यात्रा-मुक्त / राजी सेठ / पृष्ठ 1

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यात्रा-मुक्त
राजी सेठ

किट्टू...ओ किट्टुआ! आवाज़ भीतर से उठकर हवेली के पिछवाड़े दौड़ती- थरथराती चली आई थी। रात के दस बजे हैं। अस्पताल से खरीदारी करते हुए घर लौटने में देर हो जाती है। अभी वह पढ़ने बैठने की मंशा को उलट-पलट ही रहा था। इस नाम से उसके भीतर-बाहर आग लग जाती है। किशन नहीं तो 'किशना' कह लो, 'किशनू' कह लो, पर इस दरबार में किस बात की सुनवाई है। बापू पर झुंझलाओ तो वही एक उत्तार मालिक हैं, कुछ भी कहें...क्या फर्ष्कष् पड़ता है! क्यों...फर्ष्कष् क्यों नहीं पड़ता? अपने ही नाम को इस तरह तोड़-मरोड़कर हाथ में दे देने का फर्ष्कष् क्यों नहीं पड़ता? हाई स्कूल के सर्टिफिकेट पर लिखा 'कृष्णचंद्र' भी उसी का नाम है। पढ़कर लगता है कि किसी के नंगे बदन पर कपड़े पहना दिए हों। अक्षरों पर हाथ फिरा-फिराकर देखता है...वह तो वैसे के वैसे लेटे रहते हैं चुपचाप, पर भीतर कुछ पानी की सतह की तरह द्रवित होकर ऊपर चढ़ने लगता है। आगे क्या लगाएंगे बापू? उसी सपने में डूबते उसने एक दिन बापू से पूछा था। आगे क्या का क्या मतलब? मेरा मतलब है...उपनाम...सरनेम? ...नहीं समझते? मतलब जात क्या है हमारी? कौन ससुर तू राज-दरबार में बैठा है...जात क्या है हमारी! बापू ने उसकी नकल बनाते हुए कहा, यहां बैठे जून सुधर गई तुम्हारी...तू साला दर- दर... बापू ही सब मटियामेट कर देते हैं तो दूसरों से क्या शिकायत! आवाज़ थी कि सन्नाटे को चीरती फिर से आई थी। एक ख़ास तरह का खुरदरापन उसमें चीख़ रहा था। व्यर्थ सोच रहा था कि खाना टाल जाए। खा लेने पर नींद धर दबाती है, पर अब कुछ नहीं हो सकता। उस आवाज़ को टाला नहीं जा सकता था। उसे सुनकर किसी खिलाड़ी की तरह चूने की सफेद रेखा पर से दौड़ पड़ने की तत्परता उसके खून के स्वभाव से मांगी जाती थी। भीतर गया। काम कुछ भी ख़ास नहीं। तरुण बाबू को अपनी सोने की चादरें एकाएक गंदी लगने लग गई थीं और वह उन्हें बदलवाना चाहते थे। अभी ...एकदम...तुरंत, यह भूलकर कि चादरें हर शनिवार को अपने-आप बदल दी जाती हैं, और आज तो मंगलवार ही था। वह अब नहीं चूकते...किसी एक मौके पर भी नहीं। घात में बैठे रहते हैं कि कैसे उनकी ही उम्र में उन्हें लांघ जानेवाली उसकी उं+चाई को पीसकर रख दिया जाए। अपने अहं को सेंकने का यह खेल उन्हें पसंद आने लगा हैपुकारना और आदेश लेने को तत्पर खड़ी दासता को अपने सामने खड़ा कर लेना। बड़े मालिक बिस्तर से बंधे हैं। यह हकष् उन्होंने अब अपने को खुद दे लिया है। वह चुपचाप चादरें बदलता है...तरुण बाबू की उपस्थिति को भूलकर। काम पूरा करके जाने को तत्पर होता है कि एक कठोरता गूंजती है, रुको ...बैठो। कहां बैठे? उनके पैरों के पास? गलीचे की बाहरी कोर से थोड़ा हटकर? और कोई जगह वहां नहीं है। सुना नहीं...मैंने कहा, बैठो... स्वर में सीधी खड़ी निर्विकल्प कठोरता। वह पाजामा समेटकर बैठ जाता है।

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