मेरा दागिस्तान / खंड - 1 / भाग-3 / रसूल हमजातोव

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

छोटे बच्‍चे भी बड़े सपने देखते हैं।

(पालने पर आलेख)

अस्‍त्र, जिसकी केवल एक बार ही आवश्‍यकता पड़े, जीवन भर अपने साथ रखना पड़ता है। कविताएँ, जिन्‍हें जीवन भर दोहराया जाता है, एक बार ही लिखी जाती हैं।


वसंत के दिनों में वसंत का एक पक्षी किसी गाँव में उड़ता हुआ आया। लगा सोचने कि बैठकर आराम करे। एक पहाड़ी घर की चौड़ी, समतल और साफ छत पर नजर पड़ी। छत पर उसे समतल करने के लिए पत्‍थर का रोलर है। पक्षी आसमान से नीचे उतरा और रोलर पर आराम करने बैठ गया। चुस्‍त पहाड़िन पक्षी को पकड़कर घर में ले गई। पक्षी ने देखा कि घर के सभी लोग उसके साथ अच्‍छे ढंग से पेश आते हैं और इसलिए वहीं रहने लगा। उसने धुएँ से काले हुए पुराने शहतीर पर ठोंके गए नाल में अपना घोंसला बना लिया।

क्‍या मेरी किताब के बारे में भी यही बात नहीं है?

कितनी ही बार मैंने अपने काव्‍य-गगन से नीचे, गद्य के समतल मैदान पर यह ढूँढ़ते हुए नजर डाली कि कहाँ बैठकर आराम करूँ...

नहीं, इस सिलसिले में उस हवाई जहाज से तुलना करना ज्‍यादा ठीक होगा, जिसे हवाई अड्डे पर उतरना है। लीजिए, मैं चक्‍कर काटता हूँ ताकि नीचे उतरने लगूँ। मगर बुरे मौसम के कारण हवाई अड्डेवाले मुझे ऐसा करने की इजाजत नहीं देते। बहुत बड़ा चक्‍कर काटने के बजाय मैं फिर से सीधी उड़ान भरता हुआ आगे उड़ने लगता हूँ और वांछित पृथ्‍वी फिर नीचे ही रह जाती है... अनेक बार ऐसा ही हो चुका है।

तो मैंने सोचा, इसका तो यही मतलब निकलता है कि कंकरीट का मजबूत आधार मेरी किस्‍मत में नहीं लिखा है। इसका तो यही अर्थ है कि मेरे पैरों को धरती पर अविराम चलते ही जाना होगा, मेरी आँखों को निरंतर पृथ्‍वी की नई जगहों को खोजते रहना होगा, मेरे हृदय को लगातार नए गीत रचने होंगे।

जिस तरह कोई हलवाहा आसमान में तैरते दूधिया बादल या तिकोन बनाकर उड़े जाते सारसों को देखते हुए अपनी सुध-बुध भूल जाता है, मगर कुछ ही क्षण बाद इस जादू से मुक्‍त हो अधिक उत्‍साह के साथ हल चलाने लगता है, उसी तरह मैं अधूरी छोड़ी गई अपनी लंबी कविता की ओर लौटा हूँ।

हाँ, मेरी कविता, मैं अंतरिक्ष से उसकी चाहे कितनी भी तुलना क्‍यों न करूँ, मेरे लिए वह मेरी ठोस जमीन थी, मेरा खेत थी, मेरा गाढ़ा पसीना थी। अब तक गद्य को मैंने बिल्‍कुल ही नहीं लिखा था।

तो एक दिन मुझे एक पैकेट मिला। पैकेट में उस पत्रिका के संपादक का पत्र था, जिसका मैं बहुत आदर करता हूँ। वैसे, आदर तो मैं संपादक का भी बहुत करता हूँ। हाँ, संपादक ने भी अपना पत्र 'आदरणीय रसूल' शब्‍दों के साथ शुरू किया था। कुल मिलाकर, गहरी पारस्‍परिक आदर भावना सामने आई।

पत्र को जब मैंने खोला, तो वह मुझे भैंस की उस खाल का-सा प्रतीत हुआ, जिसे पहाड़ी लोग अच्‍छी तरह सुखाने के लिए अपने घर की सपाट छत पर फैला देते हैं। अच्‍छी तरह सूख चुकी भैंस की खाल को घर में ले जाने के लिए जब तह लगाई जाती है, तो वह जितनी आवाज करती है, इसी तरह उस पत्र को पढ़ते समय उसके कागजों ने भी कुछ कम सरसराहट नहीं की। सिर्फ खाल की तेज नाक में खुजली-सी पैदा करनेवाली गंध नहीं थी। पत्र से किसी भी तरह की गंध नहीं आ रही थी।

खैर, तो संपादक ने यह लिखा था, 'हमारे संपादकमंडल ने अपनी पत्रिका के अगले कुछ अंकों में दागिस्‍तान की उपलब्धियों, शुभ कार्यों और सामान्‍य श्रम दिवसों के बारे में सामग्री छापने का निर्णय किया है। यह आम मेहनतकशों, उनके साहसपूर्ण कार्यों, उनकी आशाओं-आकांक्षाओं की कहानी होनी चाहिए। यह कहानी होनी चाहिए तुम्‍हारे पहाड़ी प्रदेश के उज्‍ज्‍वल 'भविष्‍य' उसकी सदियों पुरानी परंपराओं की, मगर मुख्‍यतः यह कहानी होनी चाहिए उसके भव्‍य 'वर्तमान' की। हमने तय किया है कि ऐसी कहानी तुम ही सबसे बेहतर लिख सकते हो। इसके लिए विधा तुम अपनी पसंद के अनुसार चुन सकते हो - कहानी, लेख, रेखाचित्र, कुछ लघु शब्‍द चित्र - किसी भी रूप में लिख सकते हो। सामग्री 9-10 टाइप पृष्‍ठों की ही और 20-25 दिनों में पहुँच जाए। हमें तुम्‍हारे सहयोग की पूरी आशा है और तुम्‍हें पहले से ही धन्‍यवाद देते हैं...'

कभी वह जमाना था कि लड़की की शादी करते हुए उसकी सहमति नहीं ली जाती थी। बस, शादी कर दी जाती थी। या जैसे कि आजकल कहा जाता है, शादी का तथ्‍य उसके सामने रख दिया जाता था। मगर उन वक्‍तों में भी हमारे पहाड़ों में बेटे की रजामंदी के बिना कोई उसकी शादी करने की हिम्‍मत नहीं कर सकता था। सुनने में आया है कि किसी हीदातलीवासी ने एक बार ऐसा किया था। मगर मेरा सम्‍मानित संपादक क्‍या हीदातली गाँव का रहनेवाला है? मेरे लिए उसने ही सब कुछ तय कर लिया... मगर क्‍या मैंने नौ पृष्‍ठों और बाईस दिन की अवधि में अपने दागिस्‍तान के बारे में बताने का निर्णय किया है?

अपने लिए अपमानजनक इस पत्र को मैंने झल्‍लाहट में कहीं दूर फेंक दिया। मगर कुछ दिन बाद मेरे टेलीफोन की घंटी ऐसे लगातार बजने लगी, मानो वह टेलीफोन की घंटी न होकर अंडा देनेवाली मुर्गी हो। जाहिर है कि पत्रिका के संपादकीय कार्यालय का ही यह टेलीफोन था।

'सलाम, रसूल! हमारा खत मिला?'

'हाँ।'

'सामग्री का क्‍या हुआ?'

'सामग्री... मैं काम-काज में उलझा रहा... फुरसत नहीं मिली।'

'यह तुम क्‍या कह रहे हो, रसूल! भला ऐसा कैसे हो सकता है! हमारी पत्रिका की तो लगभग दस लाख प्रतियाँ छपती हैं। विदेशों में भी उसके पाठक हैं। पर यदि तुम सचमुच ही बहुत व्‍यस्‍त हो, तो हम कोई आदमी तुम्‍हारे पास भेज देते हैं। तुम अपने कुछ विचार और तफसीलें उसे बता देना, बाकी वह सब कुछ खुद ही कर लेगा। तुम उसे पढ़कर, ठीक-ठाक करके उस पर अपने हस्‍ताक्षर कर देना। हमारे लिए तो मुख्‍य चीज तुम्‍हारा नाम है।'

'मेहमान को देखकर जो नाखुश हो, उसकी सारी हड्डियाँ टूट जाएँ। अगर कोई मेहमान के आने पर रोनी सूरत बनाए या नाक-भौंह चढ़ाए, तो उसके घर में न तो बड़े ही रहें, जो अक्‍लमंद नसीहत दे सकें और न छोटे ही रहें, जो उन नसीहतों को सुन सकें! ऐसा है मेहमानों के बारे में हम पहाड़ी लोगों का दृष्टिकोण। मगर खुदा के लिए कोई मददगार नहीं भेजिएगा। अपना साज मैं उसके बिना ही सुर में कर लूँगा। अपनी गागर का हत्‍था भी मैं खुद ही तैयार कर लूँगा। अगर पीठ पर खुजली होगी तो खुद मुझसे बेहतर तो कोई उसे नहीं खुजा सकेगा।'

बस, यहाँ हमारी बातचीत का अंत हो गया। वा सलाम, वा कलाम! मैंने एक महीने की छुट्टी ली और अपने जन्‍म-गाँव त्‍सादा चला गया।

त्‍सादा... सत्‍तर गर्म चूल्‍हे। निर्मल और ऊँचे आकाश में सत्‍तर चिमनियों से नीला धुआँ उठा करता है। काली धरती पर सफेद पहाड़ी घर हैं। गाँव, सफेद घरों के सामने हरे, समतल मैदान हैं। गाँव के पीछे चट्टानें ऊपर को उठती चली गई हैं। हमारे गाँव के ऊपर भूरी चट्टानों का ऐसा जमघट है मानो बालक नीचे, शादीवाले अहाते में झाँकने के लिए समतल छत पर इकट्ठे हुए हों।

त्‍सादा गाँव में आने पर मुझे पिता जी का वह खत याद हो आया, जो पहली बार मास्‍को देखने पर उन्‍होंने हमें लिखा था। यह समझ पाना मुश्किल था कि पिता जी ने अपने खत में किस जगह पर मजाक किया है और कहाँ संजीदगी से बात लिखी है। मास्‍को देखकर उन्‍हें बड़ी हैरानी हुई थी -

'ऐसा लगता है कि यहाँ मास्‍को में खाना पकाने के लिए आग नहीं जलाई जाती, क्‍योंकि मुझे यहाँ अपने घरों की दीवारों पर उपले पाथनेवाली औरतें नजर नहीं आतीं, घरों की छतों के ऊपर अबूतालिब की बड़ी टोपी जैसा धुआँ नहीं दिखाई देता। छत को समतल करने के लिए रोलर भी नजर नहीं आते। मास्‍कोवासी अपनी छतों पर घास सुखाते हों, ऐसा भी नहीं लगता। पर यदि घास नहीं सुखाते, तो अपनी गायों को क्‍या खिलाते हैं? सूखी टहनियों या घास का गट्ठा उठाए एक भी औरत कहीं नजर नहीं आई। न तो कभी जुरने की झनक और न खंजड़ी की ढमक ही सुनाई दी है। ऐसा लग सकता है मानो जवान लोग यहाँ शादियाँ ही नहीं करते और ब्‍याह का धूम-धड़ाका ही नहीं होता। इस अजीब शहर की गलियों-सड़कों पर मैंने कितने भी चक्‍कर क्‍यों न लगाए, कभी एक बार भी कोई भेड़ नजर नहीं आई। तो सवाल पैदा होता है कि जब कोई मेहमान आता है, तो मास्‍कोवाले क्‍या जिबह करते हैं! अगर भेड़ को जिबह करके नहीं, तो यार-दोस्‍त के आने पर वे कैसे उसकी खातिरदारी करते हैं! नहीं, ऐसी जिंदगी मुझे नहीं चाहिए। मैं तो अपने त्‍सादा गाँव में ही रहना चाहता हूँ, जहाँ बीवी से यह कहकर कि वह कुछ ज्‍यादा लहसुन डालकर खीनकाल बनाए, उन्‍हें जी भरकर खाया जा सकता है...'

मेरे पिता जी ने अपने जन्‍म-गाँव के मुकाबले में मास्‍को में और भी बहुत-सी खामियाँ खोज निकालीं। जाहिर है कि जब उन्‍होंने इस बात की हैरानी जाहिर की थी कि मास्‍को के घरों पर उपले नहीं पाथे हुए थे, तो मजाक किया था, मगर जब बड़े शहर के मुकाबले में अपने जन्‍म गाँव को तरजीह दी थी, तो उसमें मजाक नहीं था। वे अपने त्‍सादा को प्‍यार करते थे और उसके मुकाबले में दुनिया की सभी राजधानियों को ठुकरा देते।

प्‍यारे त्‍सादा! तो लो उस बहुत बड़ी दुनिया से मैं तुम्‍हारे पास आ गया हूँ, जिसमें मेरे पिता जी को ही इतनी ज्‍यादा खामियाँ नजर आई थीं। मैं घूम आया हूँ इस दुनिया में और बहुत-से अजूबे देखे हैं मैंने। इतनी ज्‍यादा खूबसूरती देखने को मिली कि आँखें यही तय न कर पाईं कि वे कहाँ टिकें। एक सुंदर मंदिर-मसजिद से मेरी नजर दूसरे मंदिर-मसजिद की तरफ भागती रही, एक खूबसूरत चेहरे से दूसरे खूबसूरत चेहरे की तरफ खिंचती रही। मगर मैं जानता था कि जो कुछ इस वक्‍त देख रहा हूँ, वह चाहे कितना ही खूबसूरत क्‍यों न हो, कल मुझे उससे भी ज्‍यादा खूबसूरती देखने को मिलेगी... दुनिया का तो कोई ओर-छोर ही न ठहरा।

भारत के पगोडा, मिस्र के पिरामिड, इटली के बाजीलिक मुझे माफ करें, अमरीका के राजमार्ग, पेरिस के बुलवार, इंग्‍लैंड के पार्क और स्विटजरलैंड के पहाड़ मुझे क्षमा करें, पोलैंड, जापान और रोम की औरतों से मैं माफी चाहता हूँ - मैं तुम सब पर मुग्‍ध हुआ, मगर मेरा दिल चैन से धड़कता रहा। अगर उसकी धड़कन बढ़ी भी, तो इतनी नहीं कि गला सूख जाता और सिर चकराने लगता।

पर अब जब मैंने चट्टान के दामन में बसे हुए इन सत्‍तर घरों को फिर से देखा है, तो मेरा दिल ऐसे क्‍यों उछल रहा है कि पसलियों में दर्द होने लगा है, आँखों के सामने अँधेरा छा गया है और सिर ऐसे चकराने लगा है मानो मैं बीमार या नशे में धुत्‍त होऊँ!

क्‍या दागिस्‍तान का छोटा-सा गाँव वेनिस, काहिरा या कलकत्‍ते से बढ़कर है? क्‍या लकड़ियों का गट्ठा उठाए पगडंडी पर जानेवाली अवार औरत स्‍केंडिनोविया की ऊँचे कद और सुनहरे बालोंवाली सुंदरी से बढ़कर है?

त्‍यादा! मैं तुम्‍हारे खेतों में घूम रहा हूँ और सुबह की ठंडी शबनम मेरे थके हुए पैरों को धो रही है। पहाड़ी नदियों से भी नहीं चश्‍मों के पानी से मैं अपना मुँह धोता हूँ। कहा जाता है कि अगर पीना ही है, तो चश्‍मे से पियो। यह भी कहा जाता है - मेरे पिता जी ऐसा कहा करते थे - कि मर्द केवल दो ही हालतों में घुटनों के बल खड़ा हो सकता है - चश्‍मे से पानी पीने और फूल तोड़ने के लिए। त्‍सादा, तुम मेरे लिए चश्‍मे के समान हो। मैं घुटनों के बल होकर तुमसे अपनी प्‍यास बुझाता हूँ।

मैं एक पत्‍थर देखता हूँ और उस पर मुझे मानो पारदर्शी-सी एक छाया नजर आती है। यह मैं खुद ही हूँ, जैसा कि तीस साल पहले था। पत्‍थर पर बैठा हूँ और भेड़ें चरा रहा हूँ। मेरे सिर पर झबरीली टोपी है, हाथ में लंबा डंडा और पैरों पर धूल है।

पगडंडी देखता हूँ और उस पर भी मानो पारदर्शी छाया नजर आती है। यह भी मैं ही हूँ, जैसा कि तीस साल पहले था। किसी कारण पड़ोस के गाँव में गया था। शायद पिता जी ने मुझे भेजा था।

हर कदम पर खुद अपने से ही, अपने बचपन, अपने वसंतों, अपनी बरसातों, फूलों, पतझर में झड़े हुए पत्‍तों से मेरी मुलाकात होती है।

मैं कपड़े उतारकर चमकते हुए जल-प्रपात के नीचे खड़ा हो जाता हूँ। चट्टान के आठ उभरे भागों पर से उछलता हुआ वह टूट जाता है, फिर से अपने जलकणों को एकत्रित करता है और आखिर मेरे कंधों, हाथों, और सिर से टकराकर बिखर जाता है। पेरिस के 'शाही महल' होटल का नहाने का फव्‍वारा मेरे ठंडे जल-प्रपात की तुलना में प्‍लास्टिक का तुच्‍छ खिलौना-सा लगता है।

पहाड़ी नदी की बगलवाली धारा से बहकर आनेवाला पानी गर्म पत्‍थरों के बीच दिन भर में गर्म हो जाता है। लंदन के 'मेट्रोपोल' होटल का नीला-सा गुसलखाना मेरे पहाड़ी गुसलखाने के मुकाबले में मामूली तश्‍तरी-सी प्रतीत होता है।

हाँ, मुझे बड़े शहरों में पैदल घूमना पसंद है। मगर पाँच-छह लंबी सैरों के बाद शहर जाना-पहचाना-सा महसूस होने लगता है और वहाँ लगातार घूमते रहने की इच्‍छा जाती रहती है।

मगर अपने गाँव की छोटी-सी सड़क पर मैं हजारवीं बार जा रहा हूँ, लेकिन मन नहीं भरा, उस पर जाने की इच्‍छा का अंत नहीं हुआ।

इस बार यहाँ आने पर मैं हर घर में गया। हर चूल्‍हे के पास, जहाँ आग जलती है, जहाँ अंगारे दहक रहे हैं या जहाँ कभी की राख ठंडी हो चुकी है, मैंने वक्‍त की ठंडी, सफेद राख से ढका हुआ अपना सिर झुकाया।

मैं उन पालनों के पास खड़ा रहा, जहाँ भावी पहाड़ी-पहाड़िनें हाथ-पाँव पटकते थे या जो खाली थे, मगर उनमें अभी गर्मी बाकी थी या जिनके कंबल और तकिये कभी के ठंडे हो चुके थे।

हर पालने के पास मुझे ऐसा लगा मानो मैं खुद ही उसमें लेटा हुआ हूँ और पहाड़ी पगडंडियाँ, रूस के चौड़े रास्‍ते और दूर-दराज के देशों के राजमार्ग और हवाई अड्डे, ये सब अभी आगे चलकर मेरे सामने आनेवाले हैं।

मैंने बच्‍चों के लिए लोरियाँ गाईं और वे मेरे सीधे-सरल गीत सुनकर मीठी नींद सो भी गए।

त्‍सादा के कब्रिस्‍तान में भी मैं घूमता रहा, जहाँ पुरानी कब्रों के करीब ही, जिन पर ऊँची-ऊँची घास उगी हुई थी, ऐसी नई कब्रें भी थी, जिनसे ताजा मिट्टी की गंध आ रही थी।

मातमपुरसी के लिए मैं घरों में जाकर चुपचाप बैठा रहा, शादियों में खूब खुशी से नाचा। बहुत-से ऐसे शब्‍द और किस्‍से सुने, जो अब तक नहीं सुन पाया था। बहुत कुछ ऐसा, जो मैं कभी जानता था और भूल गया था, अब मुझे फिर से याद हो आया, स्‍मृति की अतल और अँधेरी गहराइयों में से उभरकर ऊपर आ गया।

नया मैंने अपनी आँखों से देखा और पुराने की चर्चा सुनकर उसे याद किया और मेरे विचारों ने बड़े तकले के गिर्द लिपटे हुए रंग-बिरंगे धागों का-सा रूप लिया। मैंने मन-ही-मन उस बहुरंगे कालीन की कल्‍पना की, जो इन धागों से बुना जा सकता है।

कल तक लड़का था, नीड़ों से, पक्षी पकड़ा करता था यारों को मैं संग लेकर, नीली-नीली आँखोंवाला, प्‍यार उमड़कर जब आया क्षण में बालिग हुआ मगर। कल तक मान रहा था खुद को, वयस्‍क, बहुत समझा, सुलझा मैं तो मानो आजीवन, आया प्‍यार, और जब आकर, वह धीरे-से मुस्‍काया पुनः हुआ लड़के-सा मन।

हाँ, मेरी लंबी प्रणय-कविता अधूरी ही है। प्रेमी और प्र‍ेमिका। प्रेमी-यह तो मैं हूँ। मगर मेरी मुख्‍य नायिका है - मेरा प्‍यार। इस कविता को पूरा करना चाहिए। मगर मुझे ऐसा लगता है मानो मेरे नाम अभी-अभी एक चिंताजनक तार आ गया है और इसलिए मुझे फौरन हवाई अड्डे की तरफ भागना चाहिए।

या ऐसा भी होता है कि पहाड़िन जब तड़के ही चूल्‍हे में आग जलाती है, तो पिछले दिन का बचा हुआ खाना गर्म करना चाहती है, जो परिवार के सभी लोगों के लिए भरपेट खाने को काफी होगा। मगर अचानक ही दहलीज पर मेहमान आ खड़ा होता है। अब पिछले दिन के खाने का पतीला आग पर से उतारना और ताजा खाना तैयार करना जरूरी हो जाता है।

या ऐसा भी होता है कि शादी के वक्‍त युवाजन अपने साथी और हमउम्र दूल्‍हे के करीब बैठ जाते हैं, मगर अचानक उन्‍हें उठना और स्‍थान खाली करना पड़ता है, क्‍योंकि कमरे में उनसे बड़ी उम्र के लोग आ जाते हैं।

या ऐसा भी होता है कि बैठक में बुजुर्ग जमा होते हैं और नजदीक ही बच्‍चे भी खेलते होते हैं। अचानक बच्‍चों को बैठक से बाहर भेज दिया जाता है, क्‍योंकि बुजुर्गों को आपस में कोई जरूरी सलाह-मशविरा करना होता है।

कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है कि मैं शिकारी हूँ, मछुआ हूँ, घुड़सवार हूँ : मैं ख्‍यालों का शिकार करता हूँ, उन्‍हें फाँसता हूँ, उन पर जीन कसता हूँ और उन्‍हें एड़ लगाता हूँ। मगर कभी-कभी मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मैं हिरन हूँ, सामन मछली हूँ, घोड़ा हूँ और विचार, चिंतन, भावनाएँ मुझे खोजती हैं, मुझे फाँसती है, मुझ पर जीन कसती हैं और मेरा संचालन करती हैं।

हाँ, भावनाएँ और विचार ऐसे ही आते हैं जैसे पहाड़ों में बिन बुलाए और सूचना दिए बिना मेहमान आता है। मेहमान की तरह न तो उनसे छिपा जा सकता है, न बचकर कहीं भागना ही मुमकिन है।

हमारे यहाँ पहाड़ों में छोटे या बड़े, अधिक या कम महत्‍व रखनेवाले मेहमान नहीं होते। सबसे छोटा मेहमान हमारे लिए महत्‍व रखता है, क्‍योंकि वह मेहमान है। सबसे छोटा मेहमान सबसे बुजुर्ग गृह-स्‍वामी से भी अधिक सम्‍मानित हो जाता है, यह पूछे बिना ही कि वह किस इलाके का रहनेवाला है, हम दहलीज पर ही मेहमान का स्‍वागत करते हैं, उसे आग के करीब आगेवाली जगह पर ले जाते हैं और गद्दी पर बैठाते हैं।

पहाड़ों में मेहमान हमेशा अप्रत्‍याशित ही आता है। मगर वह कभी भी अप्रत्‍याशित नहीं होता, उसके आने से हमें कभी हैरानी नहीं होती, क्‍योंकि हमें हमेशा, हर दिन और हर घड़ी उसका इंतजार रहता है।

इस किताब का ख्‍याल भी पहाड़ों के मेहमान की तरह ही मेरे दिमाग में आया।

या ऐसा भी होता है कि काहिली, करने-धरने को कुछ न होने के कारण कोई आदमी यह जाँचने के लिए कि पंदूर सुर में है या नहीं, उसे दीवार से उतारकर झनझनाने लगता है। मगर अचानक, बिल्‍कुल अप्रत्‍याशित ही कोई गीत दिमाग में आने लगता है, झंकार धुन का रूप लेने लगती है, सुर में बँधी ध्‍वनियाँ फैलने लगती हैं और वह आदमी गाने में ऐसे डूब जाता है कि उसे पता भी नहीं चलता कि कब रात बीत गई और कब भोर हो गया।

या ऐसा भी होता है कि नौजवान किसी छोटे-मोटे काम से पड़ोस के गाँव में जाता है और लौटता है काठी पर पीछे बैठी हुई बीवी के साथ।

प्‍यारे संपादक! आपने अपने पत्र में जो अनुरोध किया था, मैं उसे पूरा कर रहा हूँ। जल्‍द ही मैं दागिस्‍तान के बारे में किताब लिखना शुरू कर दूँगा। मगर सिर्फ इस बात की माफी चाहता हूँ कि आपने इसके लिए जितना वक्‍त दिया है, शायद उतने में इसे पूरा नहीं कर पाऊँगा। बहुत ही ज्‍यादा पगडंडियाँ मुझे लाँघनी होंगी और हमारे पहाड़ों में वे बहुत ही सँकरी और ढालू हैं।

मेरे पहाड़ बिना पालिश किए हीरों की तरह रहस्‍यपूर्ण ढंग से दूरी पर चमकते हैं। मेरे तेज घोड़े के सामने बहुत विस्‍तार है। वह आपके बताए हुए तंग दर्रे में नहीं दौड़ना चाहता।

अपने दागिस्‍तान को मैं आपके नौ-दस पृष्‍ठों में नहीं समेट सकता। हाँ, 'उपलब्धियों, शुभ कार्यों, सामान्‍य श्रम दिवसों', 'आम मेहनतकशों, उनके साहसपूर्ण कार्यों, उनकी आशाओं-आकांक्षाओं', 'पहाड़ी प्रदेश के उज्‍ज्‍वल 'भविष्‍य' और उसकी सदियों पुरानी परंपराओं, मगर मुख्‍यतः उसके भव्‍य 'वर्तमान' के बारे में' भी मैं सामग्री नहीं लिख पाऊँगा।

मेरी छोटी-सी लेखनी इतना बोझ उठाने में असमर्थ है। उसकी नोक पर लगी स्‍याही की बूँद मस्‍ती में बहती बड़ी नदियों, गरजते पहाड़ी जल-प्रपातों, दुनिया की किस्‍मत और किसी एक व्‍यक्ति के भाग्‍य को अपने में नहीं समेट सकती।

बड़ा परिंदा - ज्‍यादा खून, छोटा परिंदा - थोड़ा खून। जितना बड़ा परिंदा, उतना ही खून।

कहते हैं कि संयाग से ही किसी ने गुठली फेंक दी, संयाग से ही वह हिरन के सिर पर जा गिरी और लीजिए, हिरन के शानदार सींग उग आए।

कहते हैं कि अगर दुनिया में अली न होता, तो उम्र भी न होती। अगर दुनिया में रात न होती, तो सुबह कहाँ से आती!

कहते हैं -'उकाब, कहाँ जन्‍म हुआ तुम्‍हारा?'

'तंग दर्रे में।'

'कहाँ उड़े जा रहे हो उकाब?'

'ओर-छोरहीन आकाश में।'