मेवाड़ और आमेर / बावरा बटोही / सुशोभित

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मेवाड़ और आमेर
सुशोभित


जयपुर स्टेट में जयसिंह नाम से तीन शासक हुए हैं, किंतु हमें केवल दो पर बात करना है।

पहले जयसिंह 'मिर्ज़ा राजा' कहलाते थे, दूसरे जयसिंह 'सवाई राजा' कहलाए। पहले जयसिंह योद्धा थे, दूसरे नगर शिल्पी। अपने नाम पर 'जयनगर' सवाई जयसिंह ने ही बसाया, जो कालान्तर में जयपुर स्टेट की राजधानी जयपुर के नाम से विख्यात हुआ। जयपुर स्टेट में महाराजा के नाम के आगे 'सवाई' का उपसर्ग भी जयसिंह से ही सबसे पहले जुड़ा। बाद उनके जयपुर में नौ और महाराजा हुए और सभी ने अपने नाम में 'सवाई' जोड़ा।

'सवाई' समझ में आता है, किंतु 'मिर्ज़ा राजा' कैसे?

वास्तव में जयसिंह प्रथम को यह नाम-उपाधि मुग़लों से उनकी क़ुरबत के कारण मिली थी। आमेर उनकी राजधानी थी। आमेर के राजाओं की मुग़लों से निकटता भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। आमेर के नरेश राजा मानसिंह तो अकबर के दरबार में प्रधान सेनापति थे। इस प्रसंग में आप कह सकते हैं कि राजपूताने के इतिहास में जो गौरव मेवाड़ को दिया गया है, वैसा जयपुर को कभी नहीं दिया जा सका। राजपूताने के राजनैतिक इतिहास में मेवाड़ और आमेर दो परस्पर विपरीत ध्रुवों की तरह मौजूद रहे हैं।

मुग़लों की अधीनता स्वीकारने की परम्परा राजपूतों के यहाँ आमेर के कछवाहों से ही आरम्भ हुई थी। भारमल की बिटिया अकबर से ब्याही। राजा मानसिंह अकबर की ओर से महाराणा प्रताप से हल्दी घाटी में लड़े। और 'मिर्ज़ा राजा' ने औरंगज़ेब के लिए ना केवल छत्रपति शिवाजी से पुरंदर में लड़ाई लड़ी, बल्कि उन्हें परास्त भी किया।

युद्धों का शतक पूरा करने वाले यही 'मिर्ज़ा राजा' फिर एक दिन मुग़लों से उपेक्षित होकर मरे। वे अपने हाथी पर चढ़ रहे थे कि सीढ़ी टूट गई और वो गिर पड़े। गहरी चोट खाकर दो दिन बाद चल बसे।

मुग़लों से मैत्रीपूर्ण सम्बंध सवाई जयसिंह के भी थे, किंतु 'मिर्ज़ा राजा' जितने नहीं। इसका एक राजनैतिक कारण यह भी था कि सवाई जयसिंह के समय तक आते-आते मुग़लिया सल्तनत पस्त होने लगी थी। इसी के चलते सवाई जयसिंह ने जयपुर में जज़िया ख़त्म करवा दिया था। औरंगज़ेब के ज़माने में 'मिर्ज़ा राजा' अनेक राजनैतिक बाध्यताओं के मद्देनज़र चाहकर भी वैसा नहीं कर सकते थे।

आधुनिक भारत की आरम्भिक सुनियोजित नगर-प्रणाली के रूप में जयपुर की स्थापना के लिए याद रखे जाने वाले सवाई जयसिंह के नगर-शिल्पी स्वरूप पर चर्चा करने के लिए एक पृथक लेख की आवश्यकता होगी। किंतु राजपूताने का 'मेवाड़-आमेर द्वैत' तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों के मद्देनज़र कितना आवश्यक था, कितना अवसरवादी, कितना संघर्षपरक, कितना विवशतापूर्ण, और कितना विवेकसम्मत, इस पर इतिहास में एक असमाप्त बहस सदैव से ही चलती रही है, आगे भी चलती रहेगी।

किंतु रूपकों में सोचने की बाध्यताओं के कारण मैं कहूंगा कि जयपुर राज्य की राजधानी को आमेर से जयनगर में ले आने का सवाई जयसिंह का निर्णय प्रकारान्तर से आमेर के अभिशप्त इतिहास से दूर छिटक आने का सचेत उद्यम भी था, वैसा सोचें तो हर्ज़ नहीं। इति!