यात्रा-मुक्त / राजी सेठ / पृष्ठ 4

Gadya Kosh से
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मैंऽऽ मैं? ऐसे अछोर आकाश के नीचे खड़ा वह एकाएक रो पड़ा। बापू शायद पसीज गए, मैं तो पूछ रहा था कि तू गांव रहेगा या शहर? इस बात का उसके पास क्या उत्तार था। गांव रहेगा तो कहां रहेगा, शहर जाएगा तो कहां जाएगा...पर बापू के सामने कोई ऐसा संकट नहीं था। उनका जीवन एक ऐसा बहाव था जो हवेली की दीवारों को छूते ही खुद एक भंवर बन जाता था। उसके जीवन का अनुवाद भी बापू ने अपनी तरह कर लिया था। बर्तन- भांडे, कपड़े-लत्तो, हांड़ियां, मथानी, सूप, छलनीसब बांट दिए और उसे लेकर हवेली आ लगे। सिर ऐसा झुका हुआ जैसे उनके कुपुत्रा के बोझ से हवेली की नींवें लड़खड़ाने लगेंगी।

उसे यहां लाकर तो बापू और भी निश्ंचित हो गए। इतना पास बिठाकर तो बिलकुल ही भूल गए। क्यों नहीं सोचते कि वह इन चौहद्दियों, दीवारों और दालानों में क्या करे? यहां न संतू था, न जग्गी, न खेत, न कुएं, न मैदान, न बावड़ियां। यहां न पैर छपछपाने की छूट है, न सिंघाड़ों की छीना-झपटी, न रातोरात ईख की चोरी का आनंद। यहां भीतरी बरौठे से लगी एक कोठरी थी और बापूज़ो मालिक के कचहरी से लौटते ही चाहते कि किशना किशना न रहकर भाप बन जाए। तरुण बाबू उसके समवयस्क थेलगभग दो साल बड़े। उन्हें देखकर पहले-पहल वह ख़ूब उत्साहित हुआ था पर शीघ्र ही समझ में आ गया था कि वह समवयस्कता दूर से दीखती एक टकटकी भर है...एक मनाही ...एक पुख्ता बेदर्द दीवार और अब तक तो अपने परीक्षा-परिणामों से उसने उन्हें और भी नाराज़ कर दिया था। बस...एक मालकिन थीं...तख्त की चकाचक उजली चादर पर कलफदार साड़ी पहने बैठी वह पान की गिलौरियां उलटती-पलटती होतीं। उनकी चूड़ियां छमछम बजतीं और चेहरा दपदप चमकता। अपनी कोठरी से निकलकर दालान से जुड़े बरौठे की उं+ची दहलीज के पार वह झिझकता खड़ा होता। क्यों रे...वहां क्यों खड़ा है? आ जा अंदर, वह खुद ही पुचकार लेतीं। वह बहुत धीरे-धीरे आगे सरकता...दीवार के सहारे। ...वैसे बुलाने को न टाल सकने के कारण। क्यों रे, तुझे बोलना नहीं आता? वह सकपका जाता। करधनी के ऊपर के उनके गुदाले मांस पर गड़ी अपनी आंखें हटा लेता। गुलाबी साड़ी की प्रतिच्छाया की आंच में तपा हुआ उनका चेहरा...वह अवाक् रह जाता। वहां दिन-प्रतिदिन हड़ियल होती जाती सूखे तन-बदनवाली उसकी मां... इन्होंने ज़रूर कभी ध्यान से उसकी मां को नहीं देखा होगा। देखतीं तो ज़रूर कुछ करतीं। आखिर उसका गवर्नमेंट स्कूल में दाखिला इन्होंने ही करवाया था। बापू नहीं समझ सकते थे कि अपने नतीजे के दिन वह क्यों उनके आस- पास मंडरा रहा था...क्यों? बापू झिड़ककर उसे कोठरी में ठूंस ज़रूर गए थे, पर वह वहां बैठा नहीं रह सका। इस तरह नाकारा-निकम्मा सिध्द कर जाने में उस समय उसे कठिनाई पड़ रही थी...पीले-पीले नतीजे के कार्ड पर इतनी सारी लाल रेखाओं के रहते। मालकिन बड़ी अलमारी में बने ठाकुरद्वारे के सम्मुख बैठी घी में रुई की बाती भिगोती संध्या की पूजा का जुगाड़ कर रही थीं। उनका चेहरा प्रफुल्ल नहीं है, यह देखकर पहले तो वह भयभीत हुआ फिर... सुन रे!... एक उदास आवाज़ ने उसे टेरा, यहां आ...ले! मालकिन की बंद मुट्ठी उसकी मुट्ठी में खुल गई थी, सुना है, तू पहला पास हुआ है ...जा, जलेबी खा ले। उसका चेहरा दीप्त हो आया। हठात् उसने बढ़कर मालकिन के चरण छू लिये। मालकिन भर-सी आयीं, हां, जा जा! खुश रह...खूब, एक उसांस उसका पीछा करती रही। बाहर आकर उसने मुट्ठी खोली। उसमें दो रुपये का मुड़ा-तुड़ा नोट था। एक झनझनाहट-सी उसके भीतर दौड़ गई। यह पुरस्कार उसे मिला हैउसे! बापू के बीच-बचाव के बिना...सीधे मालकिन से...बापू सुनेंगे तो अवाक् रह जाएंगे। उनके आने तक वह जागता बैठा रहेगा। जलेबी खाने भी नहीं जाएगा। बापू आए तो बेहद घिरे हुए थे। मालिक ने दसवीं में फेल होने पर तरुण बाबू की धुनाई की थी। अपने और उसके भविष्य की अभी से दीखती आहटों की वास्तविकता खोलते हुए तुलना की थी, तुमसे तो अच्छा किशना है, लालटेन लेकर पढ़ता है, लेकिन फर्स्ट आया है।


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