यहीं तक / राजी सेठ / पृष्ठ 4
उसका पिता नहीं था कोई, जैसे मैंने समझ लिया था। लो! यह भी खा लो, उसने बेटे की थाली में पड़ी दूसरी अनछुई रोटी को उठाकर मेरी थाली में पटक-सा दिया है। इस पटकने से उसने जो काम लिया है, उसे मुंह से लेना चाहती तो शायद अपनी ज़रूरत के शब्द ही न जुटा पाती। और मैं भी...और कोई प्रसंग होता तो दो-चार झापड़ रसीद करता। यह मेरा घर है। मेरे स्वामित्व के गले में कुत्तो के से व्यवहार का पट्टा? ...नहीं, यह नहीं हो सकता था। पर हो रहा था। मैं होने दे रहा था। मैं खाता रहता हूं। मुंह में पड़े अन्न के बे-स्वाद लोंदे को चबाता रहता हूं। अपने बचाव की कोई और ढाल मेरे पास नहीं है और उतना उखड़ जाना भी मेरे पक्ष में नहीं है। तुम भी खा लो, मैं सहजता का हाथ उसकी तरफष् बढ़ाता हूं। वह झन्न से अपनी कटोरी में परोसी सब्ज़ी कुकर में पलटकर मेरे सुझाव की अस्वीकृति को और बड़बोला कर देती है। कुछ खाया नहीं होगा सुबह से...आज मंगल हैक्यों नहीं... पर यह सहानुभूति उस पर औंधी होकर पसरी। वह और व्यग्र हो जाती है। अव्यक्त क्रोध में बार-बार घुटनों में खोंसी जाती साड़ी की चुन्नटों को एकाएक आज़ाद करके उठ खड़ी होती है और लपककर बाहर निकल जाती है। हाथ धोने उठता हूं तो उसे बेटे की खाट के पास ज़मीन पर बैठे पाता हूं। मुझे देखते ही वह पास रखे भूरे स्वेटर को उधेड़ने का कोई छोर ढूंढ़ने का नाटक करने लगती है। एक संधिहीन ख़ामोशी... बेटा नहीं तो बेटे की खाट। खाली खाट। वह दृश्य मुझे जाने कहां झोंक देता है। इस समय तो मुझे वही विराट होकर दिख रही है। खाली खाट के पास ज़मीन पर सिर झुकाए बैठी...घुटती हुई...भूखी-प्यासी, उपासी, आहत। मेरे भीतर कहीं कुछ दरका है। अचानक। बिना चेतावनी के। अंदर क्यों नहीं आ जाती? वह वैसी की वैसी बैठी रहती है। आ जाएगा! कोई पहली बार ही तो नहीं न... हो जाएगी किसी दिन आख़िरी बार...तब तुम, वह बोली थी आक्रमण की इच्छा से, पर फलांगते आते अशुभ कथन के आवेग से खुद ही घबरा गई। मैं वहीं टहलता रहता हूं। शायद...शायद उसकी मौजूदगी की मजबूरी से बंधा। उसे क्या पता...आज कितने बरसों बाद इस शिला को तनिक सरका देने की इच्छा हुई है। उसे कह देने की कि क्यों नहीं...किसलिए नहीं...वह मेरा बेटा है तब तो एकदम नहीं। वह उसकी मां है तो क्या मेरी पत्नी भी तो है... छाती पर अड़ा बैठा वह जमाव खिसकना चाहता है। शायद पहली बार। हो सकता है ऐसी आवृत्तिायों की संभावनाओं का डर भी इसमें शामिल हो। देखते-देखते वे दोनों एक मोर्चे में तब्दील हो जाते हैं। मेरे विरुध्द...तने हुए। मेरे तनाव के प्रत्युत्तार में। वह समझ सकेगी, मेरे लिए यह दूरी, यह तनाव क्यों ज़रूरी है। यदि तनाव बना न रहे तो मोर्चाबंदी टूट सकती है। रिश्ते की नज़दीकी के उत्तााप से। वह चाहे तो देख सकती है कि चाबुक तानी ज़रूर जाती है पर मारी तो नहीं जाती। इसका गवाह उसके बेटे का शरीर है...उसका मन...उसकी आत्मा ...उसके भीतर उफष्नते आलोक का झरना। अपने संघर्ष में से रास्ता बनाने ...अपने पैरों पर सीधे खड़े होने की वैसी तड़प क्या देखी है कभी...कहीं और? वह क्यों समझती है कि उसका बेटा किसी की दया का मोहताज है...पालतू और बेचारा? कितनी दूर तक ठान लेता है अपने बूते। उसके पास मोहलत है...हिम्मत है...सिर पर घनी घनेरी छांह। अभी तो उसके पैरों में ताकत पनप रही है...आंखों में उजला स्वच्छ आकाश...आसपास खूब-खूब खुली धूप। उसे क्या पड़ी है कि वह मेरे बनाए दरवाज़ों से जीवन के आंगन में प्रवेश करे? चाहता हूं, जो उसने नहीं देखा वह उसे देखे। उसे भी सहज हो सके सहनाज़ैसे मुझे। उस आहत दया की फुहारें छोड़ती सड़ी-गली ममता को भूल- कर... उठो तो..., मैंने फिर उसकी बांह पकड़ी है। झुककर। अपने पंजों पर उसके पास बैठते हुए। मुझे मत छुओ, अपनी बांह झटकते हुए उसने मुझे परे धकेल दिया है और दांत पीसते हुए लपककर खिड़की की चौखट से जा लगी है। दांत पीसता हुआ उसका यह रौद्र रूप...खाली खाट के पास आहत प्रतीक्षारत बैठी स्त्राी की छवि को निग़लता जा रहा हैझड़प से। मुझे खुद ही लग रहा है, सांझेदारी की इच्छा की वह घड़ी टल जाने को है...टल रही है। भाग रही है बेतहाशा...पीछे देखे बिना। कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं एक इतिहास से लोहा लेते-लेते दूसरे इतिहास की गिरफ्त में आता चला जा रहा हूं।