यूनान के कोने-अंतरे / बावरा बटोही / सुशोभित
सुशोभित
हिंदुओं को लगता था कि सुमेरु पर्वत धरती का केंद्र है। ईजिप्शियनों को लगता था कि पिरामिड धरती के मध्यबिंदु पर खड़े हैं। और यूनानियों का मानना है कि देल्फ़ी का ओरेकल ही धरती का नाभिस्थल!
एथेन्स के एक्रोपोलिस तो जाने कब से मेरी आकांक्षाओं का साधन थे। जब सांची गया तो वहाँ 18वें क्रम का चैत्यगृह देखते ही बोल उठा था कि 'अरे, ये तो एक्रोपोलिस की शैली का स्थापत्य!' फिर भी अगर मुझसे कहा जाए कि यूनान में केवल दो ही जगहें देखी जा सकेंगी तो मैं नि:शंक कहूंगा : देल्फ़ी का ओरेकल और लसिदि का पठार।
इस्पहानी होने के बावजूद बोर्खेस ख़ुद को एंग्लो-सैक्सन मानता था। रबींद्रनाथ ठाकुर को प्रच्छन्न जर्मन कहा गया है। लेकिन एन्शेंट ग्रीस के पुरास्वप्नों की झोंक में कितनी ही बार मेरा मन हुआ है कि जॉन कीट्स की तरह ख़ुद को 'हेलेनिक' कहकर पुकारूं, चैपमैन का होमर पढ़कर आत्मविभोर हो जाऊं और 'ग्रेशन अर्न' पर बनी आकृतियों को निहारते हुए उन पर रचूं चौदह पंक्ति-अनुष्टुप छंद का कोई 'सॉनेट'।
देल्फ़ी में अपोलो का मंदिर है, ओम्फ़ेलस कहलाने वाला पृथ्वी का नाभिस्थल है, लेकिन मेरा मन जुड़ा है पर्वतों पर निर्मित उस एम्फ़ीथिएटर से, जिसके सम्मुख रोम और कार्थेज के गौरव फीके हैं, माचू पिच्चू का गोपन-नगर श्रीहीन है। दुनिया में उससे विलक्षण कोई दूसरी रंगशाला नहीं। द ओपन थिएटर ऑफ़ देल्फ़ी।
फिर क्रीट में लसिदि के पठार हैं। ग्रीक मिथकों में जिस ज़ीयस को आकाश का देवता माना जाता है, कहते हैं वह इसी पठार पर एक गुफा में जन्मा था। आश्चर्य कि आकाश का देवता भी आख़िरकार धरती पर ही जन्मा!
लसिदि के पठार पर जब सैकड़ों पवनचक्कियाँ चलती हैं तो लगता है, जैसे हज़ारों फूल एक साथ सिर हिला रहे हों। यह दृश्य अपनी आंखों से देखें तो कैसा लगता होगा?
अपनी पहली कथाफ़िल्म 'साइन्स ऑफ़ लाइफ़' में वेर्नर हरज़ोग ने क्रीट की विंडमिल्स को एक दृश्य में अमर कर दिया था। हरसोग के नायक स्त्रोशेक के लिए यह दृश्य चरम उत्ताप का बिंदु बन जाता है, तमाम हरज़ोगियन नायकों की तरह।
किंतु डब्ल्यूजी सेबल्ड के नॉवल द इमिग्रैंट्स का आख्यायक जब हेनरी सेल्विन की विस्थापित नियति की पृष्ठभूमि में लसिदि पठार की तस्वीरों को देखता है, तो उल्लास के ठीक उलट यह उसके लिए एक अथाह विषाद का भूखंड बन जाता है। यहाँ तक कि सुदूर क्षितिज पर स्थित स्पादी पहाड़ भी उसे 'रोशनी की बाढ़ से परे एक मरीचिका' ही दीखता है।
इस पठार को कभी अपनी आंखों से नहीं देखा, लेकिन एक जीवनकाल में दो बार (हरसोग की आंखों से और सेबल्ड की आंखों से) इसे दो भिन्न छायारूपों में देखने का अवसर मिला, यह भाग्य भी क्या कम है?
और देल्फ़ी की रंगशाला पर कभी कोई शाम नहीं बुझाई, लेकिन होमर, रित्सोस और एलायतीस ने जिन शब्दों में ओरेकल को नहीं पुकारा, उस काव्य को अपने भीतर रचने का मनोरथ बांधा, यह स्वप्न भी क्या कम है?