मेरा दागिस्तान / खंड - 1 / भाग-2 / रसूल हमजातोव

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मेरे घर की अगर उपेक्षा, कर तू जाए राही,

तुझ पर बादल-बिजली टूटें, तुझ पर बादल-बिजली!

मेरे घर से अगर दुखी मन, हो तू जाए राही,

मुझ पर बादल-बिजली टूटें, मुझ पर बादल-बिजली!

द्वार पर आलेख

अगर तुम अतीत पर पिस्‍तौल से गोली चलाओगे,

तो भविष्‍य तुम पर तोप से गोले बरसाएगा।

अबूतालिब

जब आँख खुलती है,

तो बिस्‍तर से ऐसे लपककर मत उठो

मानो तुम्‍हें किसी ने डंक मार दिया हो।

तुमने जो कुछ सपने में देखा है,

पहले उस पर विचार कर लो।


मेरे ख्‍याल में तो यार-दोस्‍तों को कोई दिलचस्‍प किस्‍सा सुनाने या नया उपदेश देने के पहले खुद अल्‍लाह भी सिगरेट जलाता होगा, लंबे-लंबे कश खींचता और कुछ सोचता-विचारता होगा।

हवाई जहाज उड़ने से पहले देर तक शोर मचाता है, फिर सारा हवाई अड्डा लाँघकर उसे उड़ान भरने के मार्ग पर लाया जाता है, इसके बाद वह और भी जोर से शोर मचाता है, फिर खूब तेजी से दौड़ता है और यह सब करने के बाद ही उड़ता है।

हेलीकाप्‍टर दौड़ तो नहीं लगाता, मगर जमीन से ऊपर उठने के पहले वह भी देर तक शोर मचाता है, गड़गड़ाता है और तनावपूर्ण कँपकँपाहट के साथ देर तक खूब काँपता है।

केवल पहाड़ी उकाब ही चट्टान से एकबारगी आसमान में उड़ जाता है और आसानी से अधिकाधिक ऊपर चढ़ता हुआ छोटे-से बिंदु में बदल जाता है।

हर अच्‍छी किताब का ऐसा ही आरंभ होना चाहिए, लंबी-लंबी और ऊबभरी भूमिका के बिना। जाहिर है कि पास से भागे जाते साँड़ को अगर सींगों से पकड़कर हम काबू नहीं कर पाते, तो पूँछ से तो वह काबू में आने से रहा।

लीजिए, गायक ने पंदूर (तीन तारा) हाथ में लिया। मुझे मालूम है कि उसकी आवाज सुरीली है। मगर किसलिए वह गीत शुरू करने के पहले इतनी देर तक यों ही तारों को झनझनाता रहता है? कंसर्ट से पहले वक्‍तव्‍य, नाटक के पहले भाषण और उन ऊबभरी नसीहतों के बारे में भी मैं ऐसा ही कहूँगा, जो ससुर अपने दामाद को मेज पर बुलाकर फौरन जाम भरने के बजाय देता रहता है।

एक बार मुरीद अपनी-अपनी तलवारों की डींग हाँकने लगे। उन्‍होंने यह कहा कि कैसे बढ़िया इस्‍पात की की बनी हुई हैं उनकी तलवारें और कुरान की कैसी बढ़िया-बढ़िया कविताएँ उन पर खुदी हुई हैं। महान शामिल का नायब हाजी-मुराद भी मुरीदों के बीच उपस्थित था। वह बोला -

'चिनारों की ठंडी छाया में तुम किसलिए यह बहस कर रहे हो? कल पौ फटते ही लड़ाई होगी और तब तुम्‍हारी तलवारें खुद ही यह फैसला कर देंगी कि उनमें से कौन-सी बेहतर है।'

फिर भी मेरा यह ख्‍याल है कि अपनी कहानी शुरू करने से पहले अल्‍लाह मजे से सिगरेट के कश लगाता है।

फिर भी हमारे पहाड़ों में यह प्रथा है कि घुड़सवार पहाड़ी घर की दहलीज के पास ही घोड़े पर सवार नहीं होता। उसे घोड़े को गाँव से बाहर ले जाना होता है। शायद इसलिए ऐसा करना जरूरी होता है कि वह एक बार फिर इस बात पर गौर कर ले कि वह यहाँ क्‍या छोड़े जा रहा है औरे रास्‍ते में उसके साथ क्‍या बीतनेवाली है। काम-काज चाहे उसे कितनी ही जल्‍दी करने को मजबूर क्‍यों न करे, वह इतमीनान से सोचते हुए अपने घोड़े को सारे गाँव के छोर तक ले जाता है और तभी रकाबों को छुए बिना ही उछलकर जीन पर जा बैठता है, आगे को झुकता है और धूल के बादल में खो जाता है।

तो इसी तरह अपनी किताब के जीन पर सवार होने के पहले मैं सोचता हुआ धीरे-धीरे चल रहा हूँ। मैं घोड़े की लगाम थामे हुए उसके साथ-साथ जा रहा हूँ। मैं सोच रहा हूँ, मुँह से शब्‍द निकालने में देर कर रहा हूँ।

हकलानेवाले की जबान से ही नहीं, बल्कि ऐसे व्‍यक्ति की जबान से भी शब्‍द रुक-रुककर निकल सकते हैं, जो अधिक उचित, अधिक आवश्‍यक और बुद्धिमत्‍तापूर्ण शब्‍दों की खोज करता है। अपनी बुद्धिमत्‍ता से आश्‍चर्यचकित करने की तो मैं आशा नहीं करता, मगर हकला भी नहीं हूँ। मैं शब्‍द खोज रहा हूँ।

अबूतालिब ने कहा है कि पुस्‍तक की भूमिका तो वही तिनका है, जो अंधविश्‍वासी पहाड़िन पति का भेड़ का खाल का कोट ठीक करते हुए दाँतों तले दबाए रहती है। अगर वह तिनका दाँतों तले न दबाए रखे, तो जैसा कि माना जाता है, भेड़ की खाल का कोट कफन में बदल सकता है।

अबूतालिब ने यह भी कहा है कि मैं उस आदमी के समान हूँ, जो अँधेरे में ऐसे दरवाजे को खोज रहा है, जिसमें दाखिल हुआ जा सके, या उस आदमी के समान हूँ, जिसे दरवाजा तो मिल गया है, मगर जिसे यह विश्‍वास नहीं कि वह उसमें दाखिल हो सकता है या उसे उसमें दाखिल होना भी चाहिए या नहीं। वह दरवाजे पर दस्‍तक देता है - ठक, ठक।

'ए घरवालो, अगर तुम मांस उबालना चाहते हो, तो तुम्‍हारे उठने का वक्‍त हो गया!'

'ए घरवालो, अगर तुम्‍हें जई पीसनी है, तो मजे से सोए रहो, जल्‍दी करने की जरूरत नहीं है।'

'ऐ घरवालो, अगर तुम बूजा (एक तरह की बियर) पीने का इरादा रखते हो, तो पड़ोसी को बुलाना मत भूल जाना!'

ठक-ठक, ठक-ठक!

'तो क्‍या मैं अंदर आ जाऊँ, या मेरे बिना ही तुम्‍हारा काम चल जाएगा?'

बोलना सीखने के लिए आदमी को दो साल की जरूरत होती है, मगर यह सीखने के लिए कि जबान को बस में कैसे रखा जाए, साठ सालों की आवश्‍यकता होती है।

मैं न तो दो साल का हूँ और न साठ साल का। मैं दोनों के बीच में हूँ। फिर भी मैं शायद दूसरे बिंदु के निकट हूँ, क्‍योंकि मुझे अनकहे शब्‍द कहे जा चुके सभी शब्‍दों से अधिक प्‍यारे हैं।

वह पुस्‍तक जो मैंने अभी तक नहीं लिखी, लिखी जा जुकी सभी पुस्‍तकों से अधिक प्रिय है। वह सबसे ज्‍यादा प्‍यारी, वांछित और कठिन है।

नई किताब - यह तो वह दर्रा है, जिसमें मैं कभी नहीं गया, मगर जो मेरे सामने खुल चुका है, मुझे अपनी धुँधली दूरी की तरफ खींचता है। नई पुस्‍तक - यह तो वह घोड़ा है, जिस पर मैंने अब तक कभी सवारी नहीं की, वह खंजर है, जिसे मैंने मन से नहीं निकाला।

पहाड़ी लोगों में कहा जाता है, 'जरूरत के बिना खंजर को बाहर नहीं निकालो। अगर निकाल लिया है, तो मारो! ऐसे मारो कि घुड़सवार और घोड़ा, दोनों ही फौरन दूसरी दुनिया में पहुँच जाएँ।'

तुम्‍हारा कहना ठीक है, पहाड़ी लोगो!

फिर भी खंजर निकालने से पहले आपको इस बात का यकीन होना चाहिए कि उसकी धार खूब तेज है।

मेरी पुस्‍तक, बहुत सालों तक तुम मेरी आत्‍मा में जीती रही हो! तुम उस औरत, दिल की उस रानी के समान हो, जिसे उसका प्रेमी दूर से देखा करता है, जिसके सपने देखता है, मगर जिसे छूने का उसे सौभाग्‍य नहीं प्राप्‍त हुआ। कभी-कभी ऐसा भी हुआ है कि वह बिल्‍कुल नजदीक ही खड़ी रही है - बस, हाथ बढ़ाने की ही जरूरत थी, मगर मेरी हिम्‍मत न हुई, मैं झेंप गया, मेरे मुँह पर लाली दौड़ गई और मैं दूर हट गया।

पर अब यह सब खत्‍म हो चुका है। मैंने साहसपूर्वक उसके पास जाने और उसका हाथ अपने हाथ में लेने का निर्णय कर लिया है। झेंपू प्रेमी की जगह मैं साहसी और अनुभवी मर्द बनना चाहता हूँ। मैं घोड़े पर सवार होता हूँ, तीन बार चाबुक सटकारता हूँ - जो भी होना हो, सो हो!

फिर भी मैं अपने कड़वे देसी तंबाकू को कागज पर डालता हूँ, इतमीनान से सिगरेट लपेटता हूँ। अगर सिगरेट लपेटने में ही इतना मजा है, तो कश लगाने में कितना मजा होगा!

मेरी पुस्‍तक, तुम्‍हें शुरू करने से पहले मैं यह बताना चाहता हूँ कि कैसे तुमने मेरी आत्‍मा में रूप धारण किया। कैसे मैंने तुम्‍हारा नाम चुना। किसलिए मैं तुम्‍हें लिखना चाहता हूँ। जीवन में मेरे क्‍या उद्देश्‍य-लक्ष्‍य हैं।

मेहमान को मैं रसोईघर में जाने देता हूँ, जहाँ अभी भेड़ का धड़ साफ किया जा रहा है और अभी सीख-कबाब की नहीं, लहू और गर्म मांस की गंध आ रही है।

दोस्‍तों को मैं अपने पावन कार्य-कक्ष में ले जाता हूँ, जहाँ मेरी पांडुलिपियाँ रखी हैं, और मैं उन्‍हें उनको पढ़ने की इजाजत देता हूँ।

मेरे पिता जी चाहे यह कहा करते थे कि जो कोई पराई पांडुलिपियाँ पढ़ता है, वह दूसरों की जेब में हाथ डालनेवाले के समान है।

पिता जी यह भी कहा करते थे कि भूमिका थियेटर में तुम्‍हारे सामने बैठे चौड़े-चकले कंधों और साथ ही बड़ी टोपीवाले आदमी की याद दिलाती है। अगर वह टिककर बैठा रहे, दाएँ-बाएँ न हिले, तो भी गनीमत समझिए। दर्शक के नाते ऐसे आदमी से मुझे बड़ी असुविधा और आखिर झल्‍लाहट होने लगती है।

नोटबुक से। मुझ मास्‍को या रूस के दूसरे शहरों में अक्‍सर कवि सम्‍मेलनों में हिस्‍सा लेना पड़ता है। हॉल में बैठे लोग अवार भाषा नहीं जानते होते। शुरू में अशुद्ध उच्‍चारण के साथ में जैसे-तैसे रूसी भाषा में अपने बार में कुछ बताता हूँ। इसके बाद मेरे दोस्‍त, रूसी कवि, मेरी कविताओं का अनुवाद सुनाते हैं। मगर उनके शुरू करने के पहले आमतौर पर मुझसे मेरी मातृभाषा में एक कविता सुनाने का अनुरोध किया जाता है, 'हम अवार भाषा और कविता के संगीत का रस लेना चाहते हैं।' मैं सुनाता हूँ, मगर मेरा कविता-पाठ गाना शुरू होने के पहले पंदूर की झनझनाहट के सिवा और कुछ नहीं होता।

तो क्‍या मेरी किताब की भूमिका भी ऐसी ही नहीं है ?

नोटबुक से । मैं जब विद्यार्थी था, तो जाड़े का ओवरकोट खरीदने के लिए पिता जी ने मुझे पैसे भेजे। पैसे तो मैंने खर्च कर डाले और ओवरकोट नहीं खरीदा। जाड़े की छुट्टियों में वही हल्‍का-सा ओवरकोट पहने हुए, जिसे गर्मियों में पहनकर मैं मास्‍को पढ़ने आया था, दागिस्‍तान जाना पड़ा।

घर पर पिता जी के सामने मैं अपनी सफाई पेश करने लगा, तुरत-फुरत एक से एक बेतुका और बेसिर-पैर का क्रिस्‍सा गढ़कर सुनाने लगा। जब मैं अपने ही ताने-बाने में पूरी तरह उलझ गया, तो पिता जी ने मुझे टोकते हुए कहा -

'रुको, रसूल। मैं तुमसे दो सवाल पूछना चाहता हूँ।'

'पूछिए।'

'ओवरकोट खरीदा?'

'नहीं।'

'पैसे खर्च कर दिए!'

'हाँ।'

'बस, अब सारी बात साफ हो गई। अगर दो लफ्जों में ही मामले का निचोड़ निकल सकता है, तो किसलिए तुमने इतने बेकार शब्‍द कहे, इतनी लंबी-चौड़ी भूमिका बाँधी?'

मेरे पिता जी ने मुझे ऐसी शिक्षा दी थी।

फिर भी बच्‍चा पैदा होते ही नहीं बोलने लगता। शब्‍द कहने से पहले वह अपनी तुतली भाषा में कुछ ऐसा बोलता है, जो किसी के पल्‍ले नहीं पड़ता। ऐसा भी होता है कि जब वह दर्द से रोता-चिल्‍लाता है, तो माँ के लिए भी यह जानना मुश्किल हो जाता है कि उसे किस जगह पर दर्द हो रहा है।

क्‍या कवि की आत्‍मा बच्‍चे की आत्‍मा जैसी नहीं होती ?

पिता जी कहा करते थे कि लोग जब पहाड़ों से भेड़ों के रेवड़ के आने का इंतजार करते हैं, तो सबसे पहले उन्‍हें हमेशा आगे-आगे आनेवाले बकरे के सींग दिखाई देते हैं, फिर पूरा बकरा नजर आता है और इसके बाद ही वे रेवड़ को देख पाते हैं।

लोग जब शादी के या मातमी जुलूस की राह देखते हैं, तो पहले तो उन्‍हें हरकारा दिखाई देता है।

गाँव के लोग जब हरकारे के इंतजार में होते हैं, तो पहले तो उन्‍हें धूल का बादल, फिर घोड़ा और उसके बाद ही घुड़सवार नजर आता है।

लोग जब शिकारी के लौटने की प्रतीक्षा में होते हैं, तो पहले तो उन्‍हें उसका कुत्‍ता ही दिखाई देता है।