यात्रा-मुक्त / राजी सेठ / पृष्ठ 7
कल रात दिल का दौरा-सा पड़ा था मालिक को। कोई उत्तोजना नहीं थी उस समय। प्रकट क्लेश का कोई कारण भी नहीं। पहले अजीर्ण का वहम हुआ था, पर हींग के लेप, चूर्ण और तारपीन की सिंकाई के बाद भी कुछ नहीं बना तो डॉक्टर ने दिल के दौरे का निदान किया था। बापू लस्त-पस्त थे, टूटे हुए... यह तो और भी चिंता की बात है। घुन लग गया है मालिक के मन में। तीन महीने आराम का डॉक्टरी आदेश। तरुण बाबू को जैसे किसी ने पंख काटकर घर में डाल दिया हो। खाट से लगे पिता...आगतों का तांता...काग़ज़- पत्तार...उन्हें पढ़ाई चौपट करने का बहाना मिल गया। आने-जाने वालों को उन्होंने जल्दी ही ज़ाहिर करना शुरू कर दिया था कि वह इस भाईचारे के कृतज्ञ हैं, परंतु इसके बिना भी चल सकता है। उन्हें और भी ढेरों काम होते हैं, आदि- आदि। इस तरह सबके हाथ बंटती शाम उन्होंने समेट ली थी और दोस्तों को महफिल जमाने के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था। बापू को जैसे किसी ने चारों छोरों से बांध दिया हो, वही टिके रहते हर समय मालिक के आगे-पीछे। मालकिन की अनभ्यस्त हड़बड़ीभरी चिंता को पूरे दिन धीरज से थामे रहते पर कोठरी में आते ही उस आच्छादन को अपने पर घिर आने देते। उस चिंता की गूंजें फिर सारा दिन दीवारों से टकराया करतीं। देह में दु:ख हो तो आदमी पस्त पड़ा रहता है पर मालिक? ...उनकी देह में कोई घाव नहीं है। उनका मन जख्मी है, मन...समझते हो बिटवा, और ऊपर से तरुण बाबू...सब आने-जाने वालों को टरका दिया...तनिक उनका मन बहलता... वह पहले से ही भन्नाया बैठा था। मंगल ड्राइवर ने उसे बताया था कि कल रात तरुण बाबू को महफिष्ल से अलग ले जाकर जिरह-मिन्नत, समझाई- बुझाई में लगे थे बापू कि तरुण बाबू ने उन पर हाथ उठाया था। मंगल बीच में न पड़ा होता तो... उसे मालिक के प्रति चिंता की इन गुजलकों में कोई रस नहीं...कोई रुचि नहीं। रुचि है बापू में...बापू की मुक्ति में, जो प्रति क्षण जटिल होती जाती थी। उसने बापू की बात का कोई उत्तार न दिया। कुछ उत्तार न देने से बापू ने बात आगे न बढ़ाई। अपने को खाट के हवाले कर दिया। वह मन-ही-मन नाराज़ था, अत: पलटकर देखने की ज़हमत नहीं उठायी। लालटेन की रोशनी में सिर झुकाकर पढ़ने का नाटक करता रहा। 'गट-गट'उन्होंने सुराही से पानी पलटा। पानी पीकर वह वहीं पैरों के बल बैठे रहे। उस तरह उनका बेमतलब बैठे रहना उसे जाने कैसा लगा। मांग क्यों नहीं लिया पानी? उलाहना-सा देते हुए उसने खामोशी को छेदा। बापू गुम रहे। उठे और लेट रहेअांखें खोले। एक रूठापन चेहरे पर जमकर बैठा। वह जाने क्यों दहल गया! कौन किससे नाराज़ है और क्यों? पैर दाब दूं बापू? अपने होने को उसने महसूस कराना चाहा और उत्तार पाए बिना अपनी हथेलियों को उनकी पिंडलियों पर टिका दिया। नहीं...नऽऽहीं... एक बहुत कमज़ोर-सी मनाही उधर से उठी फिर निष्प्राण हो रही। पहली बार लगा, बापू के खून में बहती शांति और आराम को वह स्पर्श कर पा रहा हैदूर तक। बापू तक पहुंच पा रहा हैसीधे। और बापू भी अपने को हवाले किए हैंउसके, अपने बेटे के।
तब से उसके भीतर कुछ तय-सा हो गया। बापू की भाग-दौड़ को उसने अपने सिर पर ले लिया। उनकी तरह सारा-सारा दिन मालिक के कक्ष में जाकर तो नहीं बैठता था, पर असावधान भी नहीं रहता था। फल, सब्ज़ी, दवा-दारू, डॉक्टरसब काम पहल करके करता था और बापू को उस भाग-दौड़ से बचा लेता था। उनका वैसा खटना...धूप में भागते-फिरना...एक पैर घर, एक बाज़ार में रखे रहना उसे अखरता। अच्छा लगता, जब बापू उस सुख को भोगते दीखते ...रीझ-रीझकर... उन्हें भी पता नहीं क्या हुआ था! किसी बनैले पशु ने अपने सींग उनकी पसलियों में गड़ा दिए थे। उन्हें अब खुद दरारें दीखती थीं। मालिक चित, मालकिन चिंतित, तरुण बाबू आंगन के बीचोबीच एक लठैत की तरह खड़े। एक पल न लगे और लहूलुहान कर दें...रिश्तों और बातों की नज़ाकत को भूलकर। अब उनके पैर दौड़ते थे बार-बारक़ोठरी की तरफ। लालटेन की रोशनी में सिर झुकाए अपना भविष्य बांचते छोरे की तरफ। एकाध फल या मिठाई का ठौर हाथ पर रखो तो घूरेगा...'कब गए थे?' ...'क्यों गए थे?' ...'जानते तो हो तुम्हारी ग़ैर-मौजदूगी में यहां भूचाल आ जाता है। वह कब इन बातों की खबर रखता है। ...कैसे रख पाता है?