मुझे जन्म दो माँ (लेख) / संतोष श्रीवास्तव

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पिछले दिनों एक फ़िल्म देखी थी मातृभूमि, जिसने मेरा दिल झंझोड़कर रख दिया है। इसमें भारत के एक ऐसे गाँव का वर्णन है जहाँ लड़की पैदा होते ही उसकी दूध पीती कर दी जाती है अर्थात दूध से भरी बाल्टी में उसे डुबाकर दम घोंट दिया जाता है। उस गाँव के तमाम लड़के कुंवारे हैं क्योंकि लड़की हो तो शादी करें? एक लड़की जैसे-तैसे चार भाइयों के परिवार को मिलती है। चारों भाइयों के संग उसके फेरे होते हैं। हर भाई के दिन मुकर्रर हैं लड़की के साथ हमबिस्तर होने के। न तो उनका अपनी पत्नी के साथ कोई भावनात्मक रिश्ता है न प्रें। अपनी बारी आने पर हर भाई उसके साथ मात्र संभोग के लिए रात गुजारता है। चारों भाइयों की शारीरिक तृप्ति देख विधुर ससुर की भी काम वासना जाग जाती है और वह अपना एकाकीपन और शारीरिक भूख को अपनी बहू के शरीर से तृप्त करता है। लड़की अपने चारों पतियों और ससुर की हवस शांत करते-करते जिन्दा लाश बन जाती है।

यह कहानी मात्र एक गाँव की नहीं है। कई दूर-दराज के इलाके, नगर महानगर सभी जगह अमूमन समान स्थिति है। हरियाणा में एक गाँव है बामला जहाँ सत्तर प्रतिशत युवा कुंवारे हैं। गाँव में और गाँव के आसपास के इलाके में उनके लिए शादी योग्य लड़कियाँ नहीं हैं। तमाम घरों में बस लड़के ही लड़के हैं। जवान चंचल लड़कियों की हंसी-ठिठोली, गीत, चहल-पहल, चूड़ी, पायल की खनक से रीते ये घर बहुओं की आस में तरस रहे हैं। गाँव के बूढ़ों, बुद्धिमान पुरुषों (हाँ वे ही तथाकथित बुद्धिमान पुरुष जिन्होंने कन्या के जन्म लेते ही उसकी सांसें घोंट दी थीं) ने सोचा कि क्यों न दूर दराज के इलाके से बहुएँ खरीद ली जाएँ। (यानी पहले हत्या फिर व्यापार) कितनी सतही सोच है यह कि जो पैसे वाला है वह बहू वाला भी हो जाएगा। परिणामस्वरूप यौन अपराध बढ़े। महिलाएँ असुरक्षित हुईं। अपनी ही जाति से रक्षा के लिए पुरुषों ने उन्हें सिर और चेहरा ढंककर रहने का आदेश दिया।

तमिलनाडु का मदुरै शहर तमाम मंदिरों से भरा एक आध्यात्मिक शहर है। एँ मंदिर के आसपास पुलिसवाला गश्त लगा रहा था। उसने देखा एक वृद्धा कपड़े की पोटली बगल में दबोचे कीचड़ में से गुजर रही थी। कीचड़ गहरा थी, उसके पैर कीचड़ में घुटनों तक धंसे थे। उसने वृद्धा को सहारा देते हुए पोटली थाम ली। पोटली में तीन दिन पहले पैदा हुई एक बच्ची थी। वृद्धा उसे कीचड़ में डुबाने जा रही थी। बच्ची इतनी कसकर लपेटी गई थी कि अस्पताल ले जाते हुए रास्ते में ही उसकी मृत्यु हो गई। कितने दु: ख की बात है कि यह वही तमिलनाडु राज्य है जहाँ तब मुख्यमंत्री एक सशक्त महिला जयललिता थीं। तमिलनाडु के लोग बेटियाँ पसंद नहीं करते। बेटियाँ पैदा होते ही बड़े पैमाने पर उनकी हत्या कर दी जाती है। शोचनीय स्थिति यह है कि यहाँ की औरतें खुद इस बात से दु: खी हैं कि वे औरत के रूप में क्यों जन्मी? वे नहीं चाहती कि उनकी कोख से एक और औरत जन्म ले। इसीलिए दादियाँ पोतियों के बारे में सतर्क हैं। वे या तो उसे जन्म लेने ही नहीं देती, अल्ट्रा साउंड द्वारा लिंग परीक्षण कर कोख में ही उसे मार डालती हैं या पैदा होने के तुरन्त बाद या तो खुद अपने हाथों या दाई के हाथों हत्या करा देती हैं। दाईयाँ दूध में धान मिलाकर बच्ची को पिला देती हैं। धान के छिलकों से जो कि सुई जैसे नुकीले होते हैं बच्ची की अंतड़ियों से खून बहने लगता है और वह मर जाती हैं। कई बार कुछ जहरीले पौधों को अरंडी के तेल में मिलाकर बच्चियों को पिला दिया जाता है, जिससे उनकी मृत्यु हो जाती है।

मेरठ का एक समाचार अभी-अभी नजरों के सामने से गुजरा है। मन खिन्न है। वहाँ निम्न मध्यम वर्ग में घरों में जचकी कराने वाली दाई से एक डेढ़ हजार रुपये में सौदा तय किया जाता है कि अगर लड़की हुई तो वह उसे मार डालेगी। दाई नवजात कन्या के मुंह पर गीला तौलियाँ रखकर उसकी सांस घोंट देती है या नाक में अफीम भर देती है या अफीम चटा देती है। कन्या कि लाश बैग में भरकर कचरे के डिब्बे में घर से निकले कूड़े की तरह फेंक देती है। घर के सदस्य कन्या को देखते तक नहीं। उधर कन्या कि सांसों का अंत होते ही परिवार वालों की जान में जान आ जाती है। घर की बुजुर्ग महिला टीवी रिपोर्टर की तरह बतलाती है, लड़की तो लड़की, उसका क्या? उसे तो मरना ही है, वैसे नहीं तो ऐसे।

हरियाणा के ही किसी गाँव की कृष्णा देवी को तमाम अखबार और समाचार चैनलों ने हाई लाइट किया था। ये जो कृष्णादेवी हैं अब सत्तर बरस की है जिन्होंने अपने पचपनवें साल में अपनी चौदहवीं बेटी को बेटे की आस में जन्म दिया था। पूछे जाने पर बतलाती हैं, हमारे जमाने में लड़का-लड़की पता करने वाली मशीनें तो थीं नहीं सो बेटियाँ पैदा होती गईं।

ओह, तो यदि मशीनें होती तो...?

उत्तर भारत के पंजाब, हरियाणा, दिल्ली जैसे राज्य संपन्न माने जाते हैं... यदि कन्या भ्रूण हत्या को दहेज का कारण मान लें तो इन राज्यों में लड़कियों की संख्या प्रति एक हजार लड़कों के पीछे मात्र 718 क्यों है? इन हत्याओं के कारण देश के स्त्री-पुरुष अनुपात में जबरदस्त अंतर क्यों है? इतिहास गवाह है कन्या हत्या का प्रचलन प्राचीन काल से है क्योंकि पुत्र को वंश का वारिस, अंतिम संस्कार में चिता को अग्नि प्रदान कर माता-पिता को स्वर्ग पहुँचाने वाला माना जाता था। पहले यह हिन्दुओं तक ही सीमित था। अब तो सिखों, मुसलमानों और ईसाइयों में भी कन्या भ्रूण हत्या कि परंपरा अमीरों की दहलीज भी पार कर चुकी है। वहाँ तो कोई दहेज जैसी समस्या मुंह बाए नहीं है।

पुरुषों की तुलना में स्त्री की घटती संख्या ने भारत भर के तमाम महिला संगठनों की नींद उड़ा दी है। भारत में पिछले दो दशकों में अल्ट्रासाउंड तकनीक से लिंग परीक्षण कर लगभग एक करोड़ कन्याओं को जो गर्भ में ही मार दिया गया है उनकी चिंता का विषय है। महिला संगठन इस बात से भी चौंके हैं कि कन्या भ्रूण हत्या के मामले में आधुनिक तबके की पढ़ी लिखी महिलाओं की संख्या अधिक है। आज जब महिलाएँ अपने सभी अधिकारों के प्रति सचेत होकर उनकी मांग कर रही हैं तो क्यों नहीं जन्म लेने के अधिकार के प्रति सचेत होकर कन्या भ्रूण हत्या को रोकने में अपना सहयोग देतीं? क्यों महिलाएँ ही अपनी जाति का सम्मान नहीं करतीं? संवेदनहीनता और लैंगिक भेदभाव की बुनियाद पर खड़े हमारे समाज में यह कैसा कत्ले-आम मचा है? जमाना कहाँ से कहाँ पहुँच गया पर लड़का-लड़की में अंतर रखने की हमारी मानसिकता नहीं बदली। लड़की का जन्म हो या जीवन दोनों को नीची नजर से देखा जाता है। लड़की लड़के के प्रति भेदभाव की भावना, असंतुलित दृष्टिकोण कुल मिलाकर एक ऐसा पारिवारिक असंतुलन पैदा कर रहा है जो सामाजिक सामंजस्य एवं समरसता के लिए खतरनाक है।

हैदराबाद में आयोजित एशिया पैसेफिक कान्फ्रेंस में जो आंकड़े प्रस्तुत कि गए वे गंभीर संकट की ओर इसारा करते हैं। कन्या भ्रूण हत्या का अगर यही सिलसिला चलता रहा तो सन् 2050 आते-आते भारत में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या दो करोड़ अस्सी लाख कम होगी। तो कहाँ जाएगा समाज? एक लड़खड़ाती संस्कृति के जन्म लेने के आसार साफ देखे जा सकते हैं। संस्कृति के लड़खड़ाने का अर्थ है सभ्यता का विनाश... तो क्या हम विनाश की ओर खुद ही नहीं ढकेले जा रहे हैं? कन्या भ्रूण हत्या का सच यह दर्शाता है कि हमारी सोच, हमारे तथाकथित मूल्य आज भी कुछ खोखली मान्यताओं से बंधे हैं। ये गांठें अपने आप नहीं खुलेंगी, हमें खोलनी होंगी। क्या अतीत का यह सच हमारी आंखें खोलेगा जब पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह की माँ पैदा हुई थीं तो उन्हें एक घड़े में बेद कर जमीन में गाड़ दिया गया था। परंतु इत्तेफाक से एक व्यक्ति ने ऐसा होते देख लिया। उसने फौरन जमीन खोदकर घड़ा निकाला और बच्ची की जान बचाई। इसी बच्ची ने युवा होकर शेरे-ए-पंजाब महाराज रणजीत सिंह को जन्म दिया जिन पर पूरे देश को नाज है।

पहले लड़कियाँ जन्म तो लेती थीं पर मार दी जाती थीं लेकिन अब जन्म लेने से पहले मार दी जाती हैं। असल में अल्ट्रासाउंड तकनीक का विकास गर्भस्थ शिशु में आनुवांशिक गड़बड़ी का पता लगाने के लिए किया गया था। लेकिन सत्तर के दशक से डॉक्टरों ने इसका ग़लत इस्तेमाल करना शुरू कर दिया और कन्या भ्रूण हत्या व्यवसाय की तरह पनपने लगा।

पिछले चालीस वर्षों के दौरान राष्ट्रीय स्तर पर लिंग अनुपात में सबसे अधिक गिरावट 1991 से 2006 के दशकों में आई। यह वह दौर था जब लड़कियों की सुरक्षा और समुचित विकास के लिए अनेक योजनाएँ, परियोजनाएँ चल रही थीं। राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बालिका बचाओ के नारे लगाए जा रहे थे। बड़े-बड़े सेमिनार तथा सम्मेलन आयोजित किए जा रहे थे। बालिका वर्ष और बालिका दशक मनाए जा रहे थे। इधर यह सब शोर-शराबा और उधर कन्या भ्रूण हत्या। सब कुछ खोखला... सारी योजनाएँ निपट नाकारा साबित हुईं। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भारत से जवाब मांगा है कि उसे बताना होगा कि यहाँ पुरुषों की तुलना में औरतों की संख्या कम क्यों है? विश्व के अधिकतर देशों में औरतों की संख्या पुरुषों से अधिक पाई गई। हमारे देश का लिंग अनुपात 927 है यानी एक हजार पुरुषों के पीछे 927 स्त्रियाँ हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ ने जनसंख्या के आधार पर अपनी हाल ही में जारी रपट इंडिया टुवर्डस पापुलेशन एण्ड डेवलपमेंट गोल्स में कहा है कि भारत में कन्या भ्रूण परीक्षण के बाद गर्भपात कराना भारतीय समाज के स्त्री के प्रति अनादर का प्रतीक है।

आखिर क्या वजह है इसकी? क्यों संवेदनाओं से भरी-पूरी औरत मजबूर हो जाती है इस दुष्कर्म के लिए? क्यों वह सोचती है कि जन्म के बाद लानत झेलने से बेहतर गर्भ में ही बच्चों को मार देना बेहतर है? इसका दोषी है-हमारा समाज। आज भी कई ऐसे परिवार है जहाँ कन्या पैदा होने पर सारा अपमान और बदनामी केवल औरत को ही झेलनी पड़ती है। परंपरागत भारतीय परिवारों में औरतों के लिए सबसे बड़ी यंत्रणा कि घड़ी तब होती है जब लड़का पैदा न होने पर उसका मानसिक तथा शारीरिक उत्पीड़न किया जाता है। कई बार तलाक और दूसरी शादी की नौबत आ जाती है।

19वीं सदी में अंग्रेज़ी राज में समय इस तरह पुत्री के कत्ल का अपराध साबित होने पर लोगों की जागीरें, पेंशन और पदवी खत्म कर दी जाती थीं या मृत्युदंड की सजा जैसे कड़े कानून लागू थे। खासकर पंजाब में कई परिवार कुड़ीमार नाम से बदनाम हो इस सजा को पा चुके थे। कानून के खौफ से तब लड़कियों को जीवनदान मिलने लगा था। अब किस खौफ से जीवनदान मिले? वह लड़की गर्भ में एक फूल की तरह विकसित होती है। गर्भावस्था के पंद्रहवें दिन माँ की कोख में बच्ची के जीवन की शुरूआत होती है। गर्भावस्था के पंद्रहवें दिन माँ की कोख में बच्ची के जीवन की शुरूआत होती है, वह हर रोज तिल-तिल बढ़ती है। उसका एक-एक अंग आकार ग्रहण करता है। फिर उसके होंठ खुलने लगते हैं। जब वह जन्म लेगी तो यही होंठ हंसते, मुस्कराते, खिलखिलाते कितने प्यारे लगेंगे। इन्हीं होठों पर पहला शब्द होगा मां। कोख में उसकी नन्हीं-नन्हीं उंगलियाँ कितनी प्यारी लगती हैं। उसके गुदगुदे पैर... वह इन पैरों से चलकर माँ की गोद में बैठेगी। वह बड़ी होगी, जवान होगी, किसी की ब्याहता होगी, ससुराल में वह मायके के लिए बिसूरेगी, माँ से कहेगी, मेरा मन तो तुम्हीं में बसा है। कौन तुम्हारे बालों में तेल डालता होगा? कौन आंगन लीपता होगा? अम्मा, बताओ तो भूरी गाय के बछड़ा हुआ या बछिया? कैसे रंग हुआ? अम्मा, शालीग्राम को भोग लगाते, पूजा करते आसन पर बैठे-बैठे तुम्हारी कमर अकड़ जाती होगी। तुम कुछ अपना भी तो सोचो अम्मा। लेकिन नहीं, माँ नहीं सोचती अपना, वह कोख में ही मिटा डालती है बेटी का अस्तित्व। जिस औरत से एक पूरी दुनिया जन्म लेती है, संस्कृति बनती है, परिवार बनता है, जिसके होने से तमाम तीज-त्योहार, व्रत-उपवास, पूजन-हवन है, उस औरत को कोख में ही मसल देने का रिवाज-सा चल पड़ा है।

अमेरिका में सन् 1984 में डॉ. बर्नाड नेथेनसन द्वारा गर्भपात के समय बनाई गई अल्ट्रासाउंड फ़िल्म साइलेंट स्क्रीम का दिल दहला देने वाला विवरण उन्हीं के शब्दों में-जब भ्रूण परीक्षण के बाद गर्भपात की क्रिया चल रही थी तो दस सप्ताह की उस मासूम बच्ची को हम उसकी माँ की कोख में खेलते करवट बदलते, अंगूठा चूसते देख पा रहे थे। उसके दिल की धड़कनें 120 की साधारण गति से धड़क रही थीं। सब कुछ बिल्कुल सामान्य था। किन्तु जैसे ही पहले औजार ने गर्भाशय की दीवार को छुआ, वह मासूम बच्ची डर से एकदम घूमकर सिकुड़ गई और उसके दिल की धड़कन काफी बढ़ गई। धीरे-धीरे वह औजार उस नन्हीं मासूम गुड़िया के टुकड़े-टुकड़े करने लगा। पहले कमर, फिर पैर के गाजर-मूली की तरह टुकड़े किए जा रहे थे। वह बच्ची दर्द से छटपटाती हुई, सिकुड़कर घूम-घूमकर तड़पती हुई उस हत्यारे औजार से बचने की कोशिश कर रही थी। वह बुरी तरह डर गई थी और उशकी धड़कनें 200 तक पहुँच गई थीं। मैंने उसे अपना सिर झटकते और मुंह खोलकर चएकने का प्रयत्न करते हुए देखा। अन्त में संड़सी उसकी खोपड़ी को तोड़ने के लिए तलाश रही थी क्योंकि सिर का वह भाग तोड़े बिना एक्शन ट्यूब से बाहर नहीं निकाला जा सकता था।

हत्या के इस वीभत्स खेल को संपन्न करने में करीब पंद्रह मिनट लगे और जिस डॉक्टर ने यह फ़िल्म बनवाई थी, उसने जब इस फ़िल्म को देखा तो उसने डॉक्टरी पेशे को हमेशा के लिए तिलांजलि दे दी। लेकिन क्या औरत की समाज द्वारा तय की गई नियति को तिलांजलि मिली? क्या होता है महिला सशक्तिकरण वर्ष मनाने से? इसी महिला सशक्तिकरण वर्ष के उपलक्ष्य में केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड और वुमेन नेटवर्क्स लिमिटेड की ओर से विभिन्न राज्यों की पचास महिला पत्रकारों का एक राष्ट्रीय सम्मेलन मार्च में महिला दिवस के मौके पर दिल्ली में आयोजित किया गया था। महाराष्ट्र राज्य से महिला पत्रकार के रूप में मैं आमंत्रित की गई थी। तीन दिन के इस सम्मेलन में महिला पत्रकारों ने पत्रकारिता के क्षेत्र के दिल हिला देने वाले प्रसंग सुनाए जो उन्हें महिला होने के कारण भुगतने पड़ते हैं। लेकिन नतीजा? जहाँ श्रोता के रूप में भी सशक्त जागरुक महिला और वक्ता के रूप में भी सशक्त जागरुक महिला। गांव, सीवान की वे निरक्षर सताई हुई अवाक महिलाएँ तो महिला सशक्तिकरण का अर्थ तक नहीं जानतीं। उन्हें नहीं पता कि आजादी के बाद मुट्ठी भर शहरी और महानगरीय महिलाएँ कहाँ से कहाँ पहुँच गई हैं। उन्हें नहीं पता कि उनके कानूनी अधिकार क्या हैं? उन्हें नहीं पता कि सरकारी और स्वैच्छिक संगठन उनके लिए कौन से कदम उठा रहे हैं। हाँ, एक बात में ये गंवार और पढ़ी लिखी आधुनिक महिला समान हैं... वह है कन्या को जन्मते या अजन्मे मार देना। शायद इसलिए कि औरत के रुखे, अनचाहे और प्रताड़ित किए जाने वाले जीवन से तो उसका जन्म न लेना ही अच्छा है। लेकिन इस तरह हथियार डाल देने से काम नहीं चलेगा। औरत को जन्म देकर इस नियति को ही बदल डालने का प्रण ही उस साइलेंट स्क्रीम-गूंगी चएक का जवाब है। युवा कवि स्व। हेमंत के शब्दों में-

मुझे जन्म दो मां

ताकि मैं लपटों की रोशनाई से

आग की कलम पकड़कर

रचूं धूप का वह गीत

जो संदूकों में बंद

औरत के बुसाए सीलन भरे

अतीत को दफन कर

उगे सूरज की तरह

पूरब की दिशाओं में।

सवाल ये उठता है कि आखिर इस कोख में कन्या संहार, की वजह क्या है? क्यों औरत ही औरत को मिटाने पर तुली है? क्यों वह उसे जन्म देने में हिचकिचाती, दहशत महसूस करती है। इस सवाल से जागरुक महिलाएँ और महिला संगठन परेशान हैं। लिहाजा सेमिनारों में जनकर यह मसला उछाला जा रहा है। खोजे जा रहे हैं हल, उपाय... विश्व के तमाम राष्ट्रों में कन्या भ्रूण हत्या जैसे एक सिलसिला बन गया है। भारत के बारे में ही क्यों? लंदन में बल्कि पूरे यूनाइटेड किंगडम में बसे भारतीय समुदाय में भी यह बुराई छूत के रोग की तरह फैली है। आॅक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के अनुसार ब्रिटेन में रहने वाली भारतीय मूल की महिलाएँ लड़कों की चाहत में अपने गर्भ में पल रही कन्याओं की हत्या कर रही हैं। इसकी सांस्कृतिक दबाव है। भारतीय संस्कृति में लड़की को पराया धन और बोझ मानने की मानसिकता कि जड़ें गहरे धंसी है। कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए यूं तो सरकार ने कानून बना दिया है पर वे सिर्फ़ कागजी बातें हैं। हकीकत में यह एक रोजगार सिद्ध हो रहा है। न जाने क्यों लड़की के प्रति समाज की मानसिकता नहीं बदलती और महिला विकास के लिए बनी योजनाएँ धरी की धरी रह जाती हैं। आज भी परिवार में मां-बाप यही सोचते हैं कि क्या फायदा लड़की को जन्म देकर... आखिर उसे पराए घर भेजना ही होगा, दहेज का बोझ जुटाना ही होगा। बदले में उन्हें क्या मिलेगा? बुढ़ापे में भी वह कुछ काम नहीं आती क्योंकि बेटी के घर का पानी तक छूना पाप है। बेटी अपना घर त्याग कर मां-बाप की सेवा करने तो आ नहीं सकती। मां-बाप की चिता को वह अग्नि भी नहीं दे सकती। यह काम बेटे के द्वारा ही संपन्न हो तभी मोक्ष मिलता है, आत्मा को शांति मिलती है। इन भ्रांतियों के तहत लड़की का जीवन व्यर्थ समझ उसे कोख में ही कुचल दिया जाता है।

इन भांतियों के संग पनप रही हैं कुछ थोथी धारणाएँ और कुरीतियाँ। औरत से जुड़ी हैं उसकी देह शुचिता। जबकि पुरुष के साथ यह बात नहीं के बराबर है। पुरुष की इज्जत उसकी नौकरी... नौकरी में शानदार पद, शिक्षा, तरक्की आदि से आंकी जाती है। औरत कितने भी उच्च पद पर क्यों न हो, कितनी भी शिक्षित क्यों न हो, कितनी भी तरक्की क्यों न कर ली हो यदि पति के अतिरिक्त उसके किसी और से दैहिक सम्बंध हुए तो वह चरित्रहीन घोषित कर दी जाती है और माता-पिता, सास-ससुर बदनाम हो जाते हैं।

भारतीय समाज और भारतीय ही क्यों विश्व के हर देश में औरत से जुड़ी कुप्रथाएँ, कुरीतियाँ आज भी ज्यों की त्यों हैं। जमाने की बदलती रफ्तार इन कुरीतियों से समाज का पीछा नहीं छुड़ा पा रही है। कहने को तो कानून बने, सरकारी, गैर-सरकारी संगठनों में इन मुद्दों पर विचार किया गया। महिला संगठनों ने सम्मेलन, गोष्ठियाँ, कार्यशालाएँ और सेमिनार आयोजित कर इन कुप्रथाओं के खिलाफ आवाज बुलंद की। मोर्चे निकाले पर उन मुट्ठी भर महिलाओं और चंद परिवारों के जागरुक होने से न तो समाज बदला, न ही कुप्रथा रुकी।

बरसों पहले स्वामी विवेकानंद ने कहा था-आज घर-घर इतनी अधिक विधवाएँ पाई जाने का मूल कारण बाल विवाह ही है। यदि बाल विवाहों की संख्या घट जाए तो विधवाओं की संख्या भी स्वयमेव घट जाएगी। लेकिन क्या बाल विवाह रुका?