यात्रा-मुक्त / राजी सेठ / पृष्ठ 3
वहां जाने की कोई ज़रूरत नहीं है। ऐसा कोई बड़ा तीर नहीं मार लिया है तूने? ...जानता नहीं तरुण बाबू का रिजल्ट? कैसा लग रहा होगा मालकिन को... वह बुझ गया। नया-नया यहां आया था। नहीं समझ पाता था, क्यों बापू का अपना सुख हवेली के दुख के सामने एकाएक इतना छोटा पड़ जाता है? बापू को ये सब सवाल परेशान नहीं करते थे। यहांहवेली के बीचोबीच खड़े उनके जिस हिस्से की हवेली को ज़रूरत न होती, उसे बापू अपने लिए भी फालतू समझने लगते। यह कितनी अजीब बात थी कि अपनी शादी के बाद भी अपने बीवी- बच्चों को लेकर गांव में रहने का अरमान उनके मन में नहीं पनपा था। मां को गांव में ही रख छोड़ा था। हफ्ता-दस दिन में आते...कभी-कभार टिक भी जाते पर सांझ ढले शहर जाने को ऐसे लपकते जैसे अब उन्हें अपने घर लौटने की जल्दी हो। गांव में रहती मां कभी-कभी हवेली चलने का हठ करती। बापू की सतत अनुपस्थिति ने उसके बचपन को दरजा दे दिया था। वह कोरी कमीज पहनता। ...कामदार दोपल्ली टोपी लगाता और मां को लेकर बस के अड्डे चल पड़ता। बापू उन्हें देखते ही आग-बबूला हो जाते, चैन नहीं पड़ती उहां...आ जाते हैं खाने...हियां क्या खाना धरा है? खाकर आए होते। यह सब सुनना उसे अखरता। तुरंत कह देना चाहता घर से खाकर चले होने की बात, पर पास घूंघट में बैठी मां चुटकी काटकर उसे बरज देती। बाद में बताती कि खाने के बहाने कुछ देर तो बैठेंगे। बापू बगलें झांकते मालकिन को ख़बर करते, झेंपे हुए से। एक पैर दहलीज के भीतर एक बाहर, वोऽ वो आए हैं। चले आते हैं हियां मरने। हियां क्या खाना धरा है? मालकिन खिलखिलाकर हंसती, अरे, आए हैं तो खिलाओ-पिलाओ...खातिर करो...। पर बापू झींकते-बुदबुदाते रहते। एक काली-सी बटलोई में नमक और चावल डालकर भात पकाते, और खुद गुड़ की डली मुंह में डालकर पानी पी लेते। यहां किस बात की कमी है? मां खीजती। कमी नहीं तो हम ही लूटकर खा जाएं, बापू का तर्क होताहमेशा हवेली के हकष् में झुका हुआ। मां के मरने पर उसने पहली बार बापू को कई दिन तक घर में रहते देखा थासांझ का धुंधलका...आसमान में ठहरी हुई पीली आंधी की घुटन...कोठे के बाहर दालान में मां ज़मीन पर लेटी हुई...सिर ढका हुआ...साड़ी का पल्लू आंख के पपोटों से नीचा। वह ख़ूब जोर-जोर से सांस ले रही थी। बापू कुछ दूरी पर दीवार के सहारे बैठे 'सिरी राम-सिरी राम' का सीत्कार कर रहे थे। तनिक हाथ तो दे लाला! ताई की वह पैनी-सी खीज उसे अभी तक याद है। बापू उठकर आए तो थे पर ऐसा कुछ करने का शऊर शायद उनके हाथों में नहीं था। टुकुर-टुकुर देखते भर रहे। मां के आखिरी सांस भरने के बाद ही उनका हाथ मां के माथे पर गया। एक बार उन्होंने मां की कलाई पर अपनी उंगलियां फिराईं और फिर चुपके से बांह को नीचे रख दिया। मां की दाह के बाद वह बापू के आमने-सामने हो गया था। अब तक बीच में एक आड़ थी। उस आड़ में वह बापू को एक बेगानी जिज्ञासा से देखा करता था। वह आड़ अचानक खींच ली गई। सब कुछ उघड़ गया था एकाएक। इस सामने के लिए वह कतई तैयार नहीं था और बापू द्वारा किए इस प्रश्न के लिए तो बिलकुल भी नहीं कि क्यों बे, अब तू कहां रहेगा?