यश का शिकंजा / भाग 5 / यशवंत कोठारी
लोकसभा के उपचुनाव निकट से निकटतर आ रहे थे। सत्तधारी पक्ष में निरंतर बढ़ती फूट, गुटों की राजनीति और सबसे उपर राव साहब की कम होती शक्ति। रानाडे लंबे समय से ऐसे ही किसी मौके की तलाश में थे। अभी नहीं तो फिर कभी नहीं! वे इस अवसर का भरपूर फायदा उठाना चाहते थे।
अपने विश्वस्त सहयोगियों - रामेश्वर दयाल, सेठ रामलाल और कुछ अन्य नेताओं को लेकर वे विश्राम हेतु राजधानी के पास के पर्यटक-स्थल में भूमिगत हो गए। विचार-विमर्श चलने लगा।
'शायद अब यह सरकार ज्यादा समय नहीं चलेगी।' - रामेश्वर दयाल बोल पड़े।
'सवाल सरकार के चलने या रुकने का नहीं है, सवाल हम सबके सामूहिक हित का है।'
'सेठजी, सुनाइए आपका काम कैसा चल रहा है?'
'आपकी कृपा है, साहब! जब से पिछला लाइसेन्स मिला है, मैं बहुत व्यस्त हो गया हूँ। पड़ोसी राज्य में एक बड़ा उद्योग अमरीकी तकनीकी सहायता से लगाने वाला हूँ। अभी कल ही अमरिकी डेलीगेशन को साइट दिखाई थी।'
'तो अड़चन क्या है?'
'हुजूर, स्थानीय सरकार जमीन का मुआवजा बहुत ज्यादा माँग रही है। कुछ असामाजिक तत्वों ने स्थानीय निवासियों को उल्टा-सीधा सिखा दिया है। वे लोग आंदोलन पर उतारू हैं।'
'हूँ...।' रानाडे ने खामोशी साध ली। कुछ समय बाद बोले -
'तुमने पहले क्यों नहीं बताया? सेक्रेटरी, जरा मुख्यमंत्री को फोन करके पूछो।'
'हाँ सर, सी.एम. ने कहा है - वे आज रात को राजधानी ही आ रहे हैं, वहीं बात हो जाएगी।'
सेठजी, आप पार्टी-फंड में दस लाख रुपये दीजिए; इसके एवज में सरकार आपकी कंपनी के चालीस प्रतिशत शेयर तथा उत्पादित माल का पचास प्रतिशत भाग खरीदेगी। इस आशय का समझौता उद्योग मंत्री से मिलकर कर लें।'
'जी, ठीक है...'
'और सुनो'- रानाडे ने कहा, 'राजधानी में जाकर यह समाचार प्रसारित कराओ कि कुछ विशेष कारणों से रानाडे यहाँ आ गए हैं, और शीघ्र ही नया गुल खिलने वाला है।'
'अभी मैं आयंगार को फोन करके यह काम करा देता हूँ।'
इधर राजधानी में रानाडे के समर्थकों और राव साहब के बीच तेज-तर्रार वार्ताएँ हुई। राव साहब परेशान हो गए - क्या करें, कुछ समझ में नहीं आता।
मदनजी और कुछ अन्य वरिष्ठ विश्वासपात्र मंत्रियों के साथ वे अपने कार्यालय में बैठे हैं।
'क्या करें? रानाडे रूठकर कोप-भवन में बैठे हैं।'
'इधर संसद का सत्र शीघ्र होने वाला है।'
'उपचुनाव भी नजदीक हैं।'
'ऐसे नाजुक मौके पर रानाडे का यह व्यवहार ठीक नहीं है; लेकिन क्या करें।'
'दल की ओर से अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाए' - मदन जी के इस सुझाव पर कोई सहमत नहीं हुआ। अनुशासनात्मक कार्यवाही का मतलब दल का विघटन। दल का विघटन याने सत्ताच्युत होना! गांधी, नेहरू के अनुयायी सत्ता कैसे छोड़ सकते थे।
अतः यह तय हुआ कि मदनजी और एक वरिष्ठ मंत्री पर्यटक विश्राम-स्थल तक जाएँ और रानाडे से बात करें।
मदनजी को आते देखकर रानाडे समझ गए, जरूर कोई विशेष समाचार या संधि-संदेश लेकर आए हैं। रानाडे को मदनजी ने समझाना शुरू किया -
'दल का विघटन रोका जाना चाहिए। गांधी की समाधि पर ली गई शपथ को याद करो, कदमकुआँ के संत को याद करो; यह समय ऐसा नहीं है। उपचुनाव, संसद-सत्र सर पर है...।'
'लेकिन हम भी कब तक झुके रहेंगे। राव साहब तो अड़ गए हैं - ये नहीं होगा, वो नहीं होगा। तुम चले जाओ। रानाडे यह सब सुनने का आदी नहीं है।'
'ठीक है, भाई' - मदनजी फिर भी शांत रहे, 'हमें मिल-बैठकर कुछ तो हल निकालना ही होगा। पहले सुराणा और मनसुखानी अड़ गए, अब तुम। सरकार है या कोई पुराना ट्रक, जो जब चाहे, जहाँ चाहे रुक जाए!'
'आखिर इस सबमें आप हमसे क्या चाहते हैं?'
अब मदनजी सीधी सौदेबाजी पर आ गए। राव साहब ने उन्हें इस कार्य हेतु अधिकृत भी किया था।
'चलिए, आप उप-प्रधानमंत्री हो जाइए!'
'क्या यह प्रस्ताव राव साहब का है?'
'आप ऐसा ही समझिए। राव साहब को मनाने की जिम्मेदारी मेरी!'
'और वह होटल-कांड?'
'चलिए, उस पर भी धूल डालते हैं।'
'और कुछ?'
टेलिफोन पर यह समाचार राव साहब को दिया गया। रानाडे राजधानी वापस आए।
राष्ट्रपति भवन से रानाडे को उप-प्रधानमंत्री बनाए जाने की विज्ञप्ति जारी की गई। अंतर्मन में राव साहब इस सौदेबाजी से सुखी नहीं थे। सत्ता के ताबूत में सिर्फ कुछ कीलें और ठुक गईं।
रानाडे-समर्थक नए जोश-खरोश के साथ अपने पाँव मजबूत करने लगे। हरनाथ, सेठरामलाल, शशि, एस. सिंह - सभी खुश थे।
उस दिन रानाडे की कोठी पर खुशियाँ मनाई गईं। और राजधानी के गँवार देखते रह गए।