यहीं तक / राजी सेठ / पृष्ठ 3

Gadya Kosh से
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उसके विचार से घर की एक बेहतर रूपरेखा हो सकती थी, जो मुझसे पता नहीं क्यों नहीं सधती थी। मैं...मैं शायद बूढ़ा हो गया था। (वह अपनी मां से पूरी चिंता और गंभीरता से कहता रहता है।) अपने हिस्से से ज्यादा मेहनत-मशक्कत कर चुका था। मेरी सांस उखड़ती थी। मैं लपककर चल भी नहीं पाता था। उसके ख्याल में मेरे थके-मांदे देह-मन को पूरी तरह जवान हो गए बेटे के पुरुषार्थ के अधीन हो जाना चाहिए और एक समझदार व्यक्ति की तरह परिधि पर आ जाना चाहिए। बड़े पुत्रा को केंद्र में आ जाने का विश्वास और अधिकार देते हुए। मिल सकनी चाहिए उसे अपने पिता की विरासत। सुख-दु:ख का पूरा लेखा-जोखा...इस घर की दीवारों पर लिखे गए इतिहास का बयान और ज्ञान। पर यही सब तो है जो उसे नहीं दिया जा सकता। नहीं बताया जा सकता उसे यहां तक...पहुंचने का रास्ता। इस तरह सुखों-सुविधाओं को पा लेने की विजयगाथा। नहीं बताया जा सकता कि कैसे मैंने अपनी पीठ पर उस चालाक दबाव को पहचानते हुए भी...दूध के रंग की लबालब चाय का आशय समझते हुए भी...हां, समझते हुए ही। नहीं, उसे नहीं बताना है एक पस्त घबराए हुए आदमी का ज़िंदगी से इस तरह का समझौता...कोई दूसरा रास्ता न बना पाए होने की हड़बड़ाई हुई नरमजान असमर्थता। वह नहीं जानता, मैं सच में नहीं चाहता कोई भी भागीदार...नहीं चाहता कोई वारिस...नहीं चाहता रास्ते पर अपने कदमों के निशान...इस इतिहास को यहीं इसी जगह, मेरे साथ दफन हो जाना होगा। चाहे मेरा यह रवैया उसके और मेरे बीच तनाव के कितने ही चक्रव्यूहों की रचना करता रहे। आज भी मैं उससे कतई उलझना नहीं चाहता था। कितने ही दिनों बाद वह मेरे साथ खाना खाने बैठा था। मैं भरसक बचने की चेष्टा कर रहा था, चाहे माहौल में कुछ वैसी ही आंधी के तेवर तने लग रहे थे। उसने मुझसे स्कूटर बुक कराने की बात कही थी। मुझे अच्छा लगा था। वह कुछ मांग रहा हैमुझसे। अपने पिता से। हो जाएगा, मैंने भरसक निरुद्वेग आवाज़ में कहा। ऐसी कोई ज़रूरत नहीं है। मैं कर लूंगा। आपको बता दिया...आपने पिछली बार शिकायत की थी। तो यह सूचना थी! पिछली बार के उलाहने का प्रतिकार! क्या कर लोगे? कुछ भी...अपनी समझ से... अपनी समझ तो इतनी ही है न कि ड्रॉप... यही सही। आपने कौन-सा कभी समझाने की कोशिश की है? इस घर की पर्दादारी में तो यह समझ में ही नहीं आता कि कौन-सी मांग जायज है, कौन-सी नाजायज़, कौन-सी चीज़ हकष् में मिल रही है, कौन-सी भीख में... तुम्हें आम खाने से मतलब या पेड़ गिनने से? जो घर को घर मानकर रहेगा, उसे पेड़ गिनकर आम खाने पड़ेंगे, अपनी आवाज़ की सख्ती छिपाने की उसने कोई कोशिश नहीं की। ...मैं तुम्हारा बाप हूं या तुम मेरे बाप? मैं शायद उसकी ललकार का सामना न कर पाने के कारण उद्गम को छोड़ नालियों की तरफष् चल निकला था। उसने भी अब तक की लिहाज़ की ओढ़ी हुई चादर को उतार फेंका! न आप मेरे बाप हैं, न मैं आपका बाप। आपके-मेरे बीच कोई असली रिश्ता बनता ही नहीं। ...रिश्तों के नाटक हैं सारे...आपकी अपनी दुनिया है, अपने किष्ले...आप पालते हैं, हम पलते हैं...आप टुकड़े देते हैं और हम खाते हैं क्योंकि...क्योंकि हम कुछ और कर ही नहीं सकते..बेबस हैं...नाकारे और पालतू... कहकर उसने थाली को एक ही झटके में आगे धकिया दिया था। कई रंगों के इस उफषन को झेलते उसका पतला-सा चेहरा एकाएक गड्ड- मड्ड हो गया था। एक अधबनी-सी दयनीयता उसके होठों पर थरथराकर उसकी तमतमाहट को झूठा कर गई। वह उठ गया था। सब्ज़ी के शोरबे से सने हाथ कांपते से, इस घर में बस आप ही आप हैं। बाकी सब टुकड़ेखोर...पालतू...एडोलसेंट... कहता हुआ वह वैसे ही जूठे हाथों से बाहर निकल गया। शोरबे के पीले चिकने धब्बों को हम दोनों के बीच घूरता छोड़कर। मुझे लगा, उसकी मां लपककर उसके पीछे जाएगी हमेशा की तरह, पर वह वहीं-की-वहीं बैठी रही। सन्नाटे में। चेहरा उलाहने के गाढ़े-गाढ़े धुएं से धूमिल... उसके इस उपालंभ-पुते चेहरे का मैं आदी हो गया हूं। उसे खूब-खूब अबूझ लगती हैं ये बातें। उसके हिसाब से मैं घोर अहंकारी हूं। नियम और व्यवहार का हत्यारा। यह हकष् तो हर गए-गुज़रे को भी मिल जाता है अपने आप...और वह? 'ऐसा हीरा लड़का!' ऐसा क्या है कि अपने ही घर में रहते कोई इतना बेगाना महसूस करे... मेरे पास इन बोले-अबोले उलाहनों का कोई उत्तार नहीं। सीधे-स्वाभाविक हकष् के पक्ष में खड़ा होकर अपने नंगेपन तक पहुंच जाने का साहस भी नहीं। कैसे कहूं कि उस भरोसे को पैदा करने की मेरे भीतर कोई चेष्टा नहीं...मुझे नहीं चाहिए था कोई वारिस...नहीं चाहिए...उसकी उजली अछूती अस्मिता का आत्मदान...किसलिए मैं किसी के भविष्य को विरासत के अंधकार के नाम गिरवी रखता फिरूं? ...इसका मुझे कोई हकष् नहीं...वह मेरा बेटा है तब तो और भी नहीं...कुछ दिन बाद वह भी समझ लेगा,

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