यात्रा-मुक्त / राजी सेठ / पृष्ठ 5

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तो फिर उसे ही गोद ले लीजिए! धृष्ट निगाहों से मालिक को घूरते तरुण बाबू छत पर चढ़ गए। मालिक घायल हुए थेभीतर-बाहर दोनों। दुख, विषाद, ताप, क्रोध, चिंता...क्या कोई एक बात रही होगी मन में! बापू इसी सबको लादे-लादे भीतर आए। अब उसके लिए यह कोई नई बात नहीं थी। बापू हवेली की आंख से हंसते, हवेली की आंख से रोते हैं, जानता था। कोठरी में घुसकर कुरता खूंटी पर टांग बापू पड़ गए...गुड़ और पानी लिये बिना। इस अभ्यास का टूटना...? वह दीवार की टेक लगाकर ज़मीन पर बैठा थाप्रतीक्षा करता। पर बापू के चेहरे पर वह दूरी...नहीं, अब वह और प्रतीक्षा नहीं कर सकता था। बापू, देखो! क्या है? देखो तो पहले...मालकिन ने दिया है फर्स्ट आने का... एक गद्गद भाव से उसने नोट को बापू की आंखों के सामने लहरा दिया। बापू झटके से उठ बैठे, क्या? मालकिन ने दिया है? हां! मालकिन ने...खुद बुलाकर...जलेबी खाने के लिए... उनका चेहरा लौट आयाउसे साक्षात् सीधा देखता हुआ...उसके सामने बैठे होने को धारण करता हुआ। नहीं तो अब तक... बापू ने उसे पास खींच लिया, उसके सिर पर सरकता हुआ उनका हाथ गर्दन के पीछे के भाग से चलकर उसके कंधे पर टिक गया। उसे नया-सा लगा ...बिलकुल नया। उसकी गंध या पहचान उसके भीतर नहीं थी कहीं। वह विचलित हो गया। बापू ने उसे बांहों में भर लिया, तू देख रहा है न, तरुण बाबू की आदतों से मालिक को कितना क्लेश है। औलाद आदमी किस दिन के लिए पालता है... बापू फिर खो गए! 'किस दिन' के प्रसंग को छूते ही मालिक के साथ हवेली में जा खड़े हुए। बापू की जकड़ का इस तरह एकाएक शिथिल हो जाना उसे ख़ूब अखरा, पर वह क्षण-भर पहले के छाती भर स्पर्श को ही संजोता बैठा रह गया। इस भरे-पूरे क्षण में वह बापू की उस बेध्यानी को भूल गया और उस स्पर्श को तह करके भीतर कहीं संभालकर रख लिया। नहीं, वह अपने बापू को ऐसे किसी संताप में तपने नहीं देगा। औलाद की उपयोगिता पर प्रश्नचिद्द लगाने वाला मालिक नहीं बनने देगा। इसी खलबलाहट में उसे देर रात नींद आई थी। दिन चढ़े तक वह सोता रहा। शायद...और भी सोता रहता यदि बापू उसके चेहरे पर टकटकी लगाए उसे उठा न रहे होते, स्कूल को देर हो जाएगी बिटवा... वैसा दुलार? ...और बापू से? ...उस सुख को वह आंखें मींचे भोगता रहा। तेरे लिए दूध बांध दिया है...अब तेरी पढ़ाई बड़ी हो गई है न? ...चल, जल्दी उठ, मुझे जाना है। मालिक उठ गए हैं। यह पुल नया था। दो छोरों के बावजूद एक कमान के रिश्ते से सांझा। वह तो समझ ही नहीं पा रहा था कि उसे क्या नया-नया, भला-भला लग रहा था।

पता नहीं क्यों ऐसा हो गया था...पर हो गया था...। उसके और तरुण बाबू के बीच एक खामोश-सी होड़ छिड़ गई थी। जहां कोई संबंध नहीं था, वहां संबंध बनने लगा थाअाड़ा, तिरछा, काले कलुष के स्वभाव वाला। हार-जीत का गणित रास्ता काटने लग गया था। कोई तुलना नहीं थी...हो भी नहीं सकती थी। तरुण बाबू अंग्रेज़ी तर्ज क़े किसी मॉडल स्कूल में पढ़ते थे, वह सरकारी स्कूल में। उन्हें गाड़ी छोड़ने जाती थी, वह पैदल धूप में तपता जाता था। उन्हें टीचर घर पढ़ाने आते थे, वह लालटेन की रोशनी में...नहीं, कोई ऐसी जगह नहीं थी, जहां वह और तरुण बाबू एक-साथ खड़े हों, और तुला में पड़ा न्याय उसके हकष् में हो। हवेली की बातों को लेकर वह हमेशा बापू की आड़ में खड़े रहना चाहता है। फिर भी अकसर एक ठंडा क्रूर किस्म का आमोद उसकी शिराओं में बजने लगता है। बापू की पहुंच और पहचान से परे। बापू उसे देख पाएं तो निष्प्राण कर दें? ...छितरा दें...इसलिए वह भरसक बचता है। पूरे मनोयोग से पढ़ाई में लगा रहता है। जानता है, कोई और रास्ता नहीं है तरुण बाबू को पछाड़ने का...मात देने का। ज़रूरी है कि दत्ताचित्ता होकर, इधर-उधर देखे बिना उपलब्धियों के पहाड़ पर चढ़ता चला जाए और चोटी पर खड़ा होकर अपने को दूसरों के देखने के लिए छोड़ दे।

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