मोल्दावीया के मठ / बावरा बटोही / सुशोभित
सुशोभित
रुपहली सजीली विलायती किताबों की 'सेल' लगी थी, मेरे शहर इंदौर में, गए इतवार! ख़बर मिली तो पहुंचा, विश्वकप फ़ाइनल के बावजूद।
वो होती हैं ना- ओवर प्रिंटेड, ओवर स्टॉक्ड, प्री-ओन्ड किताबें। हज़ार, डेढ़ हज़ार, दो हज़ार रुपए के बक्से! एक बक्से में जितनी पुस्तकें आप समेट ले जाएं, वे सब आपकी। मैंने मन ही मन कहा, ये बढ़िया है। कभी यों भी अपूरित दौलत मिल जाती है!
ऐसी सेल में अमूमन वे ही किताबें होती हैं, जिन्हें आप मान सकते हैं, आउट ऑफ़ कॉन्टेक्स्ट, बाज़ार के लिए बेकार। तब भी, सघन से सघन वन के पतझड़ में भी लगन से खोजें तो सोने की कील मिल जाती है, फिर यह तो किताबें हैं - यही सोचकर मैं गया। अंग्रेज़ी के क्लासिकी उपन्यासों की इफ़रात- वही सब डिकेन्स, थैकरे, त्रोलोप्पे, आस्टन, हार्डी, कॉनरॉड और लॉरेंस - पीले, गंध भरे काग़ज़ वाले पेंग्विन, वर्ड्सवर्थ और एवरीमैन्स के एडिशंस! लेकिन इन्हें छोड़कर ले आया - व्यापक फलक वाली तमाम इलस्ट्रेटेड हार्डबाउंड पुस्तकें - जिनकी क़ीमत यों तो हज़ारों में, किंतु ख़रीदी कौड़ियों के मोल!
पूरे दो बक्सा भरकर डेढ़ दर्जन किताबें!
अंत में, जब केवल एक ही किताब की जगह बक्सों में शेष रह गई थी, तब तीन किताबें मेरे सामने थीं- 'इंग्लैंड के परिंदों का सूचीपत्र', 'यूरोपियन कंट्रीसाइड के वेजीटेशन और लाइवस्टॉक', और 'पेरू का भूदृश्य'।
बहुत मायूस मन से मुझको इनमें से पहली दो किताबें छोड़ना पड़ीं, क्योंकि पेरूवियन भूदृश्य को मैं छोड़कर नहीं आ सकता था। या शायद यह वेर्नर हरज़ोग की लातीन अमेरिकी फ़िल्मों को इतनी तल्लीनता से देखने का परिणाम है, यूकायाली नदी से सींचा भूदेश- लीमा, कुज़्को, माचू पिच्चू! इंका सभ्यता के लोगों ने जिन शिलाओं को एक-दूसरे पर तारतम्य से सजाकर अपने नगर बसाए थे, वे मुझे एक ऐंद्रिक अनुभूति से भर देती हैं। मैं उन शिलाओं के खुरदुरेपन को स्पर्श कर सकता हूं, मैं उनका स्वाद भी आपको बतला सकता हूं। पता नहीं कैसे?
जाने कब, किस जन्म में, कुज़्को की किस शिला पर मुख से लहू उगलते त्यागे होंगे प्राण!
कोई हिसाब है कि हमारे ज़ेहन के तहख़ानों में कितनी सदियों का असबाब संजोया हुआ है?
इंका सभ्यता के इन्हीं लोगों ने पहाड़ पर वह शहर बसाया था- माचू पिच्चू। कौन जाने, इसी के लिए जीज़ज़ क्राइस्ट ने 'सर्मन ऑन द माउंट' में कहा हो- 'पहाड़ पर जो शहर बना है वह छुप नहीं सकता!'
मैं अपने साथ लेकर चला आया बीसवीं सदी की भोरवेला में एमेच्योर छायाचित्रकारों द्वारा खींची गई स्वप्नवत तस्वीरों का एक संग्रह। मैं लाया इटली, ईजिप्त, रोमानिया के भूदृश्यों के सचित्र संस्करण। ईजिप्त वाली किताब में रोसेत्ता शिला का चित्र देखते ही पहचान लिया। मुतमईन होकर पादटिप्पणी से उसकी ताईद की और अपनी पीठ थपथपाई। त्रेवी के फ़ौवारे को देखते ही नाम से पुकारा। क्रेमोना की मीनार को चीन्ह लिया।
इन सब पर लिख चुका हूँ- सैंधव लिपि के बहाने रोसेत्ता स्टोन पर, स्त्राद वायलिनों के बहाने क्रेमोना पर और फ़ेदरीको फ़ेल्लीनी की एक फ़िल्म के दृश्य के आधार पर त्रेवी फ़ौवारे का स्मृतिचित्र रचा था।
अंतोनियो स्त्रादिवारी ने क्रेमोना में जिसके लहू से अपनी सबसे अच्छी वायलिन को लाल रंगा था, कहीं वह मेरा ही तो रक्त नहीं था?
और तब, मुझको नज़र आई वह किताब- 'उत्तरी मोल्दावीया के चित्रित मठ और अध्ययनशालाएं।'
आगामी सात जन्मों तक, सात समुद्रों को लांघता रहता, तो भी वह किताब मुझे नहीं मिल पाती, इतवार की सांझ इंदौर शहर में अयाचित ही जो मिल गई।
निकोले ओर्गा ने जिसे 'बायज़ेन्टाइन आफ़्टर बायज़ेन्टाइन' कहकर पुकारा है, उसी परिघटना के भीतर जब रोमन साम्राज्य विच्छिन्न हो रहा था और विस्तृत हो रही थी ऑटोमन साम्राज्य की परिव्याप्ति, तब यूरोप के सुदूर पूर्व में मठों और अध्ययनशालाओं के भीतर चित्रकारों ने प्रार्थना के आवेग के साथ पवित्र प्रसंगों को वर्णित करने वाले वे चित्र बनाए थे, जिनमें बायज़ेन्टाइन परम्परा का अंतर्भाव। ठीक वैसे ही, जैसे भारत से बौद्धों को खदेड़ दिए जाने के बावजूद अजंता की गुफाओं में भित्तिचित्र रचते रहते थे भिक्खु। और आज वे विश्व-सभ्यता की धरोहर!
मध्यकालीन रूस में कभी ऐसा ही एक 'अंद्रोनिकफ़ मठ' हुआ करता था, जिसमें रहता था अंद्रेई रूब्ल्योफ़। वर्ष 1408 के पतझड़ में क्लीश्मा नदी के किनारे व्लादीमीर नामक क़स्बे पर जब तातारों ने हमला बोला और पूरी बस्ती को हलाक़ कर दिया तो अंद्रेई रूब्ल्योफ़ ने शपथ ली थी कि अब वह कभी देवताओं के चित्र नहीं बनाएगा और आजीवन मौनव्रत धारेगा। यह शपथ पंद्रह वर्षों तक यथावत रही, जब तक कि एक अबोध किशोर के नेतृत्व में व्लादीमीर के गिरजे पर कांसे की नई बेल नहीं आरूढ़ कर दी गई।
उत्तरी मोल्दावीया के मठों के उन चित्रों को देखकर मुझे अंद्रेई रूब्ल्योफ़ की याद आई और यह अनुभूति इतनी सघन थी कि मुझको लगा आज भी कहीं ना कहीं मेरे नाख़ूनों के भीतर उन मठों की दीवारों का गारा और उन जलरंगों की खुरचनें शेष होंगी, या कौन जाने मैंने ही चित्रित की हो मोल्दावीया के मठों की कोई एक दीवार!
जाने कब, किस जन्म में, अभी याद नहीं आ रहा, किंतु कभी तो अवश्य ही!
और तब जाकर मुझको लगा कि अब मैं एक कालयात्री बन गया हूं. मेरी देह के द्रव्यमान में स्मृतियों की वह अनवरत रंगशाला कब तक समाई रहेगी? एक देह भला कैसे पर्याप्त हो, एक जीवन के लिए?
वर्षा की संध्या में, दोनों बक्सों के संतुलन को घुटनों के बीच साधे जब लौट रहा था, तो सोच रहा था यही, विश्वकप फ़ाइनल के बावजूद!