आस-पड़ोस / बावरा बटोही / सुशोभित

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आस-पड़ोस
सुशोभित


जो चीज़ें हमारे आस-पड़ोस में होती हैं, उनसे हमारे लगाव का एक मानचित्र हमारे भीतर धीरे-धीरे बनता रहता है।

जैसे सीढ़ियों पर काई जम जाती है और किसी को कानोंकान ख़बर तक नहीं होती।

गली के छोर पर एक पुरानी साइकिल बारिश में भीगती रहती है और एक दिन आप पाते हैं कि उस पर ज़ंग लग गई है, समय के सूखे रक्त की तरह।

निर्मल वर्मा के मुहावरे में कहूं तो पेड़ चुपचाप मरते रहते हैं और कहीं कोई आवाज़ नहीं होती।

ऐसे ही हमारे आस-पास की चीज़ों से लगाव हो जाता है, ज़ेहन में वे तमाम ब्योरे और तफ़सीलें चुपचाप 'रजिस्टर' होते रहते हैं, हमें ख़ुद इसका अनुमान नहीं रहता।

जैसे कि वो पेड़, जो रास्ते में पड़ता है, और एक ख़ास तरह से झुका होता है।

वो दीवार, जिसका रंग आपकी याद में रह जाता है।

घर से सड़क तक पैदल चलकर जाने और लौटने के सिलसिलों में गलियों के मोड़ आपकी आत्मा में दिशा दिखाने वाले ध्रुवतारे की तरह पैठ जाते हैं।

और उम्र के बोझ से लदे वे बीसियों चेहरे, जिनके नाम आपको नहीं मालूम, लेकिन जिन्हें रोज़ आप देखते हैं, दिन-महीने-साल, एक-एक कर।

घर से दफ़्तर जाने के तमाम रास्तों में से आपका एक ख़ास रास्ता होता है, उसी से आप रोज़ काम पर जाते हैं, रात को उसी से लौटते हैं।

पुराने वक़्तों में लोग साइकिल पर टिफ़िन टांगकर ऐसे ही काम पर जाते थे। ऐसे ही एक पुराने आदमी ने एक बार कहा था- जैसे माला के मनके गिनते-गिनते बची हुई उम्र कट जाती है, वैसे ही घर से दफ़्तर के बीच पड़ने वाले पेड़, मकान, दुकानें गिनते-गिनते रास्ता कट जाता है।

फिर एक दिन आपका तबादला हो जाता है। एक अनवरत विदा से आपका अंत:स्तल भर जाता है।

आप गली के नुक्कड़ तक आख़िरी बार चलकर जाते हैं और मन ही मन कहते हैं, यह अंतिम है।

आप रात को तीन बजे बिजली के लट्‌टू का क्षीण प्रतिबिम्ब टीवी की स्क्रीन पर प्रेतछाया की तरह देखते हैं और मन ही मन कहते हैं, यह अंतिम है।

आप दरवाज़े पर सांकल लगाकर सीढ़ियाँ उतर जाते हैं, और मन ही मन कहते हैं, यह अंतिम है।

आप शहर की सीमा को लांघकर बाहर निकल जाते हैं और आपकी पीठ के पीछे वो शहर मर जाता है, जहाँ आपने इतनी सांसें ली थीं, कि अगर उन्हें एक जगह एकत्र कर दिया जाए तो दुनिया के सबसे बड़े ग़ुब्बारे को भी उससे भरा जा सकता था।

जैसे सांप अपनी केंचुली से बाहर निकल आता है, वैसे ही हम अपना घर, अपना शहर पीछे छोड़ आते हैं, जो कभी आपसे आपकी त्वचा की तरह इतना एकाकार था कि उसे कंकर लगे तो मन में खटके।

आप नई जगह बस जाते हैं, लगाव का वही मानचित्र फिर नई जगहों के साथ बन जाता है।

एक मरे हुए शहर के जीवाश्म पर नए शहर का नक़्शा बन जाता है।

और तब, एक मुद्दत के बाद, फिर आप उसी शहर में लौटकर आते हैं, जिसे सालों पहले आपने अंतिम रूप से अलविदा कह दिया था, बिना यह जाने कि अंतिम के बाद भी अंतिमतर होता है, शून्य के पीछे भी डिग्रियाँ होती हैं, कुछ भी पूरी तरह से समाप्त नहीं होता।

आप लौटकर आते हैं और धड़कते दिल से उसी सड़क पर चलने लगते हैं।

ये गली अब यहाँ मुड़ जाएगी, आपके भीतर से एक आवाज़ आती है, और आप उस आवाज़ का पीछा करते हुए वहीं मुड़ जाते हैं। आपको किसी नक़्शे की ज़रूरत नहीं होती।

उस मोड़ पर एक पेड़ होगा। वो पेड़ आपको वहीं मिल जाता है, पहले से और सघन।

यहाँ तो बैंजनी रंग से पुती दीवार हुआ करती थी, अब उस पर दूसरा रंग है, किंतु दीवार वही है।

और वे सभी बेनाम चेहरे, समय के भार से और लदे हुए, किंतु ऐन वही चेहरे, आपको वहीं दिखाई देने लगते हैं।

एक-एक ब्योरा, एक-एक तफ़सील आपके भीतर फिर से जाग उठता है। यह सब कहाँ मर गया था? यह सब कहाँ खो गया था? मैं इस सबको कैसे भूल गया था? किसे मालूम था कि मैं अपने ज़ेहन के तहख़ाने में असबाब से भरा इतना बड़ा कमरा लिए घूम रहा था, जो अभी रौशनी पड़ते ही फिर जाग गया है, जिसने मुझे पूरी तरह से ग्रस लिया है।

एक शहर तभी जी उठता है, जब दूसरा शहर आपके लिए मर जाए।

दिन रात में जाकर डूब जाता है, रात सुबह होते होते बुझ जाती है।

रात को देखा सपना दिन के उजाले में मायावी मालूम होता है, जबकि सपनों के संसार में इस निखरे उजले वास्तविक की कोई प्रतीति नहीं रह गई थी!

तब अकसर मुझको लगता है कि मृत्यु एक अंधकार नहीं, एक रौशनी की तरह होगी।

कि मरने के बाद, पलभर में हमें सब याद हो आएगा, समय के समस्त पड़ाव आलोकित हो उठेंगे, सभी गलियाँ और सड़कें, दीवारें, सीढ़ियाँ और ज़ंग लगी साइकिलें हमारे याददाश्त के कारख़ाने में ज़िंदा हो उठेंगी, और केवल इस एक जन्म की नहीं।

जिस जीवन को एक-एक पल, एक-एक दिन संजोया, सहेजा, वह समय की पुस्तक का एक फटा पन्ना भर था, यह सोचकर कहीं शोक से तो ना भर जावैंगे? शोक करने भर का भी अवकाश होगा क्या?

एक दिन हम मर जाएंगे, और हमें सब याद आ जाएगा!

'मैनी लाइव्ज़ मैनी मास्टर्स' में ब्रायन वेइस ने कहा है- 'वी आर नॉट फ़िज़िकल बीइंग्स हैविंग अ स्प्रिचुअल एक्सपीरियंस, वी आर स्प्रिचुअल बीइंग्स हैविंग ए फ़िज़िकल एक्सपीरियंस।'

और इसी बात को कबीर ने अपनी तरह से अपने निर्गुण में कहा है-

'हम परदेसी पंछी रे साधौ भाई, इणी देस रा ना।'

बिना कोई आवाज़ किए चुपचाप मर जाने वाले दरख़्तों तक को यह रहस्य पता है, केवल हमें ही नहीं मालूम!