मैनपुरी षडयंत्र / आत्मकथा / राम प्रसाद बिस्मिल
इधर तो हम लोग अपने कार्य में व्यस्थ थे, उधर मैनपुरी के एक सदस्य पर लीडरी का भूत सवार हुआ। उन्होंने अपना पृथक संगठन किया। कुछ अस्त्र-शस्त्र भी एकत्रित किए। धन की कमी की पूर्ति के लिये एक सदस्य ने कहा कि अपने किसी कुटुम्बी के यहाँ डाका डलवाओ, उस सदस्य ने कोई उत्तर न दिया। उसे आज्ञापत्र दिया गया और मार देने की धमकी दी गई। वह पुलिस के पास गया। मामला खुला। मैनपुरी में धरपकड़ शुरू हो गई। हम लोगों को भी समाचार मिला। दिल्ली में कांग्रेस होने वाली थी। विचार किया गया कि 'अमेरिका को स्वाधीनता कैसे मिली' नामक पुस्तक जो यू. पी. सरकार ने जब्त कर ली थी, कांग्रेस के अवसर पर बेची जावे। कांग्रेस के उत्सव पर मैं शाहजहाँपुर की सेवा समिति के साथ अपनी एम्बुलेन्स की टोली लेकर गया। एम्बुलेन्स वालों को प्रत्येक स्थान पर बिना रोक जाने की आज्ञा थी। कांग्रेस-पंडाल के बाहर खुले रूप से नवयुवक यह कर कर पुस्तक बेच रहे थे - "यू.पी. से जब्त किताब अमेरिका को स्वाधीनता कैसे मिली"। खुफिया पुलिस वालों ने कांग्रेस का कैम्प घेर लिया। सामने ही आर्यसमाज का कैम्प था, वहाँ पर पुस्तक विक्रेताओं की पुलिस ने तलाशी लेना आरम्भ कर दिया। मैंने कांग्रेस कैम्प पर अपने स्वयंसेवक इसलिए छोड़ दिये कि वे बिना स्वागतकारिणी समिति के मन्त्री या प्रधान की आज्ञा पाए किसी पुलिस वाले को कैम्प में न घुसने दें। आर्यसमाज कैम्प में गया। सब पुस्तकें एक टैंट में जमा थीं। मैंने अपने ओवरकोट में सब पुस्तकें लपेटीं, जो लगभग दो सौ होंगी, और उसे कन्धे पर डालकर पुलिस वालों के सामने से निकला। मैं वर्दी पहने था, टोप लगाए हुये था। एम्बुलेन्स का बड़ा सा लाल बिल्ला मेरे हाथ पर लगा हुआ था, किसी ने कोई सन्देह न किया और पुस्तकें बच गईं।
दिल्ली कांग्रेस से लौटकर शाहजहाँपुर आये। वहां भी पकड़-धकड़ शुरू हुई। हम लोग वहाँ से चलकर दूसरे शहर के एक मकान में ठहरे हुये थे। रात्रि के समय मकान मालिक ने बाहर से मकान में ताला डाल दिया। ग्यारह बजे के लगभग हमारा एक साथी बाहर से आया। उसने बाहर से ताला पड़ा देख पुकारा। हम लोगों को भी सन्देह हुआ, सब के सब दीवार पर से उतर कर मकान छोड़ कर चल दिए। अंधेरी रात थी। थोड़ी दूर गए थे कि हठात् की आवाज आई - 'खड़े हो जाओ, कौन जाता है?' हम लोग सात-आठ आदमी थे, समझे कि घिर गए। कदम उठाना ही चाहते थे कि फिर आवाज आई - 'खड़े हो जाओ, नहीं तो गोली मारते हैं'। हम लोग खड़े हो गए। थोड़ी देर में एक पुलिस का दारोगा बन्दूक हमारी तरफ किए हुए, रिवाल्वर कन्धे पर लटकाए, कई सिपाहियों को लिए हुए आ पहुँचे। पूछा - 'कौन हो? कहाँ जाते हो?' हम लोगों ने कहा - विद्यार्थी हैं, स्टेशन जा रहे हैं। 'कहां जाओगे'? 'लखनऊ'। उस समय रात के दो बजे थे। लखनऊ की गाड़ी पाँच बजे जाती थी। दारोगा जी को शक हुआ। लालटेन आई, हम लोगों के चेहरे रोशनी में देखकर उनका शक जाता रहा। कहने लगे - 'रात के समय लालटेन लेकर चला कीजिए। गलती हुई, मुआफ कीजिये'। हम लोग भी सलाम झाड़कर चलते बने। एक बाग में फूँस की मड़ैया पड़ी थी। उस में जा बैठे। पानी बरसने लगा। मूसलाधार पानी गिरा। सब कपड़े भीग गए। जमीन पर भी पानी भर गया। जनवरी का महीना था, खूब जाड़ा पड़ रहा था। रात भर भीगते और ठिठुरते रहे। बड़ा कष्ट हुआ। प्रातःकाल धर्मशाला में जाकर कपड़े सुखाये। दूसरे दिन शाहजहाँपुर आकर, बन्दूकें जमीन में गाड़कर प्रयाग पहुंचे।