मीठा वाला साबुन / अशोक कुमार शुक्ला
(देखना इस साबुन से तुम्हारे चेहरे पर अभी से दाढ़ी उग आयेगी..!" )
पिछली किसी पोस्ट में मैंने बताया था था कि मेरी कक्षा की मानिटर "बेबी" नाम की लडकी थी को स्कूल की हेड मिस्ट्रेस मिसेज मैसी की बेटी थी भी थी.। उस जमाने में स्कूल पिंसिपल के बच्चे किसी तानाशाह के बेटे जैसे नहीं होते थे और उन बच्चों पर भी वही अनुशासन लागू होता था जो आम छात्र छात्राओं पर लागू होते थे। वैसे भी आज याद करता हूँ तो यह पाता हूँ कि हमारी मानिटर बेबी उस नन्ही सी उम्र में भी बहुत शालीन और केयरिंग बालिका थी। मेरे स्कूल पहुँचने के पहले दिन उसका अपने टिफिन शेसन में मुझे शामिल करना बहुत ही अच्छा लगा था। एक दिन स्कूल में मेडिकल टीम आयी और बारी बारी से एक एक कक्षा के सारे बच्चों की बांह पर कोई दवा लगा कर गोदना जैसा गोदने लगी..।पहले दिन विद्यालय के सबसे वरिष्ट बच्चों की यानी कक्षा पांच के बच्चों की बारी थी। मैंने यह देखा कि अपनी बांह पर गोदना जैसा गोदाने के दौरान प्रत्येक बच्चा रो रहा था...। मुझ नन्हे बच्चे का मन यह सब देखकर सहम गया। घर आकर माँ को बताया तो वो भी कुछ न समझ सकी। मैंने हिसाब लगाकर दो दिन बाद अपनी कक्षा की बारी का अनुमान लगाया। मन ही मन उस दिन स्कूल न जाने के बारे में निश्चय कर लिया। मुझे याद आ रहा है कि प्रत्येक शाम को हमारे घर के सामने वाली सड़क से एक बुजुर्ग सज्जन गुजरा करते थे जो उसी ओर रहा करते थे जिस ओर मेस्मोर प्राइमरी स्कूल था। उन सज्जन को सारे बच्चे विक्टर दादा-विक्टर दादा कहा करते थे।सम्भवत वो स्कूल की अध्यापिका विक्टर मैम के पति या पिता रहे होंगे। विक्टर दादा बच्चों में बहुत लोकप्रिय थे। वे हमेशा एक हैट लगाए रहते, उनके हाथ में एक लाठी होती और वो ओवरकोट पहने रहते थे.। उस ओवरकोट की जेब में न जाने कितनी टाफिया होती थी कि हर बच्चे को बांटने के बाद भी कभी ख़तम नहीं होती थीं।...उस शाम जब विक्टर दादा घर के सामने से गुजरे तो माँ ने उन्हें रोककर पूछा- "लल्ला बता रहा था कि आज स्कूल के बड़े बच्चों के हाथ में कुछ गोदा गया है।" संभवतः विक्टर दादा कुछ समझ नहीं पाए तो मुझे बुलाकर पूछा।जब मैंने उन्हें गोदना गोदे जाने का पूरा उपक्रम बताया तो उन्होंने माँ को समझाया कि ये गोदना नहीं बल्कि चेचक का टीका है...जो बारी बारी से स्कूल के सारे बच्चों को लगेगा ....। अगले दिन मैं स्कूल तो गया लेकिन मेडिकल टीम का ख़याल आता रहा। मध्यावकाश के बाद आज टीका लगाने की बारी कक्षा चार के बच्चो की थी। मैंने देखा कि जो भी बालक मेडिकल टीम वाले कमरे में जाता आँखों में पानी भरकर वापिस आता.... स्कूल में चेचक के टीके लगाए जा रहे थे और उस दिन कक्षा चार के बच्चे इस दर्दभरी प्रक्रिया से गुजरे। अब मेरे मन में अगले दिन का डर अभी से सताने लगा था जब टीका लगवाने की मेरी कक्षा की बारी थी। अगले दिन सुबह जब माँ मुझे स्कूल भेजने की तैयारी में लगीं तो मैंने रोना आरम्भ कर दिया ...यह पहला अवसर रहा होगा जब मैं स्कूल के नाम से रोया था....माँ ने कारण पूछा तो मैंने बताया कि पेट में दर्द हो रहा है इसलिए स्कूल नहीं जाउंगा..। माँ तो मेरा बहाना समझ ही चुकीं थी इसलिए उन्होंने मुझे स्कूल भेजने में कोई कोताही नहीं की और मैं रोते सुबकते स्कूल भेज दिया गया...। स्कूल की प्रातः प्रार्थना में मन नहीं लगा। रह रह कर टीके वाली टीम का ख़याल आ रहा था...। मध्यावकाश तक का समय राम राम करते जैसे तैसे बीत गया। ऐसा लगा जैसे उस दिन टीके वाली टीम नहीं आएगी परन्तु मध्यावकाश के समय मैंने उन लोगों को प्रिंसिपल मैम के कमरे में जाते देखा तो मन में टीका लगवाकर निकलते कक्षा चार और पांच के बच्चों के रोते हुए चेहरे बरबस घूमने लगे...। उन सबके टीके लग चुके थे इसलिए आज इन कक्षाओं के बच्चे प्रसन्नचित्त थे...अचानक बिजली की सी फुर्ती से एक विचार मेरे मन में आया कि अगर मैं इन बच्चों में शामिल हो जाऊं तो टीका लगवाने से बच सकता हूँ... लेकिन कैसे...? अभी तो मध्यावकाश चल ही रहा था ... सारे बच्चे खेल रहे थे ऐसे में मैं खेल छोड़कर अपनी कक्षा में पहुँच गया और चुपचाप अपना बस्ता उठाकर कक्षा चार की ओर चल दिया...क्लास के पीछे एक खाली डेस्क पर अपना बस्ता रखकर चुपचाप बाहर निकल आया..। यह टास्क सफलतापूर्वक करने के दौरान मुझ पर किसी की नजर भी नहीं पड़ी थी..। कुछ ही देर में इंटरवेल ख़तम होने की घंटी बजी और सारे बच्चे अपनी अपनी कक्षाओं में पहुँच गए...मैं भी चोरों की तरह आकर कक्षा चार की पिछली बेंच पर बैठ गया.... निर्धारित समय पर मेडिकल टीम कक्षा तीन के बच्चों को टीके के लिए बुलाने लगी और मेरी क्लास का पहला बच्चा टीका लगवाने पहुच गया। मैं उसका रोते हुए बाहर निकलने की प्रतीक्षा करते हुए दुबका हुआ बैठा रहा....कक्षा चार की पिछली सीट पर किसी मेमने की तरह .... लेकिन बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाती। थोड़ी ही देर में हमारी क्लास मानिटर बेबी क्लास में आयी ... मैं थोड़ा और दुबक गया लेकिन शायद किसी ने मुझे दुबके हुए देख लिया था सो मुझे डांटकर बस्ते सहित अपनी कक्षा में जाने को कहा गया...। उस समय क्लास मानिटर बेबी मुझे किसी जल्लाद से कम नही लगी थी। इस पूरी कवायद का परिणाम यह हुआ कि मुझे सीधे टीके वाली टीम के पास ले जाया गया और मेरे रोने चिल्लाने के बावजूद मेरे बाए हाथ पर दो गोदने गोदकर टीका लगा दिया गया। मुझे अच्छी तरह याद है कि वह टीका लगाने के दौरान खून छलछला जाता था जिसे छूने और पोछने की मनाही होती थी..। समूची कक्षा को टीका लगा चुकने के बाद क्लास मानिटर को भी टीका लगाया गया। वोह बालिका जो थोड़ी देर पहले मुझे किसी शिकारी की भाँति कक्षा चार से दबोच लाई थी टीका लगने के बाद स्वयं रो रही थी। अब तक मेरा दर्द कम हो चुका था सो रोना भी ख़तम हो गया था लेकिन बेबी को रोता देखकर मन में संतोष हुआ... लगा जैसे मेरा बदला पूरा हुआ हो उस दिन स्कूल से चेचक का टीका लगवाकर जब मैं घर पहुंचा तो माँ ने पूछा- "टीका लगवाने में दर्द तो नहीं हुआ था मेरे लल्ला को..!" लाल्लाजी ने भी शेखी बघारने में कोई कसर नहीं रखी और टीके दिखाते हुए बोले- "नहीं माँ...मैंने तो शुरुआत में ही लगवा लिया था ...जब तक और बच्चों के लगा मेरा तो दर्द भो ठीक हो गया था..." यूँ तो मेरा नाम अशोक था जो मेरे नाना और पिता की मिलीजुलीपसंद से रखा गया था लेकिन मेरी माँ ने मुझे हमेशा लल्ला ही कहा। मोहल्ले में उनकी भी पहचान "लल्ला की माँ" के नाम से ही थी । लल्ला की भोली माँ अपने लल्ला की कारस्तानी जान भी न पाती अगर शाम को विक्टर दादा न आते। दैनिक उपक्रम के अनुरूप शाम को जब विक्टर दादा उधर से गुजरे तो बच्चों ने वही पुरानी रट लगानी आरम्भ की "विक्टर दादा टाफी दे दो..!" टाफी मांगने वालो में मैं भी शामिल था तो उन्होंने पूछा -तुममे से शुक्ला जी का बेटा कौन है ?" मुझे लगा शायद विक्टर दादा शुक्लाजी के बेटे को ज्यादा टाफियां देना चाहते हो आज मैं झट से बोल उठा- "दादाजी मैं हूँ शुक्ला जी का बेटा.!" विक्टर दादा ने मुझे गौर से देखा और अब पूछा- "और तुममे से विक्टर दादा का बेटा कौन है?" अबकी बार सारे बच्चो चिल्ला कर बोले "हम है दादा आपके बेटे..!" विक्टर दादा ने सबको एक एक टाफी दी और मुझे दो टाफियां दी। पौड़ी के पुराना चोपड़ा मार्ग पर सड़क से ऊपर स्थित घर से माँ भी यह सब कुछ देख रही थी। उसके मन में भी विक्टर दादा के लिए सम्मान का भाव था और वह भी प्रत्येक शाम को सड़क से गुजरते दादा का अभिवादन करती और स्कूल के हाल चाल लेती। माँ ने विक्टर दादा से शुक्लाजी के बेटे के बारे में पूछने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि विक्टर मैडम ने उन्हें बताया था कि आज स्कूल में टीके से बचने के लिए कक्षा तीन में भरती हुआ शुक्ला जी का यह लड़का किस तरह कक्षा चार में आकर बैठ गया था। मेरी तो चोरी मेरी माँ के सामने खुल गयी थी।दो टाफिया मिलने की खुशी काफूर हो गयी। माँ के सामने सच आ जाने के बाद घर पहुँचने पर क्या होगा? यह सोचकर मन में दहशत सी हो आयी औ और कुछ नहीं सूझा सो मैं जोर जोर से रोने लगा और टाफिया वहीँ पटककर सबसे दूर जाने लगा। मुझे याद नहीं कि कौन मुझे घर ले गया और घर पहुँच कर क्या हुआ। अब इतना याद है कि अगले दिन सुबह जब उठा तो देखा की टीके वाली जगह पर कुछ उभार सा बनने लगा था। माँ ने माथा छूकर घोषित किया कि मुझे बुखार आ रहा था... इस हलके बुखार ने स्कूल जाने से तो निजात नहीं दिलाई अलबत्ता उस दिन नहाने से जरूर बच गया...