यश का शिकंजा / भाग 1 / यशवंत कोठारी

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संपूर्ण कालोनी में नीरवता, रात्रि का द्वितीय प्रहर।

राजधानी की पॉश कॉलोनी के इस बंगले में से आती आवाजें चारों ओर छाई नीरवता को भंग कर रही थीं। कभी-कभी दूर कहीं पर किसी कुत्ते के भौंकने से इस शांति को आघात पहुँच रहा था।

एक बड़े कमरे में पाँच व्यक्ति थे। केंद्रीय सरकार के वरिष्ठ मंत्री श्री रानाडे, उनके अपने पत्र के संपादक-मित्र आयंगार, रानाडे के विश्वासपात्र सचिव एस. सिंग और उद्योगपति सेठ रामलाल।

सेठ रामलाल अपनी बढ़ती तोंद और चढ़ती उम्र को सँभालने के लिए एक महिला को हमेशा अपने साथ रखते थे, और आज वे राजधानी की सुंदरतम कालॅगर्ल शशि को साथ लाए थे।

कमरे में शराब और सिगरेट की बदबू फैल रही थी। रानाडे ने कीमती शराब का घूँट भरा, शशि की ओर देखा और अपने सचिव को बाहर जाने का इशारा किया।

सचिव के चले जाने के बाद उन्होंने कहा -

'बड़ी मुसीबत हो गई है भाई! प्रधानमंत्री तो अड़ गए हैं - अब क्या होगा? सेठजी, तुम्हारा लाइसेन्स भी मुश्किल है...'

'तो मेरा क्या होगा?'सेठ रामलाल परेशान होने लगे...।

पहलू बदल कर रानाडे ने कहा -

होना जाना क्या है? हमने गांधी की समाधि पर कसम खाई थी, नहीं तो इस सरकार को कभी का गिरा देते! कोई सूरजकुंड जा रहा है, तो कोई वहाँ से आ रहा है। कोई दोहरी सदस्यता से परेशान हो रहा है तो कोई अपने पुत्र की रंगीनियों में डूब रहा है। यहाँ हर कोई दूसरे की पगड़ी को अपने पैरों में देखना चाहता है।'

'लेकिन इन सब छिछली राजनीति का हश्र क्या होगा? 'आयंगार ने सिगरेट का धुआँ ऊपर उछालते हुए पत्रकारिता का बघार लगाया।

'देखो भाई, साफ बात है...'रानाडे कुछ देर रुके और धवल चाँदनी बिछे सोफे पर पसर गए। शशि ने उनके हाथ में जाम पकड़ाया। उन्होंने एक घूँट लिया। आँखें मूँदीं, अपनी सफाचट खोपड़ी पर हाथ फेरा। दीवार पर टँगे गांधीजी के चित्र को मन-ही-मन प्रणाम किया और कहने लगे -

'अगर मुझे हटाने की साजिश जारी रही, तो मैं कहे देता हूँ, किसी को नहीं बख्शूँगा - एक-एक को देख लूँगा...!'

आयंगार, तुम कल अपने अखबार में, सत्ताधारी पार्टी में फूट पर एक तेज-तर्रार संपादकीय लिख दो!'

'लगे हाथ यह भी लिख देना कि शीध्र ही कुछ असंतुष्ट सांसद, एक अलग पार्टी की घोषणा करनेवाले हैं।'

'लेकिन इससे समस्या का समाधान थोड़े हो जाएगा!'आयंगार ने टाँग अड़ाई।

'तुम वही करो जो मैं कहता हूँ, और आगे-आगे देखते जाओ, होता क्या है! इस बार अगर प्रधानमंत्री को नीचा नहीं दिखाया तो मेरा नाम रानाडे नहीं!'

मैं 50 वर्ष से भारतीय राजनीति में भाड़ झोंक रहा हूँ, और ये कल के लड़के मुझ पर सार्वजनिक रूप से आरोप लगाते हैं - मुझे बलात्कारी और अत्याचारी कहते हैं। अरे भाई, सभी खाओ और खाने दो। लेकिन नहीं! खाएँगे भी नहीं बौर फैला भी देंगे। लकिन मैंने भी कच्ची गोलियाँ नहीं खेली हैं!'रानाडे ने आवेश से कहा।

'सेठ रामलाल, तुम कल तक मुझे दस लाख रुपये दो; प्रसार-प्रचार और खरीद-बेच करना पड़ेगा।'

'तुम्हारी जो 10 करोड़ की चाँदी बाहर भेजी थी, वह पहुँच गई या नहीं!'

'जी हाँ पहुँच गई है।'सेठजी ने उत्तर दिया।

'बस तो तुम दस लाख रुपये भिजवा दो!'रानाडे ने आदेशात्मक स्वर में कहा।

इसी बीच सचिव ने आकर बताया -

'सर, पी.एम. का फोन है।'

'हाँ, हैलो, मैं रानाडे...'

'यस, उस फाइल का क्या हुआ?'

'अभी मेरे पास ही है...!'

'लेकिन मैंने आपसे कहा था, उसे जल्दी निकाल देना...!'

'मैं पार्टी के संगठन में व्यस्त रहा, सर...!'

'देखिए मिस्टर रानाडे, संगठन और चंदे की व्यवस्था का समय नहीं है यह। हमें कुछ करके दिखाना है! चुनावी वायदे पूरे नहीं हुए तो हमें भी इतिहास रद्दी की टोकरी में फेंक देगा...'पी.एम. का स्वर गूँजा।

'लेकिन इसमें मैं क्या करूँ!, ...पिछली बार मेरे चुनाव क्षेत्र में बाढ़ आई तो आपने सहायता कम कर दी।'- रानाडे बोल पड़े,'इस बार आपके चुनाव क्षेत्र में अकाल है तो फाइल पर जल्दी निर्णय आवश्यक हैं! क्या हम सभी ने इसी की कसम खाई थी?'रानाडे ने जोड़ा।

'पर यह बहस का समय नहीं है! रात काफी हो गई। तुम फाइल मुझे भिजवा दो।'- पी.एम. ने कहा और फोन रख दिया।

रानाडे ने फोन रखा। सचिव को फाइल पी.एम. के पास फौरन भेजने को कहा और शशि से एक और जाम लेकर पिया।

रानाडे के चुप हो जाने के बाद कमरे में शांति छा गई। कोई कुछ नहीं बोल रहा था। सभी के चेहरे पर तनाव साफ दिखाई दे रहा था! आयंगार सिगरेट के छल्ले बनाता रहा।

सेठ रामलाल ने जाने की इजाजत माँगी, मगर रानाडे ने कोई जवाब नहीं दिया।

रानाडे ने कहा, 'अच्छा तो फिर कल के अखबार में जैसा मैंने कहा वैसा आ जाना चाहिए!'

'जी, अच्छा!'- आयंगार ने हाँ-में-हाँ मिलाई।

'अब तुम जाओ!'

आयंगार के जाने के बाद रानाडे ने सेठ रामलाल को आँखों का इशारा किया। सेठजी समझ गए।

'अच्छा शशि, तुम यहीं ठहरो, मैं चलता हूँ।'

इससे पहले शशि कुछ कह सके, सेठजी बाहर जा कर अपनी कार में बैठकर चल पड़े।

कमरे में रानाडे और शशि बचे रहे। वही हुआ जो ऐसे अवसरों पर होता आया है। कुछ दिनों बाद शशि के नाम से एक बड़ी कंपनी के शेयर खरीदे गए।

संसद-भवन से एक लंबी केडीलाक बाहर निकली और तेजी से आगे बढ़ गई। इस कार के पीछे तीन-चार अन्य कारें भी तेजी से चल पड़ी। लंबी केडीलाक कार के अंदर केंद्रीय सरकार के वरिष्ठ मंत्री रानाडे, और उसके पीछे वाली कारों में उनके अनुयायी थे। सभी केंद्रीय मंत्रिमंडल की मीटिंग से वाक आउट करके आ रहे थे।

रानाडे के आवास पर आज बड़ी गहमा-गहमी है। लान में इधर-उधर झुंड बनाकर लोग बैठे हैं, बतिया रहे हैं। आनेवाली कारों की लंबाई से आनेवाले की हैसियत नापी जा रही है।

रानाडे के दोनों सचिव और मिस असरानी तेजी से इधर से उधर भाग-दौड़ कर रहे हैं।

मनसुखानी की अँगुलियाँ टाइपराइटर पर मशीन की तरह दौड़ रही हैं। पास के कमरे में टेलिप्रिंटर तेजी के साथ कागज और कागजों पर समाचार उगल रहा था।

ड्राइंग रूम के बाहर वाले कमरे में पत्र-प्रतिनिधि बैठे थे। उससे आगे कुछ विशिप्ट व्यक्ति एक कमरे में रानाडे का इंतजार कर रहे थे। अचानक बाहर हल्ला हुआ -

'रानाडे आ गए।'दोनों सचिव उधर दौड़ पड़े। कार में से रानाडे को सहारा देकर उतारकर अंदरवाले कमरे में ले जाया गया। अंदर के मंत्रणा-कक्ष में रानाडे और उनके अनुयायी बैठे और वार्ताक्रम प्रारभ हुआ -

'अगर कुमारस्वामी को तोड़ा जा सके तो हमारी स्थिति ठीक हो सकती है।'रामेश्वर दयाल ने कहा।

'तुम यह क्यों भूल जाते हो, कि इससे उत्तर में हमारी शक्ति कम हो जाएगी।'-रानाडे बोले।

'तो फिर क्या किया जाए?'रामेश्वर ने चिंतातुर हो कर कहा।

'प्रधानमंत्री तो बिलकुल भी झुकना नहीं चाहते...'

'एस. सिंग, तुम जरा उन सांसदों की सूची बनाओ जो हमारे साथ है, और सभी को फोन पर सूचित कर दो - मीटिंग शाम को होगी।'

'जी अच्छा!'एस. सिंग दौड़कर मनसुखानी के पास आया। फटाफट सूची टाइप हुई और रानाडे को दी गई।

सूची पर एक नजर डालकर रानाडे बोले, 'कुल 120 एम.पी. मेरे साथ हैं। उत्तर के राज्यों में मेरे तीन मुख्यमंत्री हैं, इन्हें भी बुलवा लो।'

'अब समय आ गया है कि खुला संघर्ष कर लिया जाए!'- रानाडे बोले।

'रामेश्वर, तुम शाम की मीटिंग की तैयारियाँ करो। उसके तुरंत बाद ही एक पत्रकार-सम्मेलन होगा!'रामेश्वर चल दिए।

'सर, बिहार में मंत्री हरिहर नाथ मिलना चाहते हैं!'

'अभी मैं किसी से नहीं मिलूँगा! पत्रकारों से भी कह दो - शाम की मीटिंग के बाद आएँ।'

'जी, अच्छा!'सचिव चला गया।

रानाडे उठकर अंदर वाले कमरे में विश्राम हेतु चल दिए। यह कमरा काफी अंदर था, किसी को अंदर आने की इजाजत न थी। बहुत कम लोग जानते थे कि कमरे में क्या रहस्य है। वास्तव में कमरा रानाडे की ऐशगाह था।

रानाडे डनलप के नरम गद्दे पर लेट गए। मगर चित्त अशांत था। तृष्णा की भी अजीब हालत है - वे लेटे-लेटे सोचने लगे - कहाँ तो गांधी और उनके सपनों का भारत, आचार्य नरेंद्रदेव का समाजवाद और कहाँ हम जो केवल राजनीतिक उठापटक पर ही जिंदा हैं। कोई तुलना ही नहीं है।

उन्हें अपना अतीत सताने लगा - गरीब माँ-बाप की इकलौती संतान, देश के एक गरीब गाँव में जन्मा बालक रानाडे। पाँच वर्ष का हुआ, माँ चल बसी। बीमारी और बेकारी ने कुछ समय बाद बाप को भी लील लिया। सेठों ने जमीन हड़प ली। मौसी ने पाला पोसा। तभी से रानाडे ने राजनीति में आने की ठानी। शिक्षा-दीक्षा पूरी नहीं हो पाई, लेकिन भाषण कला में जमते गए। तहसील से जिला, जिला से प्रांत और प्रांत से राजधानी तक की लंबी दूरी रानाडे ने पार की है। कई पटकियाँ खाईं, कई खिलाईं - लेकिन बढ़ते चले गए। उन्हें स्वयं आज आश्चर्य होता है - वे कहाँ थे, कहाँ आ गए! हर रात वे सुहाग रात की तरह मनाते है। उनका विचार है, मानसिक शांति और प्रफुल्लता हेतु यह आवश्यक है!

विचारों के इस महासमुद्र में अचानक एक धुँधली आकृति उन्हें दिखाई देने लगी। धीरे-धीरे आकृति साफ होती गई। इसी के साथ उन्हें कमरे में एक अजीब सन्नाटा और रहस्यपूर्ण आवाजें सुनाई पड़ने लगीं। आकृति उनके पलंग के पास आकर खड़ी हो गई, वे डर गए। चीखना चाहते थे, लेकिन चीख नहीं निकली।

यह आकृति अकसर उन्हें अकेले में परेशान करती है, वे कुछ नहीं कर सकते। ओझाओं, ज्योतिषियों, तांत्रिकों, हड़भोपों - सभी से वे ताबीज, गंडा, डोरे लेकर देख चुके, कुछ नहीं होता।

आकृति उनकी पुत्रवधू कमला की है, जो बरसों पूर्व उनकी हविस का शिकार होकर आत्महत्या कर चुकी है। उनका पुत्र पागल होकर किसी नदी में डूब मरा। कहने वाले अभी तक कुछ-न-कुछ कहते रहते हैं। रानाडे ने इस डर से बचने के लिए नींद की गोलियाँ खाईं और सो गए।

लंबे समय बाद रानाडे को आज की सुबह इतनी ताजी ओर सुहावनी लग रही थी। रात की खुमारी धीरे-धीरे उतर रही थी टेबल पर देश-विदेश के प्रमुख अखबार थे। वे सुर्खियों को टटोल टटोलकर परख रहे थे।

आयंगार ने सत्ताधारी पक्ष पर तीखा आक्रमण किया था। सर्वव्याप्त असंतोष के लिए उसने प्रधानमंत्री को दोषी ठहराया था; लेकिन प्रधानमंत्री के अखबारों ने देश में व्याप्त अराजकता, हिंसा, लूटपाट और हरिजनों को जिंदा जला दिए जाने का सेहरा रानाडे के सर पर बाँधने की कोशिश की थी।

अचानक सचिव ने आकर ध्यान भंग किया -

'सर, अपने क्षेत्र से विधायक हरनाथ आए हैं।'

हरनाथ रानाडे के विश्वासपात्र विधायक थे। वे क्षेत्र की हर छोटी-बड़ी घटना की जानकारी रानाडे को देते रहते थे। और रानाडे इस हेतु कुछ कार्य करवा देते थे।

'प्रणाम महाराज', और हरनाथ उनके चरणें में झुक गए। हरनाथ अकेले नहीं थे, उनके साथ ही एक किशोरी बाला थी।

रानाडे ने उसी की ओर मुखातिब होकर पूछा -

'कहो, क्या बात है?'

'सर, ...ऐसा है...'और बेचारी किशोरी कुछ बोल न सकी। रानाडे ने हरनाथ पर दृष्टि फेंकी; हरनाथ कहने लगे -

'सर, इसके साथ घोर अन्याय हुआ है! ये आपके क्षेत्र की सामाजिक कार्यकर्ता हैं। इनका स्थानांतरण अन्यत्र कर दिया गया। बेचारी बड़ी दुखी हैं। घर पर बीमार माँ है, और कोई नहीं। आपको पिता-तुल्य मानकर आई हैं, इनकी मदद करें!'

'अच्छा, तो आप वापस स्थानांतरण चाहती हैं। लेकिन यह विभाग तो मेरे पास नहीं है। और संबंधित मंत्री मेरे गुट के भी नहीं हैं।'

किशोरी का चेहरा रुआँसा हो गया। रानाडे समझ गए। उन्होंने उसकी पीठ पर हाथ फेरा और कहा, 'खैर, तुम निराश मत हो ओ! अभी तो आराम करो, फिर जैसा होगा वैसा करेंगे!'

किशोरी ने पैर छुए और हरनाथ के साथ चली गई।

उसे एक स्थानीय होटल के कमरे में ठहरा दिया गया।

दूसरी रात को होटल के उस कमरे में फोन आया -

'तुम अभी रानाडे के यहाँ चली आओ। तुम्हारा काम हो जाएगा!'

रानाडे की कोठी पर रात को सर्वस्व लुटाकर किशोरी, वापस आते समय होटल जाने के बजाय आत्महत्या कर गई। दूसरे दिन अखबारों ने बड़ा हल्ला मचाया। लेकिन कुछ नहीं हुआ। अखबारों को विज्ञापन और संबंधित पत्रकारों को प्लाट बाँट दिए गए धीरे-धीरे सब ठीक हो गया।