यात्रा-मुक्त / राजी सेठ / पृष्ठ 6
दसवीं में उसकी फिर फर्स्ट डिवीजन आई थी। विद्यालय की तरफष् से 'सर्वगुण संपन्न' विद्यार्थी का चमचमाता हुआ एक कप उसे पुरस्कार में दिया गया। आने वाले दो वर्षों के लिए वज़ीफा भी मिला। तरुण बाबू के हमेशा की तरह किसी 'अदृश्य यत्न' से नंबर बढ़ाए गए। बापू प्रसन्न होने की बजाय डर गए। हकलाने लगे। कप को उसके हाथ से छीनकर उन्होंने जाड़ों की गुदड़ी के नीचे ठूंस दिया। क्यों बापू? वह छिल गया। रहने दे...रखा रहने दे, वहीं। क्यों, बापू, क्यों? एक अंधड़ उसके भीतर उद्विग्न हो रहा था। बापू का चेहरा जैसे घाटी में उतरती धूप की परछाईं, ...नहीं, बेटा! यह सब किसी से बर्दाश्त नहीं होने का, कहकर वह तेज़ी से हवेली की ओर चल निकले। कोठरी के अंधेरे में वह खड़ा रह गयाअाहत। अकेला। बापू उसे खाना देने भी नहीं आए! शायद बचते रहे। महरी के हाथ खाना भेज दिया। उस शाम वह अकेला पीपल के नीचे बैठा बाहर के बड़े कुएं की चर्खी को निशाना बनाकर पत्थर मारता रहा और बंदरों को मुंह चिढ़ाता रहा। मालकिन को भी अपना कप दिखाने की उसकी इच्छा नहीं हुई...वहीं कहीं उसी गूदड़ के ढेर के नीचे पड़ी सिसकती रही। बापू क्यों नहीं समझते, इन सब बातों से कुछ नहीं होता? एक नफष्रत उसके भीतर गहरी होती है। अपना ही गला दबाकर दम तोड़ती बापू की खुशी उसके गले पर ऐसी बेरहम खरोंचे छोड़ जाती है जो सतत पड़पड़ाया करती हैं। बापू जिस चीज़ को ढांपते हैं, वह और उघड़ती है। जिसे मिटाना चाहते हैं, वह और गहरी उतरती जाती है। आखिर किस बात से डरते हैं बापू? अपने को मार सकने की पराकाष्ठा में से उगती पुनर्जन्म की संभावना से? ...लगता है, दासता की दलदल में पुश्तों से बैठे वह अपनी कोठरी में उगती उजास से डरते हैं। उतना-सा अपने को मिला हुआ अधिकार भी सह लेने की क्षमता उनके भीतर नहीं है। क्यों वह निचाई के चरम को अपनी पूरी उठान में पा लेना चाहते हैं? नहीं, ऐसे नहीं चल सकता...आज रात वह बापू से खुलकर बात करेगा। जो कुछ वह नहीं देखना चाहते, उसे समझाएगा। उनके पंगु हो चुके पैरों में ताकत भरेगा। बांह पकड़कर उन्हें इस आंगन के परे ले जाएगा, आत्मा की उस सीलन से परे। वह पड़ा-पड़ा प्रतीक्षा करता रहा। बापू ख़ासी देर से आए। कमरे में उनके घुसते ही उसने लालटेन की बत्ताी उकसा दीज़ताने के लिए कि वह अभी जाग रहा है। बापू ने घूरकर देखा पर कुछ बोले नहीं, बल्कि कुरता उतारे बिना दीवार के साथ धसककर बैठ गए, पसीना पोंछते हुए। क्या हुआ बापू? कुछ नहीं...टायर बदलने में पस्त हो गया। तरुण बाबू... तुम तरुण बाबू के साथ क्या करने गए थे? बापू की अधबीच ढांप-ढूंप को उसने उघाड़ा। कल दावत है उनके दोस्तों की...पास हुए हैं न? ...कुछ सामान लाना था। तुम्हें यह सब अच्छा लगता है, बापू? उसे पूरी आशा थी कि वह 'हां' कहेंगे, मालिक के प्रति अपनी सदाशयता की दुहाई देंगे, पर वह चुप रहे...थके-थके आहत। बापू का इस तरह अचानक अपने-आप उसकी पकड़ में आ जाना... बताओ न बापू! वह उस सिरे को छोड़ना नहीं चाहता था। अब क्या है...जिनगी कट गई...इस उमर में अब काहे का रोना... हम कहीं बाहर चले जाएं तो? कुछ देर खोये-खोये-से वह उसे टोहते रहे, नहीं रे...दिल के मरीज हैं मालिक...अब मैं उन्हें छोड़कर कहां जाउं+गा! और भी कोई सोचता है कि वह दिल के मरीज हैं? तभी तो...तरुण बाबू ही कुछ ढंग के होते तो... तुमने ठेका लिया है उनका? उन्हें... उन्हें चाकर ही चाहिए तो बहुतेरे मिलेंगे। यह कथन उसके मन में तड़फड़ाया पर अपने को रोक गया। चोट किसी और पर नहीं, बापू के मर्म पर पड़ती...चाकरी के खोल के नीचे छिपी उनकी धवलता पर। मालिक की चाकरी तक तो ठीक है बापू, पर तरुण बाबू? ...सोचो ज़रा, तुम्हारी उम्र का भी उसे कोई लिहाज़ नहीं। बापू गुम। चारपाई की पूरी लंबाई में अपने को तानकर कराहते-से। जाने उसे क्यों लगा कि उसके ठहर गए बचपन ने बापू को उस नरक में झोंक रखा है। हवेली अब कोई पहले वाला शीतल प्रवाह नहीं है जिसके किनारे बैठ सब अपने-अपने हिस्से की शीतलता पा लें...उसकी नींव में अंगारे धधकने लगे हैं, पर बापू हैं कि...उनका जुड़ाव दीवारों से नहीं, नींवों से है। वह उन्हीं हादसों से डरते हैं जो हवेली की नींवों को डोला सकते हैं और तरुण बाबू हैं कि दोनों हाथों से नींवों में अंगार भर रहे हैं। कुछ नहीं हो सकता था...बापू को यहां से निकाल कर ले जाने के सिवा...!