मुम्बई की आर्थिक प्रगति का सूत्रधार पारसी समुदाय / संतोष श्रीवास्तव
जिस समय अंग्रेज़ों ने मुम्बई में पदार्पण किया था घाटियों के बाहुल्य के साथ ही धनी घरानों की तादाद भी यहाँ बढ़ने लगी थी। पर्शिया से पारसी भी आकर मुम्बई में बसने लगे। वे जोरोस्ट्रियन यानी जरथ्रुस्ट धर्म के थे और पवित्र अग्नि ईरान शाह के उपासक। वैसे दीव में बसे पारसियों को अंग्रेज़ों ने मुम्बई में 'टॉवर ऑफ़ साइलेन्स' बनाने के लिए आमंत्रित किया। मुम्बई आने वाला पहला पारसी युवक दोराबजी नानभॉय था जो 1640 में यहाँ आया था। 1735 में लाड जी नौ शेरवान जी वाडिया को ईस्ट इंडिया कम्पनी ने मुम्बई में शिपयार्ड बनाने के लिये जगह दी। फिर तो ब्रिटिश नेवी ने वाडिया से फौड्रोयांट (1817 में बना विश्व का एकमात्र पोत जो अभी तक कार्यशील है) जैसे पोत बनवाए. यहीं बने पोत 'मिंडन' पर फ्रांसिस स्कॉट ने अमेरिकी राष्ट्रगान लिखा। आज छत्रपति शिवाजी टर्मिनस और चर्चगेट सहित मुम्बई की तकरीबन हर धरोहर इमारत पर पारसी आर्किटेक्ट्स की छाप है। शहर के बहुत से कॉजवे, सड़कें और इमारतें जीजीभॉय और रेडीमनी परिवारों के दान से बनी हैं। आधुनिक मुम्बई के मुख्य निर्माता कावसजी जहाँगीर पारसी हैं और आर्किटेक्ट्स में सबसे मशहूर नाम हफ़ीज़ भी पारसी हैं।
पारसी समुदाय मुम्बई की आर्थिक प्रगति का सूत्रधार रहा है। वैसेपूरे देश में पहली कपड़ा मिल की स्थापना दिनशा मानेक जी पेटिट ने की। टाटा घराना, जमशेदजी जीजीभॉय घराना, ससून घराना, पेटिटघराना, गोदरेज घराना, वाडिया घराना। और भी अन्य घरानों ने समाज सेवा के कार्य और सरोकारों के लिये थैलियाँ ख़ाली करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मुम्बई में समृद्ध समाज की स्थापना करने में सबसे आगे हैं। 'पारसी डेरी' मुम्बई का सबसे पुराना अखबार 'बॉम्बे समाचार' पारसियों की ही देन है।
साफ सुथरी चौड़ी सड़कों और हरे भरे रमणीक बगीचों केलिए दादर की पारसी कॉलोनी मशहूरहै। जिसकी संकल्पना 92 साल पहले युवा इंजीनियर मंचेरजी जोशी ने की थी। तय हुआ था कि कॉलोनी की कोई सीलिंग नहीं होगी और इमारतें दो मंज़िल से ज़्यादा नहीं होंगी। नौरोज बाग़ और खुसरो बाग भी दर्शनीय हैं। मुम्बई में पारसियों की देन है मशहूर तफरीहगाह नरीमन पॉइंट जो खुर्शीद फ्रामजी नरीमन के नाम पर है और टाटा कैंसर हॉस्पिटल जो जमशेदजी टाटा के नाम पर है। यहाँ की 'बॉम्बे पारसी पंचायत' कई तरह की वेलफयेर स्कीम चलाती है जिसमें ग़रीबों का इलाज़, शिक्षा, विवाह आदि के लिए अनुदान दिया जाता है।
इस वक़्त मुम्बई में पारसियों की संख्या 40 हज़ार से ज़्यादा है। मलाबार हिल पर पारसी समाज के पास 54 एकड़ ज़मीन है जिस पर उनका मुख्य मंदिर अग्नि मंदिर बना है। वहीं पर उनकी तीन ऊँची-ऊँची दख़्म यानी शोक मीनारें बनी हैं जहाँ पर अन्तिम संस्कार किया जाता है। जिसे दोखमेनाशिनी कहा जाता है जहाँ गिद्ध, चील, कौवे मृत शरीर का भक्षण करते हैं।
मुम्बई में आरंभ में पारसियों की पहचान बेकरी और थियेटर से हुई. पारसी अपने साथ अद्भुत पाक शैली लेकर आये जिसमें यहाँ की पाकशैली का समावेश कर पारसी डिशेज़ तैयार कीं। इनका मशहूर व्यंजन धानशाक (धनशक) है जो बहुत सारे अनाज और सब्ज़ियों से तैयार होता है। गुजराती प्रभाव के कारण पारसी महिलाओं ने सीधे पल्ले की साड़ी अपनाई और अपनी भाषा में गुजराती भाषा को स्वीकार किया।
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा को बनाने और उसे जर्मनी में फहराने का श्रेय स्वतंत्रता सेनानी मादाम भीकाजी कामा को है जो मुम्बई के पारसी सोराबजी फ्राम जी की बेटी थीं। 18 अगस्त 1907 में जर्मनी के स्टुटगर्ट में अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनमें सभी देशों के झंडे फहराते देख मादाम भीकाजी कामा ने तीन रंगों का तिरंगा बनाकर फहराया। इसमें हरे रंग की पट्टी में आठ कमल भारत के तत्कालीन आठ राज्यों के प्रतीक थे, नारंगी पट्टी पर देवनागरी में वन्दे मातरम लिखा था और सफ़ेद पट्टी पर सूर्य और अर्धचन्द्र बना था।