताया।
डेकुमा ने ठहाका लगाया फिर गम्भीर हो आए, ”मिजोरम के साहित्यकारों को, भला, कौन जानता है? मिजो साहित्य कभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद नहीं हुआ। मिजो भाषा तो भारत सरकार की अधिसूचित भाषाओं की सूची में भी नहीं है।“
जेल की सज़ा पूरी होने के बाद डेकुमा आइजोल लौट आए।
”लुशाई पहाड़ियों में लौटने का विचार मैंने स्थगित कर दिया। दूसरा उपन्यास लिखना जेल में प्रारम्भ कर चुका था। मुझे लगा साहित्य के माध्यम से मैं मिजो जनता के लिए बेहतर ढंग से काम कर सकता हूँ। मिजो लिपि और व्याकरण में कोई नियम और एकरूपता नहीं थे, मैं उस ओर भी कुछ काम करना चाहता था।“
जेम्स डेकुमा की लेखन यात्र सतत जारी है। उपन्यास, कविता, निबन्ध, इतिहास और मिजो भाषा पर उनकी कोई 40 पुस्तकें छप चुकी हैं। ‘मिजोरम’ के वर्ष के सर्वश्रेष्ठ लेखक के रूप में कई बार सम्मानित डेकुमा को पद्मश्री, साहित्य अकादमी का भाषा पुरस्कार, ‘मिजो लिपि के पिता’ जैसे अनेकों सम्मान और उपाधियाँ मिल चुके हैं।
”मैं अभी सिर्फ 70 का हूँ। मेरा इरादा पूरी 100 पुस्तकें लिखने का है,“ — डेकुमा ने पुरज़ोर ठहाका लगाया, —”मैं प्रकाशकों पर निर्भर नहीं हूँ। मेरा छोटा सा प्रेस है, कम्पोजिंग से लेकर मशीन चलाने तक सारे काम ख़ुद कर लेता हूँ। किताब छापने से लेकर उसके बेचने तक। मिजोरम के बाहर के लोग विश्वास नहीं करेंगे कि आइजोल जैसे छोटे शहर में मेरी नई किताब की 5000 प्रतियाँ बिक जाती हैं।“
डेकुमा के चेहरे पर गर्व और सन्तुष्टि की मुस्कराहट उभरी, — ”अपनी कविताओं के पाठ के लिए देश-विदेश में भ्रमण करता रहता हूँ। मैं इतना अर्जित कर लेता हूँ कि परिवार का भरण-पोषण सहजता से कर सकूँ।“
डेकुमा उठे और सोफे के पीछे की खिड़की खोलते हुए मुझे पास बुलाया। दूर मीलों तक गहरी घाटी, फिर पहाड़ियों की शृंखलाएँ और उन पर टिके खिलौनेनुमा घर।
”वह सी० रोखुम का घर है“, — डेकुमा ने इशारे से दिखाया,— ”मिजो भाषा के गम्भीर लेखक। मैं उनका बहुत सम्मान करता हूँ। सम्भव हो तो उनसे अवश्य मुलाकात करें। मेरे से एकदम उलटे। मैं भूमिगत विद्रोही और वह एक पादरी।“
डेकुमा खुलकर हँसे।
”भूमिगत संगठनों के सदस्य तो आपसे सम्वाद करते रहते होंगे,“ मैंने उत्सुकता से पूछा।
”क्यों नहीं,“ — डेकुमा के स्वर में हल्की नाराजगी उभरी,— ”सभी मेरे अपने हैं। मुझसे मिलने तो जोरमथंगा (मिजोरम के तत्कालीन मुख्यमन्त्री) भी आते हैं।“
(रचनाकालः 2002, ‘किसी वक्त किसी जगह’ से)