यात्रा-मुक्त / राजी सेठ / पृष्ठ 2
इस टेबल के नीचे जो अख़बारों की गड्डियां हैं, उसमें से कपिलदेव की बल्लेबाजी के सारे फोटो ढूंढ़ निकालो...मेरे एलबम के लिए... इस तरह का काम? ...पढ़ाई का बोझ...रात का यह पहर। भूखे-प्यासे। उसके भीतर जम्हाइयां अकड़ने लगती हैं पर उसकी देह को अपने ही आदेशों को टाल जाने की आदत है। चित्रा ढूंढ़ निकालता है तो तरुण बाबू को वह अपर्याप्त लगते हैं। 'एक्शन' के साथ 'नेरेशन' भी उन्हें चाहिए। नेरेशन...क्यों ...क्यों नेरेशन नहीं समझते? ...तुम तो बड़े हेड मास्टर हो! यह कील कहां ठोंकी गई है, वह जानता है...बिना आंख उठाए भी जानता है। यह घाव है जो तरुण बाबू के मन में सतत रिसता है। यह वैभव और ऐश्वर्य उनका है...स्वामित्व उनके भाग्य का है पर ये उपलब्धियां और सफलताएं क्यों उनकी नहीं हो पातीं? यह किट्टुआ क्यों सीढ़ी-दर-सीढ़ी लगाकर चढ़ता है और वे? ...इस हवेली के उत्ताराधिकारी वे...! फर्श से उठा तो देखा, तरुण बाबू ने पैर सामने की टेबल पर रख लिये हैं और मुंह के आगे एक अख़बार...जैसे न देखने योग्य वस्तुओं के आगे एक दीवार। खिन्न हो आया। कोठरी में आया तो पढ़ने बैठने के संकल्प की फूंक निकल चुकी थी और भूख भड़क आई थी। ऐसे में संकल्प को पेट से बांधकर पढ़ने बैठना? ...नहीं, इतनी-सी हिम्मत भी उसे उस समय अपने भीतर से गायब मिली...क्या होगा पढ़कर? ...पुस्तकों के रास्ते आगे और आगे की सीढ़ियां चढ़ना और बिना भविष्य के शून्य में झूल जाना...इससे तो अच्छा था, वह इन किताबों को ईंट- पत्थर समझता और अपनी हदों से बाहर फेंक देता। इन किताबों ने ही दूभर कर रखी है उसकी ज़िंदगी...न इधर, न उधर। अच्छा रहता, वह भी बापू की तरह... हवेली ने बापू का लड़कपन देखा, जवानी देखी, अब अधेड़ापा भी देख रही थी। गिरजाघर में ब्याही जाने वाली वधू की पोशाक की तरह उनका लड़क- पन अपनी मां के पीछे-पीछे इन्हीं फर्शों पर घिसटता-पड़ता ख़त्म हो गया था। उनका सपना वहीं तक था। इस आंगन में अपनी मां के पीछे भागते-दौड़ते जवान हो जाना, टहल-सेवा के शऊर सीखना, कचहरी से लौटे मालिक के पैरों को जूतों से खाली करना, शौच के लिए लोटा भरना। चाकरी के नित नए तरीके सोचते रहना और पुकारे जाने पर 'जी-हजूरी' का ऐसा मिश्रीनुमा रसायन घोलना कि मालिक को भी आंख उठाकर देखना पड़े।
आठवीं में वह प्रथम आया था और तरुण बाबू फेल हुए थे। मालकिन के इधर-उधर रिसते ममत्व की शह पाकर वह उनके पास जाने की फिराक में ही था कि बापू ने अपनी आंख की कठोर वर्जना से उसे वहीं...उस दहलीज के पास ही खड़े-खड़े सुन्न कर दिया। मालकिन का गिलौरीदान तख्त पर रखते ही लपककर आए और उसकी बांह पकड़कर वापस कोठरी में ठूंस दिया।