विश्वासघात / आत्मकथा / राम प्रसाद बिस्मिल
प्रयाग की एक धर्मशाला में दो-तीन दिन निवास करके विचार किया गया कि एक व्यक्ति बहुत दुर्बलात्मा है, यदि वह पकड़ा गया तो सब भेद खुल जाएगा, अतः उसे मार दिया जाये। मैंने कहा - मनुष्य हत्या ठीक नहीं। पर अन्त में निश्चय हुआ कि कल चला जाये और उसकी हत्या कर दी जाये। मैं चुप हो गया। हम लोग चार सदस्य साथ थे। हम चारों तीसरे पहर झूंसी का किला देखने गये। जब लौटे तब सन्ध्या हो चुकी थी। उसी समय गंगा पार करके यमुना-तट पर गये। शौचादि से निवृत्त होकर मैं संध्या समय उपासना करने के लिए रेती पर बैठ गया। एक महाशय ने कहा - "यमुना के निकट बैठो"। मैं तट से दूर एक ऊँचे स्थान पर बैठा था। मैं वहीं बैठा रहा। वे तीनों भी मेरे पास आकर बैठ गये। मैं आँखें बन्द किये ध्यान कर रहा था। थोड़ी देर में खट से आवाज हुई। समझा कि साथियों में से कोई कुछ कर रहा होगा। तुरन्त ही फायर हुआ। गोली सन्न से मेरे कान के पास से निकल गई ! मैं समझ गया कि मेरे ऊपर ही फायर हुआ। मैं रिवाल्वर निकालता हुआ आगे को बढ़ा। पीछे फिर देखा, वह महाशय माउजर हाथ में लिए मेरे ऊपर गोली चला रहे हैं ! कुछ दिन पहले मुझसे उनका झगड़ा हो चुका था, किन्तु बाद में समझौता हो गया था। फिर भी उन्होंने यह कार्य किया। मैं भी सामना करने को प्रस्तुत हुआ। तीसरा फायर करके वह भाग खड़े हुए। उनके साथ प्रयाग में ठहरे हुए दो सदस्य और भी थे। वे तीनों भाग खड़े हुए। मुझे देर इसलिये हुई कि मेरा रिवाल्वर चमड़े के खोल में रखा था। यदि आधा मिनट और उनमें से कोई भी खड़ा रह जाता तो मेरी गोली का निशाना बन जाता। जब सब भाग गये, तब मैं गोली चलाना व्यर्थ जान, वहाँ से चला आया। मैं बाल-बाल बच गया। मुझ से दो गज के फासले पर से माउजर पिस्तौल से गोलियाँ चलाईं गईं और उस अवस्था में जबकि मैं बैठा हुआ था ! मेरी समझ में नहीं आया कि मैं बच कैसे गया ! पहला कारतूस फूटा नहीं। तीन फायर हुए। मैं गद्गद् होकर परमात्मा का स्मरण करने लगा। आनन्दोल्लास में मुझे मूर्छा आ गई। मेरे हाथ से रिवाल्वर तथा खोल दोनों गिर गये। यदि उस समय कोई निकट होता तो मुझे भली-भांति मार सकता था। मेरी यह अवस्था लगभग एक मिनट तक रही होगी कि मुझे किसी ने कहा, 'उठ !' मैं उठा। रिवाल्वर उठा लिया। खोल उठाने का स्मरण ही न रहा। 22 जनवरी की घटना है। मैं केवल एक कोट और एक तहमद पहने था। बाल बढ़ रहे थे। नंगे पैर में जूता भी नहीं। ऐसी हालत में कहाँ जाऊँ। अनेक विचार उठ रहे थे।
इन्हीं विचारों में निमग्न यमुना-तट पर बड़ी देर तक घूमता रहा। ध्यान आया कि धर्मशाला में चलकर ताला तोड़ सामान निकालूँ। फिर सोचा कि धर्मशाला जाने से गोली चलेगी, व्यर्थ में खून होगा। अभी ठीक नहीं। अकेले बदला लेना उचित नहीं। और कुछ साथियों को लेकर फिर बदला लिया जाएगा। मेरे एक साधारण मित्र प्रयाग में रहते थे। उनके पास जाकर बड़ी मुश्किल से एक चादर ली और रेल से लखनऊ आया। लखनऊ आकर बाल बनवाये। धोती-जूता खरीदे, क्योंकि रुपये मेरे पास थे। रुपये न भी होते तो भी मैं सदैव जो चालीस पचास रुपये की सोने की अंगूठी पहने रहता था, उसे काम में ला सकता था। वहां से आकर अन्य सदस्यों से मिलकर सब विवरण कह सुनाया। कुछ दिन जंगल में रहा। इच्छा थी कि सन्यासी हो जाऊं। संसार कुछ नहीं। बाद को फिर माता जी के पास गया। उन्हें सब कह सुनाया। उन्होंने मुझे ग्वालियर जाने का आदेश दिया। थोड़े दिनों में माता-पिता सभी दादीजी के भाई के यहां आ गये। मैं भी पहुंच गया।
मैं हर वक्त यही विचार किया करता कि मुझे बदला अवश्य लेना चाहिए। एक दिन प्रतिज्ञा करके रिवाल्वर लेकर शत्रु की हत्या करने की इच्छा में गया भी, किन्तु सफलता न मिली। इसी प्रकार उधेड़-बुन में मुझे ज्वर आने लगा। कई महीनों तक बीमार रहा। माता जी मेरे विचारों को समझ गई। माता जी ने बड़ी सान्त्वना दी। कहने लगी कि प्रतिज्ञा करो कि तुम अपनी हत्या की चेष्टा करने वालों को जान से न मारोगे। मैंने प्रतिज्ञा करने में आनाकानी की, तो वह कहने लगी कि मैं मातृऋण के बदले में प्रतिज्ञा कराती हूँ, क्या जवाब है? मैंने उनसे कहा - "मैं उनसे बदला लेने की प्रतिज्ञा कर चुका हूँ।" माता जी ने मुझे बाध्य कर मेरी प्रतिज्ञा भंग करवाई। अपनी बात पक्की रखी। मुझे ही सिर नीचा करना पड़ा। उस दिन से मेरा ज्वर कम होने लगा और मैं अच्छा हो गया।