मुम्बई की शाही घोड़ागाड़ी-विक्टोरिया / संतोष श्रीवास्तव
जब मेट्रो चलने लगी है तो विक्टोरिया अलविदा कह रही है। इस शाही घोड़ा गाड़ी का सफ़र अब ख़तम होने जा रहा है। पेटा और एनिमल एंड बर्ड चेरिटेबल ट्रस्ट बहुत तनाव में था कि इस पर बैन लगाया जाए क्योंकि यह घोड़ों के हित में नहीं है। उसने मुम्बई हाईकोर्ट में इस पर रोक लगाने की अपील की थी। हाईकोर्ट ने याचिका मंजूर कर ली और ढलते सूरज के सुरमई अँधेरे ने जुहू सागर तट पर तिलिस्म-सा रचती विक्टोरिया का रोमेंटिक सफ़र ख़तम हुआ। पर्यटक इस पर मरीन ड्राइव, नरीमन पॉइंट, गेटवे ऑफ़ इंडिया और दादा भाई नौरोजी रोड पर घूमकर शाही मज़ा लेते थे। पर अब...? विक्टोरिया घोड़ा गाड़ी का इतिहास बड़ा रोचक है। इसे आम तौर पर अँग्रेज़ों की सवारी माना जाता है। लेकिन सच तो ये है कि मूलतः यह एक फ्रेंचगाड़ी है। जिसे कोलकाता में अंग्रेज़ों के समय चलने वाली फिटन गाड़ी के आधार पर बनाया गया था। 1869में प्रिंस ऑफ़ वेल्स ने 1844 वाले मॉडल की एक बग्घी आयात की थी। उस वक्त यह धनाढ्य वर्ग में खूब पसंद की जाती थी। इसका आकार नीचाई की ओर था और सामने की ओर यह दो सीटों वाली होती थी। चालक की सीट लोहे के फ्रेम पर टिकी कुछ ऊँची हुआ करती थी। आम तौर पर इसे एक या दो घोड़े खींचते थे। शुरुआत में धनी परिवारों की महिलाएँ इन पर पार्कों में, बाग बगीचों में घूमती थीं। मुम्बई में 1880 में विक्टोरिया का आगमन हुआ। तब गाड़ियाँ बहुत कम थीं और सड़कों पर घोड़ा गाड़ियाँ आराम से दौड़ती थीं। देखते-देखते विक्टोरिया दक्षिण मुम्बई की शान बन गई. उस समय इसके बाक़ायदा स्टैंड बने होते थेजहाँ लाइन से सारी विक्टोरिया अपनी सवारी का इंतज़ार करती थीं। जैसे-जैसे मोटर गाड़ियाँ बढ़ीं, विक्टोरिया का चलन कम होने लगा। फिर भी यह पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र रही... क्या कहने इसकी शान बान के. चार पहिए... आगे के पहिए छोटे... कोचवान की सीट सवारी सीट से ऊँची। कोचवान हमेशा ख़ाकी वर्दी में होता था। फ़िल्मों में भी विक्टोरिया खूब चली। अशोक कुमार की विक्टोरिया नं 203 गुज़रे ज़माने की यादों में दर्ज़ है। अब यह म्यूज़ियम तक ही सीमित रहेगी। 'तांगे वाला' 'मर्द' जैसी कई फ़िल्मों में विक्टोरिया की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। और इस पर सवारी करते हीरो हीरोइन के द्वारा गाये गीत आज भी सदाबहार गीतों में शामिल हैं। माँग के साथ तुम्हारा, ये क्या कर डाला तूने आदि नग़मे भुलाए नहीं भूलते। इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया की शान में उनके नाम से ही चर्चित विक्टोरिया सचमुच शाही बग्घी ही है। कभी आवागमन का मुख्य साधन रही यह बग्घी तीस वर्षों में दरअसल पूरी तरह तफ़रीह और मनोरंजन का साधन बनकर रह गई. पर्यटकों को जिस पर सवारी करते हुए समुद्री तटों से सूर्यास्त और सूर्योदय देखना बहुत पसंद है। ऐतिहासिक इमारतों के चक्कर पर यह बग्घी उन्हें बखूबी लगवा देती है। लेकिन जब से हाईकोर्ट का निर्णय आया है इनकी तादाद कम हो गई है। कभी मरीन ड्राइव, चौपाटी और गेटवे ऑफ़ इंडिया पर लाइन से सजी धजी खड़ी ये शाही बग्घी अब ढूँढनी पड़ती है। किसी ज़माने में जहाँ दो हज़ार विक्टोरिया थीं वहीं 1973 में नए विक्टोरिया के लिए लाइसेंस बंद किये जाते समय इनकी संख्या 800 ही रह गई और अब तो बस 130 ही बची हैं। इतना होने के बावजूद न तो विक्टोरिया के मालिकों ने, न चालकों ने ही उम्मीद छोड़ी है और न शौकीन शहसवारों, पर्यटकों ने।