मुम्बई की अपनी अलग संस्कृति / संतोष श्रीवास्तव
मुम्बई की अपनी अलग संस्कृति है। मुम्बई में हर शख़्स ज़िन्दादिल है। वह ज़िन्दग़ी को हर हाल में हँसते-हँसते जीता है। चाहे भीड़ भरी लोकल हो, अनवरत होती घनघोर बारिश हो... कभी रूकती नहीं मुम्बई. मानो हर हाल में सब कुछ अपनी पहुँच में हो। दिन भर की कड़ी मेहनत, कार्यालय पहुँचने की आपाधापी के बावजूद मुम्बई कर मौज-मस्ती का कोई मौका नहीं चूकते। वीकेंड में आराम करने के बजाय पिकनिक के लिए निकल पड़ना, समुद्र तट परलहरों से खेलना और चाट पकौड़ी खाना, कोकम के स्वादिष्ट शरबत वाली बर्फ़ कैंडी चूसना जिसे काला-खट्टा कहते हैं... मुम्बई गुलज़ार है इस जज़्बे से।
मुम्बई की अपनी ख़ास भाषा है जिसे फ़िल्मों में खूब इस्तेमाल किया जाता है। यह टपोरी बोली मुम्बई की सड़कों और नुक्कड़ नाकों से लोकल ट्रेन और दफ्तरों तक हर कहीं बोली जाती है। इस झकास रसीली भाषा में वाट भी लगती है, लोचा भी होता है, वांदा भी होता है, परवड़ता भी होता है। शानपट्टी दिखाने पर लफ़ड़ा भी हो जाता है। चिल्लमचिल्ली हो तो आदमी पतली गल्ली पकड़ लेता है। यहाँ सूक्तियों की तर्ज़ पर तुक भरे बोलवचन भी होते हैं, मसलन'हटा सावन की घटा' देश भर से मुम्बई आए लोगों की बोलियों के मेल से मुम्बई संस्कृति की इस भाषा का क्या कहना! "बोले तो, इसमें हिन्दी की मिठास के साथ मराठी का मीठ (नमक) और गुजराती की तीखाश (तीखापन) भी है भिडु, (साथी, दोस्त) क्या!"
जितनी सहनशक्ति मुम्बईकरों में है उतनी शायद ही देश के किसी और शहर के बाशिंदों में हो। खचाखच भरी लोकल में चिपचिपाते पसीने के बीच वे रोज़ घंटों सफ़र करते हैं, हमेशा वक्त से आगे दौड़ने की कोशिश करते हैं, गलाकाट स्पर्धा में खुद को साबित करने के लिए संघर्ष करते हैं, मगर उनके माथे पर कभी सिलवटें नहीं दिखतीं। भीड़ के बीच के समँदर मेंबूँद जैसा व्यक्तित्व होने के बावजूद खुश और संतुष्ट रहने की अदा कोई मुम्बई से सीखे। इसीलिए यहाँ तमाम वजहें होने के बावजूद झगड़ा-फ़साद, मार-काट, तकरार जैसे नज़ारे नहीं के बराबर हैं। हर कोई भीड़ में रहकर भी अकेला है और दूसरों की किसी भी बात को मन में नहीं लेता। मुम्बईकरों का भाईचारा ही मुम्बई को कॉस्मोपॉलिटन कैरेक्टर बनाताहै। देश के हरप्रदेश, क्षेत्र, धर्म, जाति और समुदाय के लोग यहाँ रहते हैं, मगर मुम्बई ने उन्हें एक कर दिया है। वे एक दूसरे के त्यौहार मनाते हैं, रस्में निभाते हैं और मज़बूतरिश्तों में ढल जाते हैं। झोपड़ियों, चॉलों, फ्लैटों, डुप्लेक्स आलीशान बंगले हर जगह यही आदत पनपी है। बिल्डिंगोंमें रहने वालों के बारे में भले ही यह कहा जाता हो कि वे बरसों तक अपने पड़ोसी को नहीं जानते हों, लेकिन ज़रुरत पड़ने पर मदद का हाथ ज़रूर बढ़ाते हैं। किसी को मुश्किल में देखकर बहुत से कदम थम जाते हैं और दूरियाँ मिट जाती हैं। यही भाईचारा तो मुम्बई की जान है। भाईचारे के साथ मुम्बई का अनुशासन एक मिसाल है अन्य शहरों के लिए. बिना अनुशासन के तो मुम्बई जैसे रफ़्ता रही खोदेगी। र जगह योग की मुद्रामें लाइन, न कोई लाइन तोड़ता है न धैर्य खोता है। महिलाएँ भी काउंटर पर जाकर लेडीज़ फर्स्ट का फायदा नहीं उठातीं। सीनियर सिटीजन में तो कितने ही ऐसे हैं जो खुद को बूढ़ा कहलाना पसंद नहीं करते और जवानों की तरह लाइन में लगे रहते हैं।