मिथक यथार्थ नहीं होते / मोहन मुक्त

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"प्रगतिशील कविता मिथक के साथ न तो बह सकती है ना ही उसमे डूब सकती है, उसे मिथक पर तैरने की छूट ज़रूर है और अगर वो गोता लगाना चाहे तो सुनिश्चित करे कि ख़ुद नही भीगेगी ना ही वहां मौजूद कथित रत्नों को अपने माथे पर सजाएगी और गोता लगाते समय वैज्ञानिक चेतना के साथ उत्पीड़ित समुदायों लोगों के प्रति समानुभूति के औज़ारों से लैस रहेगी"

नरेश सक्सेना की प्रसिद्ध कविता 'चंबल एक नदी का नाम' की समस्याओं पर कुछ विस्तार से बात...

चलिए, आज फिर अधिक गुस्ताख़ हुआ जाए और ये गुस्ताख़ी कुछ ऐसी कविताओं पर बात करने की कोशिश है जो है तो बहुत ही प्रसिद्ध लेकिन मेरे मानस में पहले दिन से खटकती और अटकती रही है। इस श्रृंखला में फैज़ अहमद फैज़ की कविता ‘मुझसे पहली सी मुहब्बत मिरी महबूब न मांग’ पर बात की जा चुकी है।

जोख़िम लेकर आज मैं एक बेहद उम्दा मानी जाने वाली लेकिन मेरी नज़र में समस्याग्रस्त कविता ‘चंबल’ पर बात आगे बढ़ाने जा रहा हूं जिसे नरेश सक्सेना ने लिखा है। इस कविता को सबसे पहले मैंने हमारे साथी और बेमिसाल थियेटर आर्टिस्ट दिवंगत अजीत साहनी की आवाज़ में सुना था।

उन्होंने इसे एक मंच पर बहुत ही शानदार और भावप्रवण अभिव्यक्ति के साथ प्रस्तुत किया था। अजीत की प्रस्तुति ने कविता को जीवंत कर दिया था और उस प्रस्तुति के वीडियो को देखकर आज भी संवेदनशील मन कविता के भाव में डूब जाते हैं। ये एक ताक़तवर कविता की पहचान है।

लेकिन मुझे पहली बार में ही कविता समस्याग्रस्त लगी और इस पर साथियों से बहस हुई जो बेहद तीख़ी होती चली गयी। तीन साल पहले अपने दोस्तों से हुई एक निजी लेकिन साथ ही सार्वजनिक महत्व की उस बात-बहस में मैंने जो बात कही थी उसे ही यहां लिख रहा हूं। सभी लोग मुझसे शुरुआत में असहमत थे और आंशिक सहमत केवल एक दोस्त के अलावा आखिर तक असहमत रहे।

इस बात ने मुझे कुछ परेशान किया कि एक कविता अपने क्राफ्ट और भाव के प्रभाव के कारण संवेदनशील मनों में इस तरह अंकित होती है कि वे उसके विचार की सीमाओं और समस्याओं को ठीक से वस्तुनिष्ट तौर पर समझ नहीं पाते।

आज इस पर फिर बात करने का कारण है कि चंबल नदी का ज़िक्र अक्सर स्त्री और बहुजन प्रतिरोध कि प्रतीक फूलन के साथ होता है। मणिपुर की हालिया सामने आई घटना में भी ऐसा लगता है कि, हमारे कवि ख़ास तौर से हिन्दी जगत के कवि परेशान करने वाली घटनाओं से जायज ही परेशान होते हुए कुछ मानकों या सांस्कृतिक संदर्भ के भीतर रहते हुए पोएटिक टेक्स्ट में अपनी बात कह पाते हैं।

और इन तय मानकों और सन्दर्भों के कारण कविता एक ख़ास भूगोल और वहां अभिभावी विमर्श के कारण इंसानी जेहन में जमी हुई जड़ता की परतें हटाने के बजाय उस पर भाववाद का रंग चढ़ा देती है, भले ही रचनाकार की मंशा साफ़ ही क्यों ना हो। ‘चंबल’ कविता के साथ यही हुआ है।

माफ़ कीजियेगा मैं ये नहीं कहूंगा कि ‘चंबल’ कविता मुझे पसंद है। मेरी नज़र में यह एक संवेदनशील कवि की समस्याग्रस्त कविता है, जो सत्य को भाव की जकड़ में सौंप आती है।

आप इस कविता पर ‘वाह’ कह सकते हैं लेकिन थोड़ा ही गहरा उतरने पर कविता की खोखली भावभूमि गायब हो जाती है, और वो यथार्थ सामने आता है जिसमें कवि उस पूरे वर्चस्वशाली परिप्रेक्ष्य का ना केवल बचाव करते नज़र आता है बल्कि उस पर एक तरह से मुग्ध सा दिखता हुआ अपने समस्याग्रस्त पोयटिक टेक्स्ट से उसे पुष्ट करता है और पाठकों को उसी जाल में और गहरे धकेल देता है।

ये सब बिम्ब भाषा और संस्कृति के संदर्भों के ज़रिए होता है। ये सब कविता का बैकग्राउंड और ज्यादा ताक़तवर लेकिन प्रतिगामी प्रभाव है। संवेदनशील और समझदार मन मस्तिष्क वाले पाठक भी इसे कई बार समझ नहीं पाते। ये कवि की संवेदना का संकट नहीं है, कवि तो पर्याप्त संवेदनशील लगता है, लेकिन ज़रूरी ये है कि वो किस ‘दायरे’ में संवेदनशील है, असल में समस्या बिंब, भाषा, परिप्रेक्ष्य, लोकेशन और अंततः संस्कृति की है।

कवि का अपना सांस्कृतिक आसरा या आस या पहचान या आप उसे कुछ भी कह लें कवि से उसकी संभावनाओं के बावजूद सत्य को जनता के सामने उसके वास्तविक रूप में उद्घाटित करने की क्षमता छीन लेता/लेती है और उम्दा संभावनाशील कविता मेरी नज़र में प्रतिगामी हो जाती है। और ये कविता आपको अवसर देती है कि आप देख पायें कि हिंदुइज्म, नरम हिंदुत्व और कट्टर हिंदुत्व की नदियों का पानी एक ही बादल से बरसता है और एक ही समुद्र में जा मिलता है –

कैसे..?? पहले कविता देखें

(एक)

यह महाराजा रन्तिदेव के अग्निहोत्र में

काटी गई सहस्त्रों गायों और बछड़ों के

बहे ख़ून से बनी नदी

यह वेदव्यास के शान्तिपर्व से निकली

एक अशान्त नदी

बेईमान शकुनी ने अपने पाँसे फेंके यहीं

सम्पत्ति और सिक्कों के बदले

पत्नी हारी गई यहीं

फिर पाँचो पतियों और पितामह की सहमति से

सबने उसके वस्त्र उतरते देखे

यह उसके आहत वचनों से

अभिशप्त नदी

चम्बल के तट तीर्थ नहीं,

प्राचीन सभ्यताओं का कोई नगर

न मेले पर्व तीज त्योहार

न पूजन हवन न मंत्रोच्चार

भयानक भायँ-भायँ सन्नाटा भरी

कटी-फटी विकराल कन्दराएँ चम्बल के आर-पार

क्षत-विक्षत कर डाली हो जैसे

ख़ुद अपनी ही देह किसी विक्षिप्त स्त्री ने सहसा धीरज खो कर,

टेंटी, करील, झरबेरी और बबूलों के जंगल में

उड़ती हू-हू करती रेत और सदियों का हाहाकार

चम्बल के तट तीर्थ नहीं हैं

उसके बारे में प्रसिद्ध है

दरस करे तो रागी होय

परस करे तो बागी होय

करे आचमन मूड़ सिराए

चम्बल तो बड़ भागी होय

(दो)

यमुना, गंगा, कृष्णा, कावेरी, गोमती, अलकनन्दा

यह तो लड़कियों के नाम हैं

चम्बल नहीं है किसी लड़की का नाम

जबकि, चम्बल वह अकेली और अभागी नदी है

जो पुराणों में वर्णित अपने स्वरूप को

आज तक कर रही है सार्थक,

चम्बल में पानी नहीं ख़ून बहता है,

चम्बल में मछलियाँ नहीं लाशें तैरती हैं

चम्बल प्रतिशोध की नदी है

और वह कौनसी लड़की है

जो प्रतिशोध और ख़ून से भरी नहीं है

और जिसमें लाशें नहीं तैरतीं,

फिर भी शारदा, सई क्षिप्रा, कालिन्दी तो -लड़कियों के नाम हैं

चम्बल नहीं है किसी लड़की का नाम

और वे नदियाँ

जिनके नामों पर रखे गए लड़कियों के नाम

और जो स्वर्ग से उतरीं थीं, धरती पर हमें तारने

आज खुद अपने तारे जाने के लिए तरस रही हैं

भक्तों के मल-मूत्र से

वमन और विष्ठा और बलग़म से भर कर

वे हो गई है कुम्भी पाक,

लेकिन उसी मल-मूत्र और वमन और विष्ठा से

दिया जा रहा सूर्य को अर्ध्य

ओम् भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर वरेण्यम…।

चम्बल पर कब्ज़े के लिए हुए

देवों और दानवों में युद्ध इस कदर

कि रक्त और चर्म से भर कर वह कहलाई चर्मणवती, चर्मवती

यानि चाम वाली चम्बल

आज जबकि बाज़ार आमादा है,

हर माता को चर्मवती बना देने के लिए

और कुछ अभागिनों को तो बना ही दिया जाता है चर्मवती

फिर भी

कल्याणी, सिन्धु और जाह्नवी

भागीरथी, सोन रेखा, नर्मदा, सरयू-मन्दाकिनी

तो लड़कियों के नाम हैं,

चम्बल नहीं है किसी लड़की का नाम

देखो, कितनी सारी नदियों के तो नाम ही नहीं आए

उन करोड़ों-करोड़ नदियों के नाम

जो सुखा दी गई स्रोत पर ही, रह गई अनाम

याद करो वह नदी

जो इतिहास में तो है, भूगोल में नहीं है

वह विद्या और बुद्धि की नदी, सरस्वती

तो शायद शर्म से ही धरती में समा गई

वह गोया, अब अपनी क़ब्र में ही बहती है

चम्बल की बेटियों के नाम हुए,

फूलन देवी, कुसुमा नाइन, गुल्लो बेड़िन

फूल, कुसुम और गुल,

लेकिन फूलों के नाम वाली ये बेटियाँ फूल नहीं थीं

फूलो को नंगा नहीं किया जाता,

झोटा पकड़ कर घसीटा नहीं जाता

फूलों को जलती हुई बीड़ियों से दागा नहीं जाता

कोमल अंगों में मिर्ची भर कर

कबुलवाया नहीं जाता कि

वे डायनें हैं

शिशुओं के नर्म कलेजे चाट-चाट कर खाती हैं

वे ही लाती हैं बाढ़ महामारी, अकाल, दुर्भाग्य

मुक़दमें वे ही हरवाती हैं

हाथ डुबोए गए खौलते हुए तेल में

और फफोले पड़ते ही अपराध सिद्ध हो गए

गिद्ध हो गए पंच परमेश्वर

और सभी जन

कांकर, पाथर, चिरई, कूकुर, भेड़ हो गए

घास हो गए, पेड़ हो गए

फूलों के मुँह से निकली कुछ बुदबुद पर चिल्लाया ओझा

लो सुनलो, इसने स्वयं कुबूला अपना डायन होना

अब ये मेरे हाथों मुक्ति चाहती हैं

चौदह की या पन्द्रह की, गुल्लो बेड़िन ने जब देखा

पूरी पंचायत हत्यारी है

और अगली उसकी बारी है

तो जान बचा कर भागी

कुछ कहते गुल्लो नागिन थी

कुछ कहते बस, नचने वाली बैरागिन थी

कैसी दाग़ी, कैसी बाग़ी

कहते हैं डाकू लाखन ने पीछे से

और पुलिस ने उसके सीने पर गोली दागी

उस पर ना कोई लेख

न ही अभिलेखों में उल्लेख

पुलिस का कहना है, किंवदन्ती है

आज भी किन्तु, गोहद बेसली नदी वाली

राहों से राही बचते हैं

कहते हैं सारी रात वहां गुल्लो के घुंघरू बजते हैं

धूप में पजर कर

जब फूलों के तलवों में पड़ गई बिवाइयाँ

ओठों पर पपडिय़ाँ, चेहरों पर झाइयाँ

बाल जटा जूट, सूजी हुई पलकें, सूजी हुए पाँव

नींद से भरी आखें लाल

और झुलसी हुई खाल

इस तरह

जब उनकी सारी कोमलता को कर दिया नष्ट

और रुह को कुरूप

तब कहा

ये हैं दस्यु सुन्दरियाँ

कुत्तों और सियारों के रोने की आवाज़ों में

उनके रोने की आवाज़

तेज आंधियों में चट्टानों से टकरा

बहते पानी में होती उनके होने की आवाज़

पछुआ चले तो पच्छिम से आती है

उनके रोने की आवाज़

और पुरवा चले तो पूरब से आती है उनके रोने की आवाज़

और जब किसी दिशा में चलती नहीं हवाएँ

होती है साँय-साँय

तब लोग समझ लेते हैं

यह उनकी बेहोशी की आवाज़

गर्दन तक चलती हुई छुरी की खिस्स-खिस्स

शामिल होती कीर्तन के ढोल-धमाकों में

कहते हैं एक दिन उन फूलों ने

अपनी पन्हइयों में भर कर पेशाब

पिलाई अपने बलात्कारियों को

और पेड़ों से बाँधकर

उनके प्रजनन अंगों के चिथड़े उड़ा दिए

फूल कैसे हुए पत्थर

और पत्थर कैसे हुए रेत

यह फूलों के रेत हो जाने की कथा है

यह फूलों के खेत हो जाने की कथा है

यह फूलों के प्रेत हो जाने की कथा है ।


(तीन)


चम्बल का स्रोत खोजने मत जाना

स्रोत खोजते हुए कहीं तुम अपने

घर तक ही न पहुँच जाओ

और देखो

कि चम्बल वहीं से निकल रही है

निकल चुकी है

या बस, निकलने वाली है ।

सूर्य डूबने के साथ ही जैसे

लड़कियों का आकाश भी डूब जाता है

जैसे जैसे छायाएँ सिमटती हैं

लड़कियों की जगहे भी सिमटना शुरू हो जाती हैं

अंधेरा दाखिल हो उससे पहले ही

उन्हें दाख़िल हो जाना चाहिए

अपने घरों के प्राचीन अन्धकार में

लेकिन एक शाम

जब गायें खूँटों की तरफ

बकरियाँ बाड़ों की तरफ

और मुर्गियाँ दड़बों की तरफ हाँकी जा रही थीं

तीन बहने निकलीं घर के बाहर

तालाब में डूबने

बड़की बोली पहले मैं डूबूंगी

क्योंकि छुटकी को डूबते हुए देख नहीं पाऊँगी

तो छुटकी बोली

जिज्जी, तुम नहीं रहोगी

तो अकेले मुझे डूबते हुए कितना डर लगेगा

सुनकर मझली ने छुटकी को चिपटा लिया

और बोली — हम तीनों बहनें एक साथ डूबेंगी

छुटकी बोली,

मझली, जब तेरी कमर तक पानी आएगा

तो मेरे सिर तक आ जाएगा

एक साथ कैसे डूबेंगी

मझली के आँसू आ गए

उसने छुटकी को गोद में उठा लिया

छुटकी बोली

मझली तुम्हें तो तैरना आता

तुम कैसे डूबोगी

मैं गले में पत्थर बाँध लूँगी

लेकिन रस्सी तो अपन लाए नहीं

मैं चुनरी से बाँध लूँगी पत्थर

लेकिन चुनरी हट जाएगी

तो तुम्हे शर्म नहीं आएगी

नहीं — मझली ने कहा

लाशों को कोई शर्म नही आती

(कविता: चंबल एक नदी का नाम, कवि नरेश सक्सेना)

तो सबसे पहले आप केवल इस तथ्य पर गौर करें कि कितने पाठकों ने इस कविता से पहले महाराजा रंतिदेव और उसके अग्निहोत्र की कहानी सुनी थी, ज़ाहिर है बहुत कम ने.. तो कविता की पहली समस्या उसकी पहली लाइन से ही पैदा होती है, कवि फैसलाकुन तरीके से एक नदी की पैदाइश को एक ब्राह्मण महाकाव्य के मिथक में तलाश कर वहीं केंद्रित कर देता है.. कवि के लिए नदी के इतिहास का स्रोत मिथक है।

इस तरह कविता पाठक के अंतर्मन में जो पहली बात दर्ज़ करती है वो ये है कि चंबल एक गाय और बछडों के ख़ून से बनी नदी है। यहां ये तर्क दिया जा सकता है कि मिथक से कविता की सामग्री लेने में कुछ बुराई नहीं, लेकिन ध्यान रखना होगा कि अगर मिथक वर्चस्वशाली संस्कृति का निर्माता और व्यवस्थापक हो तो प्रगतिशील कविता को उसकी सामग्री केवल उसे प्रॉब्लेमेटाइज़ करने के लिये लेनी चाहिए ना कि उसे प्रमाणित करने के लिए।

ये किसी भी प्रगतिशील कहलाने वाली कविता मिथक के प्रति, उसके प्रतिरोध के नज़रिए से वैज्ञानिक पैमाना होना चाहिए, प्रगतिशील कविता मिथक के साथ न तो बह सकती है ना ही उसमें डूब सकती है, उसे मिथक पर तैरने की छूट ज़रूर और अगर वो गोता लगाना चाहे तो सुनिश्चित करे कि ख़ुद नहीं भीगेगी ना ही वहां मौजूद कथित रत्नों को अपने माथे पर सजाएगी और गोता लगाते समय वैज्ञानिक चेतना के साथ उत्पीड़ित समुदायों के लोगों के प्रति समानुभूति के औजारों से लैस रहेगी।

अन्यथा कवि खुद तो डूबेगा और अपने लिए ख़ुद रास्ता तलाश रहे लोगों को भी ले डूबेगा, उन्हें तो ज़रूर ही जो उस पर विश्वास करते हैं और उसे अपना कवि मानते हैं।

फिर अगर कवि को मिथक लेना ही है तो वर्चस्वशाली ब्राह्मण संस्कृति का मिथक ही वो क्यों लेता है, इससे बड़ी दिक्कत होती है जो साहित्य से अधिक आम समाज को प्रभावित करता है।

एक व्यावहारिक समस्या के उदाहरण से बात और साफ़ होगी। उत्तराखंड में उच्च हिमालय में ब्यास घाटी का वेदव्यास से कुछ लेना देना नहीं है लेकिन ब्राह्मण संस्कृति एक वर्चस्वशाली संस्कृति है जो लगातार विस्तृत होती जा रही है, अब यहां जनजातीय ब्यास का मतलब वेदव्यास हो गया है।

मूल निवासी कोलों की सारी मातृदेवियाँ यहा~ं अब वैष्णव देवियों में बदल दी गई हैं। ये प्रक्रिया अखिल भारतीय स्तर पर हुई है और इसका सबसे अधिक खामियाजा औरतों को भुगतना पड़ता है क्योंकि उन पर ब्राह्मणीय पितृसत्ता की जकड़ मज़बूत होती है।

और अगर मैं कहूं नरेश सक्सेना की इस कविता जैसी तमाम कवितायें जाने अनजाने इस प्रकिया का टूल हैं तो क्या आप मुझे इसके लिये माफ़ कर पाएंगे? ये बात और है कि मैं माफ़ी नहीं मांगने वाला हूँ ।

ख़ैर, अब आगे बढ़ते हैं…

कवि के अनुसार चंबल के तट तीर्थ नहीं, प्राचीन नगर नहीं, क्या सच में?? चंबल कम से कम तीन भारतीय प्रदेशों से गुजरती है और दो के मध्य तो सीमा बनाती है, लेकिन कवि को उसके तट पर प्राचीन सभ्यता नहीं दिखती ऐसा क्यों है??

कवि कारण ख़ुद ही बताता है,’ना पूजन हवन ना मंत्रोच्चार’.. कवि के लिये तीर्थ का मतलब ब्राह्मण सांस्कृतिक अनुष्ठानों और पर्वों के अलावा कुछ है ही नहीं। अपरकास्ट उत्तर भारतीय हिंदी कवि के लिये संस्कृति और सभ्यता की परिभाषा कितनी संकुचित होती है।

क्या राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के विस्तृत दायरे में चंबल के किनारे सभ्यता या तीर्थ नहीं होंगे, स्थानीय लोक के अपने तीर्थ अपनी आस्थाएं अपने विश्वास अपने देव देवता होंगे.. लेकिन हिंदी कवि अपने ब्राह्मण सांस्कृतिक आग्रह से बाहर निकलेगा तब तो देख पाएगा।

और लोक संस्कृति के आग्रही तमाम बौद्धिक भी नरेश सक्सेना की नज़र की इस सीमा पर या स्थानीय लोक की उपेक्षा पर कुछ नहीं बोलेंगे क्योंकि हमें पता है कि वो किस ‘लोक’ के संरक्षण के हिमायती हैं। उनका लोक, शास्त्र का समानांतर और प्रतिस्पर्धी स्वायत्त लोक नहीं बल्कि ब्राह्मणीय घुसपैठ के कारण वंशानुगत पंक्तिभेद आधारित जातीय पेशों में व्यवस्थित हो चुका और थमा हुआ अर्थतन्त्र ही उनकी प्रेरणा का लोक है। यदि ऐसा नहीं होता तो नरेश सक्सेना की समस्याग्रस्त कविता पर पहली आपत्ति लोक संस्कृति के संरक्षण के पैरोकारों की और से ही आनी चाहिए थी।

खैर, नरेश सक्सेना की अति प्रसिद्ध कविता की दूसरी समस्या पहली समस्या का ही एक्सटेंशन या उसका तार्किक परिणाम है कि ब्राह्मण सांस्कृतिक दायरे में ही सब कुछ परिभाषित करने की कोशिश करना.. जैसे उसके बाहर कोई सांस्कृतिक संदर्भ ही नहीं, क्या सच में हिन्दी कविता के प्रेरणा के सांस्कृतिक स्रोत इतने सीमित और वर्चस्वशाली हैं, ये तो बेहद गंभीर समस्या है…

हाल में गीतकार शैलेन्द्र पर आयोजित एक कार्यक्रम में बोलते हुए नरेश सक्सेना कहते हैं ‘अरे तुलसी को याद करिये’.. शैलेन्द्र के बहाने तुलसी को मज़बूत करने का क्या कारण हो सकता है, वो भी उस समय जब तुलसी और राम चरित मानस को लेकर आलोचनात्मक मूल्यांकन की न केवल ज़रूरत है बल्कि वो मूल्यांकन किया भी जा रहा है और कुछ हद तक हिन्दी के नये पाठकों और लिखने वालों पर अपना प्रभाव भी अग्रगामी चेतना के निर्माण के रूप में डाल रहा है।

खैर, कविता पर आगे बढ़ते हैं.. ‘अकेली अभागी नदी जो पुराणो में वर्णित अपने रूप को आज तक सार्थक कर रही है’।

‘वो कौन सी लड़की है जो प्रतिशोध और ख़ून से भरी नहीं है’।

तो कवि से आप सभी से भी सवाल पूछा जाना चाहिए कि ये बात सही है कि हर लड़की प्रतिशोध से भरी है तो हर नदी ख़ून से क्यों नहीं भरी, केवल चंबल ही क्यों?

क्या इसलिए कि पुराण में उसे ऐसा कहा गया.. कवि एक बार फिर इंसानी भाव के साथ खिलवाड़ करता हुआ उसे प्रमाणिकता के लिये ब्राह्मण महाकाव्यों और पुराण की देहलीज पर ले आता है, और कविता का भाव इतना ताक़तवर है कि अगर आप अतिरिक्त सचेत नहीं हुए तो ब्राह्मण पुराणों, शात्रों की प्रामाणिकता पर आपके विश्वास कायम हो जाने की संभावना है।

फिर आगे कवि नदियों के स्वर्ग से उतरने और हमें तारने की बात कहते हुए, जिन कारकों से उनके कुम्भी पाक होने की बात करता है, यानि भक्तों के मल, मूत्र, बलगम, वमन आदि से, वे कारक किसी ब्राह्मण नज़र के बिना किसी नदी को कुम्भी पाक कैसे बना सकते हैं क्योंकि ह्यूमन एक्सक्रीटा.. कैसे नदी को कुम्भी पाक बनाएगा.. वो तो हमेशा से नदियों में जाता रहा है..

ध्यान रहे कि कुम्भी पाक एक ब्राह्मण मिथक है।

और ह्यूमन अपशिष्ट को पाक का स्रोत मानना भी ब्राह्मणीय नज़र और परिप्रेक्ष्य ही है और हाँ कवि ने व्यंग्य करते हुए भी आपसे ब्राह्मण गायत्री मंत्र पढ़वा दिया है।

फिर कवि देव दानव युद्ध का संदर्भ ले आया.. नदी, पहाड़, दर्रे हर किसी वस्तु को ब्राह्मण दायरे में ही परिभाषित क्यों किया जाना चाहिए। क्या इस ज़मीन में ब्राह्मण संस्कृति के अतिरिक्त कोई स्वायत्त सांस्कृतिक संदर्भ ही नहीं है। इसके खतरे फिर समझिएगा

मेरे गृहनगर के इलाके में लगभग हर पांचवे साल एक नई गुफा की ‘खोज’होती है, असल में ये नई जगह भी कई लोगों को पता होती है लेकिन अचानक किसी व्यक्ति को सपना आता है और देवता उसे गुफा के बारे में बताते हैं और अगले दिन के अखबार उस गुफा के प्राकृतिक स्ट्रक्चर को पौराणिक कहानियों के पात्रों के रूप में चित्रित करते हैं। कई सालों से यह हो रहा है.. आम लोग वहाँ पूजा करते हैं और एक पुरोहित या ब्राह्मण भी वहाँ पैदा हो जाता है। किसी भी सचेत व्यक्ति को इससे परेशानी होनी चाहिए कि वर्चस्व की संस्कृति आम संस्कृति बन कर फैलती जा रही है लेकिन नरेश सक्सेना को शायद इसकी परवाह नहीं है।

कवि इतनी साधारण सी बात क्यों नहीं सोच पाता कि चमड़ा साफ़ करने और सुखाने के लिये दो विरोधी बातें चाहिए पानी और साथ ही शुष्कता भी.. चंबल के पास दोनों हैं।

इस नदी के किनारे चमड़ा सुखाया जाता होगा, जो कि यहाँ humidity कम होने से अन्य नदियों की तुलना में आसान होगा इसलिए संभवतः इसे चंबल कहा गया.. यहाँ कवि खामखाँ की पौराणिक गप्पबाज़ी को प्रमाणित क्यों कर रहा है।

‘याद करो वो नदी जो इतिहास में तो है भूगोल में नहीं’

फिर अटकलबाज़ी को फैसलाकुन तरीक़े से ‘इतिहास’ कहने की इतनी ज़ल्दबाज़ी कवि को क्यों है। इस कथित लुप्त नदी के क्या ऐतिहासिक प्रमाण हैं? और अगर हैं तो क्या केवल सरस्वती ही गुम हुई, अन्य नदियाँ ग़ायब नहीं हुईं? एक ख़ास संदर्भ में एक ख़ास नदी का ज़िक्र कर कवि फिर ब्राह्मण मिथक को इतिहास की प्रमाणिकता दे देता है। हिंदी के प्रगतिशील कवि का सांस्कृतिक आग्रह किस तरह उसे सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों के निकट ले आता है, देखने में रोचक है ना? इनके पास कोई समानांतर सांस्कृतिक प्रतिरोध है ही नहीं, ये कैसे फासिस्टों को चुनौती देंगे… क्या तुलसी के सहारे?

लेकिन फिर भी इतना कहना होगा कि कवि संवेदनशील है इसलिये वो भाव के रूप में अच्छे से स्त्री पक्ष को उभार पाया है लेकिन वैज्ञानिकता और वस्तुनिष्ठता के साथ नहीं।

कविता में तीन नाम आए हैं — फूलन, कुसुमा और गुल्लो.. बिलकुल साफ़ है कि तीनों स्त्रियां निचली जातियों से हैं। जाति स्त्री को शोषण के लिए वल्नरेबल बनाती है, निचली जाति की औरतें ही संस्थागत और संगठित यौन हिंसा का शिकार हुई हैं। उन्हें ही सरेआम नग्न किया गया और ये किसी मिथक में नहीं बल्कि वास्तव में हुआ है। ये सबसे ज़रूरी और बुनियादी पक्ष कविता से ग़ायब है.. क्यों?

बिना सचेत हुए इतनी महत्वपूर्ण बात कैसे छुपाई जा सकती है, कवि ने यहां चतुरता दिखाई है। किस वास्तविक बात को दबाना है और किस मिथक को प्रमाणिकता दिलाना है ये हिंदी के अपर कास्ट कवि के सांस्कृतिक आग्रह तय करते हैं।

‘चंबल का स्रोत कहाँ है.. कहीं वो आपका घर ही ना हो’.. ये एक सच है और यहाँ कवि बिलकुल सही है। ब्राह्मणीय पितृसत्ता ही है इस समस्त अन्याय का स्रोत.. जो सभी हिन्दू परिवार हैं। लेकिन कवि तो साथ साथ उन मिथकों को भी प्रमाणित करता चलता है जो ब्राह्मणीय पितृसत्ता को लोक में स्थापित करते हैं।

किसी सचेत परिवर्तन आकाँक्षी पाठक के लिये कविता का सबसे ज़रूरी बिंदु वो जगह है जहाँ स्त्रियां अपने बलात्कारियों के प्रजनन अंगों के चीथड़े उड़ा देती हैं। वहीं पर कविता महानता को पल भर के लिए छूती है लेकिन वहाँ फूल रेत या प्रेत नहीं हैं बल्कि उन्होंने अपना इंसान होना क्लेम किया है।

रेत और प्रेत कहकर कवि ने उन्हें अप्रत्यक्ष रूप से निष्ठुर कह दिया है। बल्कि उन्होंने तो इंसान या जीव के बुनियादी जैविक अधिकार यानि जीवन और गरिमा के अपने दावे को यहाँ पुष्ट किया है। उन्होंने जताया है कि प्रतिरोध इंस्टिंक्ट है। रेत और प्रेत प्रतिरोध नहीं करते बल्कि जीवित इंसान करते हैं।

इसके बाद का आख़िरी हिस्सा ज़रूर भावप्रवण है लेकिन उसका प्रतिरोध से कोई वास्ता नहीं, वो महज़ ‘लाशों’ से शर्म की अपेक्षा करता है। लेकिन क्या ‘लाशों’ को शर्म आती है? मूल बात ये है कि ‘लाशों’ को शर्म क्यों नहीं आती? शर्म आख़िर है क्या? शर्म का भी एक सांस्कृतिक संदर्भ होता है और शर्म की भी एक वर्ग संरचना होती है.. लेकिन तुलसी के प्रशंसक हिन्दी जगत के लोकप्रिय कवि से उस संरचना को उद्घाटित करने की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। मेरा ये कहना है कि नरेश सक्सेना की यह बहुत मक़बूल कविता मुझे ब्राह्मण मिथकों को अनावश्यक प्रामाणिकता दिलाने वाली, वास्तविक संघर्ष को जानते हुए भी उसके ज़िक्र से बचने वाली, और हाँ संवेदनशील मनो को परेशान करने वाली कविता लगती है.. जो प्रतिरोध को छू कर फिर हृदय परिवर्तन वाली खाई में कूद जाती है।

कारण बता चुका हूँ ब्राह्मण सांस्कृतिक दायरे के भीतर इससे अधिक समझदार और संवेदनशील हुआ नहीं जा सकता।

और ये सीमा ही एक अच्छी कविता को प्रतिगामी बना देती है।

और इसीलिए भारतीय समाज को लेकर मेरा बुनियादी विश्वास है कि यहाँ असल ग़ुलामी राजनैतिक नहीं सांस्कृतिक है।