सिंघाड़ों के तालाब वाला गाँव / बावरा बटोही / सुशोभित

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सिंघाड़ों के तालाब वाला गाँव
सुशोभित


कैसे-कैसे मोह मन को जकड़े हैं- जैसे कि यही कि रेल की पटरी के किनारे बसा सिंघाड़ों के तालाब वाला वह गांव पूर्वाह्न को कैसा दिखाई देता होगा!

क्योंकि कोई दहाई साल हुए, जब भी वहाँ रेलगाड़ी सीटी देकर ठिठक जाती, चतुर्दिक रात्रि-तिमिर फैला होता और गुहाँधकार में डूबा होता समूचा सरोवर, केवल जलराशि की निकटता के कारण शीत की अनुभूति त्वचा की रोमावलियों पर होती और जलकुम्भों, शैवालों और कच्चे सिंघाड़ों की वानस्पतिक गंध बिजली के मरणासन्न लट्टुओं से आलोकित बोगी की सींझी संतप्त हवा में तैर आती!

दिन में बड़ी लाइन की गाड़ी से चलता था, रात को छोटी लाइन की गाड़ी से लौट आता।

दो वर्षों तक प्रतिदिन यही उपक्रम, किंतु कभी तालाब किनारे वाले उस गांव को दोपहर के उनींदे शैथिल्य में नहीं देखा। कैसे-कैसे मोह मन को जकड़े हैं, जैसे कि यही कि छोटी लाइन की पटरी किनारे सिंघाड़ों के उस तालाब की जलउर्मियों को अपराह्न के आलोक में चीन्हना है!