यश का शिकंजा / भाग 12 / यशवंत कोठारी

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राष्ट्रपति भवन से जब रामास्वामी बाहर निकले तो रात्रि प्रारंभ हो चुकी थी। बाहर मंडराते प्रेस-फोटोग्राफरों और संवाददाताओं ने उन्हें घेर लिया।

मुस्कराते हुए वे उनसे बचकर निकल गए। अपनी लंबी गाड़ी में बैठकर रामास्वामी कोठी पर आए। कोठी में उनके आने से पूर्व ही यह समाचार पहुँच चुका था, अतः चारों तरफ हर्ष की लहरें हिलोरें ले रही थीं। बाहर लॉन में, सड़क पर और आगंतुकों हेतु जो कक्ष बनाए गए थे, सभी तरफ भीड़ थी। रामास्वामी अपने सचिव सहित अंदर वाले कमरे की ओर चल पड़े।

कमरे में पहुँचकर रामास्वामी ने रानाडे तथा अन्य विरोधी दलों के नेताओं को आज रात के भोज हेतु आमंत्रित किया। तेजी से सचिव ने टेलीफोन मिलाए और आनन-फानन में सभी प्रबंध होते चले गए।

आज रामास्वामी को लगा, शायद उनका बरसों का सपना पूरा होने वाला है। अगर रानाडे और कुछ अन्य दल साथ दे दें, तो वे इस बार प्रधानमंत्री का ताज पहन लेंगे।

रात्रि के भोज पर उन्होंने नेताओं से वार्तालाप प्रारंभ किया। रानाडे को लेकर वे अपने एकांत शयनागार में आए।

'बधाई!' रानाडे ने कहा, 'अब तो आप ही पी.एम. होंगे!'

'अगर आपका सहयोग मिला तो।'

'ऐसी क्या बात है! मैं तो हमेशा ही आपके साथ हूँ। पहले भी मैं इस संबंध में आपसे कह चुका हूँ।

रामास्वामी कुछ देर तो चुप रहे, फिर बोले -

'तो क्या आप और आपके सभी समर्थक मेरे साथ हैं?'

'देखिए, औपचारिक रूप से हम आपके साथ तभी होंगे, जब आपके पास सरकार बनाने लायक एम.पी. हो जाएँगे।'

'लेकिन अभी तो आपने सहयोग का वादा किया था।'

'वो तो मैं कह ही रहा हूँ। लेकिन जब तक अन्य दल और एम.पी. आपको पी.एम. के रूप में स्वीकार नहीं करते, मैं अकेला कैसे सपोर्ट कर सकता हूँ!'

'इसका मतलब, आपका सपोर्ट बेकार ही है!'

'आप कुछ भी समझिए! हाँ अगर अन्य लोग आपके साथ आ गए तो हम भी आपके साथ होंगे।'

यह कहकर रानाडे ने खाली गिलास रखा और बाहर की ओर चल पड़े।

रानाडे के जाने के बाद रामास्वामी कुछ देर तक सोचते रहे, फिर वापस आकर सुराणा और मनसुखानी आदि से बातचीत करने लगे। लेकिन कोई भी सहयोग हेतु तत्काल तैयार नहीं हुआ।

रामास्वामी ने अपने समर्थक मुख्यमंत्रियों को भी राजधानी बुलवा लिया।

तीन दिन तक वे लगातार जेाड़-तोड़ करते रहे, लेकिन शायद सफलता उनके भाग्य में नहीं लिखी थी। रामास्वामी ने अपनी सरकार बना सकने की असफलता से राष्ट्रपति को अवगत करा दिया।

इस सूचना से राजनीतिक स्थिति और भी अधिक खराब हो गई। सत्ताधारी पक्ष में विघटन और ध्रुवीकरण एक साथ चलता रहा। उधर विरोधी पक्ष भी असंगठित रहा। रामास्वामी अपनी असफलता के कारण परेशान, उदास और टूटे हुए रहने लगे।

राष्ट्रपति ने सभी संभावनाओं को देखते हुए, संसद में सबसे बड़े गुट के नेता को सरकार बनाने की दावत दे दी। सत्ताधारी पक्ष में विघटन के बाद रानाडे का गुट सबसे बड़ा बन गया था।

रानाडे स्वयं राष्ट्रपति से मिलकर इस संबंध में कोशिश कर रहे थे। इस आमंत्रण से रानाडे को मन की मुराद मिल गई।

उन्होंने विरोधी दलों में से कुछ का सहयोग प्राप्त किया, कुछ खरीदा-बेचा, एक नेता को उप-प्रधानमंत्री बनाने का लालच दिया और अपनी सरकार बनाने की घोषणा कर दी।

सुराणा, मनसुखानी, हरनाथ और स्वामी असुरानंद, सभी रानाडे के मंत्रिमंडल में आ गए।

रानाडे शपथ-ग्रहण समारोह के बाद संसद के सत्र हेतु तैयारी करने लगे। इस पूरे चक्र में रानाडे का साथ बाहर से भी कुछ दलों ने दिया।

संसद सत्र के आने से कुछ समय पूर्व सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा, लेकिन धीरे-धीरे रानाडे के समर्थकों में असंतोष पैदा होने लगा। जिन एम.पी. को कुछ नहीं मिल पाया, वे अलग होने की धमकी देने लगे।

आखिर में संसद सत्र के दिन तक रानाडे की सरकार अल्पमत में हो गई। रानाडे इस समाचार को नहीं सह सके। उन्हें दिल का दौरा पड़ा और उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ा।

राष्ट्रपति ने विरोधी दलों के नेताओं से विचार-विमर्श किया। कुछ लोगों ने सरकार बनाने का दावा भी किया। समर्थक एम.पी. की सूचियाँ भी प्रस्तुत की गईं।

लेकिन जाँच होने तक राष्ट्रपति ने शासन की बागडोर पूर्ववर्ती कैबिनेट को ही सौंप दी। तमाम जाँचों के बाद और दावों की सत्यता तथा देश की स्थिति को देखते हुए, राष्ट्रपति ने आकाशवाणी से अपने प्रसारण में कहा -

'मेरे देशवासियो!

अभी स्थिति इतनी नाजुक है कि कुछ भी नहीं कहा जा सकता। कोई भी दल सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है।

अतः मैं मध्यावधि चुनावों की घोषणा करता हूँ। सभी दल जनता के पास से नया जनादेश लेकर आएँ, ताकि हमारा लोकतंत्र सुरक्षित रहे!'

समाप्त