यात्रा-मुक्त / राजी सेठ / पृष्ठ 8

Gadya Kosh से
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रात लेटते हैं तो उसके हाथ पिंडलियों को आ पकड़ते हैं। पहले 'न-नुकर' करते थे आदत के बंधे। यह सब उन्होंने बांटा है, कभी पाया नहीं...अब चुप रहते हैं। पिंडलियों और हाथों के बीच गायब होती जाती पीर की लहरों को महसूसते सो जाते हैं। बीच रात अंधेरे को घूरती एक टकटकी जाग उठती है। कितना कुछ पीछे से दौड़ता आता एक गोला-सा बनकर छाती में गड़ने लगता है...क्या किया उन्होंने सारी उमिर? जिनगी गला दी। किशना की मां भूखी-प्यासी गई। न उसकी देह देखी, न जीव। तीन-तीन बच्चे अधबने गिरे...वह कहां चेते? क्या सोचा करती होगी मरने से पहले? दूर पड़ गई बातें फड़फड़ाकर आती हैं और काटती चली जाती हैं अारी की तरह। अब तक क्या किया...मालिक की देहरी पर सिर झुका तो झुका ही रहा। सो तो ठीक, इसका क्लेश मन में नहीं है...पर देहरी और सिर के बीच एक काठ का शहतीर भी है, इस पर उनका ध्यान क्यों नहीं गया...क्यों नहीं!

महरी के लड़के को कोठरी के दरवाज़े के बीचोबीच देख ही उसका माथा ठनक गया। वह लंबी कमीज से अपनी बिना नेकर की टांगें ढांपे वहां बेफिक्र-सा बैठा था और बापू छटपटा रहे थे बेतरह। दोपहर, पानी की भरी बाल्टी हाथ में लिये कुएं की चीकट पर से पैर फिसल गया था उनका। हल्दी-चूने का लेप...लोगड़ की सेंक...तेल मालिश...कुछ काम नहीं आया। अस्पताल दिखाने गया तो भरती कर लिया गया, ज़रूरी था। दायीं जांघ की हड्डी टूटी थी और बायां घुटना चूर हुआ था। ऑपरेशन भी करना पड़ सकता है पर उसका फैसला एक बार का पलस्तर खुलने के बाद होगा, डॉक्टर ने कहा था। एक-दो दिन तो हवेली को बापू का न होना ख़ूब अखरा। अब तक तो वहां के ज़र-ज़मीन को भी उनके तलुवों की आदत पड़ गई थी...पर जल्दी ही यह आसन उसे सौंप दिया गया। बापू न होंगे तो उसे जुतना पड़ेगा, वह जानता था, फिर भी हर समय बापू की तरह घर के आंगन में हिरते-फिरते रहने का हौसला उसमें नहीं। कोठरी में बना रहता और बुलाए जाने पर काम में से खींच लिये जाने का अप्रिय भाव ओढ़ता हुआ हाज़िर होता। मालकिन अनदेखा कर देती। पर तरुण बाबू...अब कोई बचाव नहीं था। अब किशना उनके ठीक सामने थाअपनी निरीहता में भी उनकी अयोग्यता को प्रखर से प्रखरतम कर देने वाला दंश।

घर से चला तो आच्छन्न था। कपिलदेव की बल्लेबाजी के चित्राों के तक़ाज़ों के साथ लिथड़ती आती हिंसा की झुलसन। उसे लगा था कि गई रात इतना समय व्यर्थ न जाता तो टेस्ट में और अच्छे नंबर आते। अस्पताल की ओर पैर रखते ही वह सारा क्षोभ तरोताज़ा हो आया। बापू और हवेली...उसके भीतर कहीं कुछ गड्डमड्ड हो जाता है। वहां लपलपाती हिंसा के लिए दंड दे सकने का एकाधिकार यहां बापू के सामने आकर एकाएक उसके हाथ लग जाता है, पर बापू की इतनी प्रफुल्ल मुद्रा देखी तो गुम हो रहा। वह उसे असाधारण उत्साह से भरे लगे। पिछले दो-तीन दिन तो नीम-बेहोशी और हड्डियां बिठाने की पीड़ा में लस्त-पस्त हुए रहे। सुनो बिटुवा, उनका उत्साह अपने से बाहर बह रहा था... यह जो चार नंबर का मरीज है न, इनका मामला तीन साल से कोर्ट में पड़ा है। मैंने कहा, तुम आओगे तो सारा काग़ज़-पत्तार कर दोगे... बापू ऐसे कह रहे थे जैसे वह कोई विद्यार्थी न होकर वकील हो और दुनिया में न्याय देने का एकाधिकार उसका हो... ऐसा गर्व से दपदपाता चेहरा...उसका तनाव छूमंतर हो गया। वह स्टूल पर बैठ गया...बापू की दो अलग-अलग दिशाओं में घूमती आंखों को देखता। एक आंख उसको देखती थी, दूसरी उसके होने के असर को दूसरों पर। बहुत-बहुत भला लगा उसे...बापू का उन छोरों से परे निकल आना, नहीं तो इन सब दिनों वह एक उसी सवाल को हाथ में थामे मिलते थे... मालिक कैसे हैं? उनसे मिलकर आए? हां! मालकिन से? उनसे भी...! कुछ कहा? उनका चेहरा एक टकटकी बन जाता। नहीं! पहले वह झड़प से सच कह देता था, पर कितनी जल्दी बापू की आंखें धुआं-धुआं हो जातीं, चेहरा राख-सना! बाद में वह खुद उस चेहरे के सामने से डरने लगा। तब तक तो बापू ने भी अपने जिज्ञासु हौसले को अपनी जेब में रखना सीख लिया था पर वह नहीं चाहता था कि अभागे मालिक की तरह उसके बापू का मन घायल होता रहे। अगले दिन वह आते समय अपनी जेब से आधा पाव अंगूर ले आया। बात चलाकर बोला, आज मालिक तुम्हें पूछ रहे थे। बापू खिल आए। उसके हाथ का लिफाफा झपटकर बोले, मालकिन ने भेजा होगा? वह चुप रहा। एक-एक अंगूर बापू ऐसे खाने बैठे जैसे दाने-दाने में अमृत- घट संचित हो। वह परितृप्ति उसे भीतर कहीं छील गई। हवेली से आए झोंकों के इतने आश्रित बापू? उस स्थिति को उसने छितरा देना चाहा। तड़पकर बोला, यह मैं लाया हूं तुम्हारे लिए, और उस डोर को तोड़ दिया। अस्पताल में यह जो बिस्तर भर स्वतंत्राता थी और उन दोनों के बीच का नरम-नरम आलोक, उसे वह संचित रखना चाहता था। हथेलियों की आड़ देकर ...चाहे हथेलियां झुलस ही क्यों न जाएं। बापू यहां आराम में थे। दर्द की घड़ियों के अलावा परितृप्त। रोटी मिलती थी...फुर्सत और गप्प। आसपास के रोगियों के बीच अपनी उम्र की अधेड़ाई से पाई आधा गज़ उं+चाई। शाम तक तो उनके पास बातों की एक पूरी पोटली जमा हो जाया करती थी जिसे वह उसके आते ही दस्तख़ान की तरह बिछा देने को आतुर मिलते। अच्छा लगता था उसे। बापू हवेली से कटकर कितना मुक्त हो गए थे! काली चीकट से फिसल कर कहीं और पहुंच गए थेमनुष्यों, संबंधों, दुखों-दर्दों में अचूक तरीके से लप- लपाती जीवन की लालसा के बीचोबीच। कितना अचंभा...कितनी ललक...नई चीज़ों के रू-ब-रू होने का कितना लबालब आनंद...हर समय चाकरी का टोकरा उठाए रहने वाले बापू को वह कितने नए चेहरों में देख रहा था। साथ वाली खाट पर पड़े युवक को पिता द्वारा खिलाने-पिलाने का दृश्य देख वह भीग-भीग आते। रोज़-रोज़ चर्चा करते। चर्चा उनके कौन-से हिस्से को सेंकती है, जानता नहीं था क्या?

अस्पताल पहुंचा तो घिरा हुआ थामाथे के दायीं ओर छोटा-सा घाव। आंखें तनाव से बोझिल। चाहता तो टाल दे सकता था पर ज़रूरत नहीं समझी। क्यों रे? बापू ने जैसे ही खखोला उसने उगल दिया। तरुण बाबू से जो हुआ, वह तो बताया ही, जो नहीं हुआ वह भी बताया। तुम्हें नहीं मालूम, ऐसे अटेंडेंट बनाकर क्यों ले जाना चाहते थे मुझे। गोल्फ खेलते पीछे-पीछे दौड़ता आदमी उन्हें पालतू लगता हैउनका कुत्ताा! तुमने क्या कहा? कहना क्या था। मैंने कहा, घर में मालिक पड़े हैं, अस्पताल में तुम पड़े हो, मैं नहीं जाउं+गा। फिर? बोले, 'अस्पताल में सैकड़ों लोग पड़े हैं, मर तो नहीं जाते। ...तरुण बाबू! मैंने कड़ककर कहा, ...छोटे मालिक कह। वह चिल्लाए...और मेरे माथे पर ऐश-ट्रे दे मारी। हूंऽऽ। बापू सोच में धंस गए, मालकिन ने कुछ कहा? कुछ नहीं, मुझे इशारा करके वहां से चले जाने को कहा। मैं कहता हूं, तू उसके मुंह क्यों लगता है? मैं मुंह लगता हूं...? ...अभी तक तो नहीं लगता था...पर अब लगूंगा ...ऐसी दूंगा बच्चू को... नहीं-नहीं, वह भयार्त हो आए, तुम तो जानते हो, मालकिन, मालिक दोनों उससे बचते हैं, फिर तेरी क्या बिसात! जानता हूं, बचते हैं...क्योंकि बच सकते हैं। बापू का चेहरा मलिन हो आया, कातर डरा हुआ, न, बिटवा, उनके लिए सारी जिनगी खपा दी, कभी पलटकर नहीं देखा...अब बुढ़ापे में... तुमने ज़िंदगी खपा दी, पर मैं... क्षण भर वह चुप हो रहे..., हां, किशना, तुम...मेरा क्या है, तुम्हारी ही तो बात है...तू जा...कहीं भी निकल जा...मैं तुम्हें नहीं रोकूंगा। तुम्हें कुछ भी नहीं कहूंगा। तू चला जा...मैं सच कहता हूं, कहीं भी चला जा...नौकरी ही करनी है तो कहीं कर लेना...अपनी आंखों से...देख-समझकर। जा, गांव में चला जा, ताऊ के पास...बुरे हैं तो क्या...अपना मारेगा तो छांह में तो फेंकेगा...तू यह सब नहीं सह सकेगा...वह छाती दूसरी थी...तेरी मां का मरना सह गई...तेरा खूंटे से बंधना सह गई...नहीं, नहीं...सोच किशना सोच, जा यहीं से कहीं निकल जा... वह आपे में नहीं थे। एक विक्षिप्त उत्तोजना उनके सिर चढ़कर बोल रही थी। बस...बस करो बापू! वह घबरा गया, कहां चला जाउं+...पूंजी रखी है मेरे पास? ...कैसे चला जाउं+...तुम्हें छोड़कर...तुम तो सारी उम्र मालिक से किनारा नहीं कर सके और मैं तुम्हें छोड़ जाउं+...अपने बाप को? ...ऐसी हालत में...तुमने इतना नीच, इतना नालायक समझा है मुझे... कहकर वह बाहर लपक लिया। उसकी उखड़ी भर्राई, आवाज़ सारी सांझ उनका पीछा करती रही।

एक आंधी उनके भीतर उफन रही है। इन सब दिनों का सुख-चैन किसी ने मुट्ठी में भींच दिया है। हाथ माथे पर जाता है, जैसे वह रुई के फाहे के नीचे लपलपाता घाव किशना के नहीं उनके माथे पर आ चिपका हो। टांग ऊपर स्टैंड से बंधी है...पीठ में करवट न ले सकने की बेबसी...वह उन्हें याद नहीं रहता। यह रुपया भर माथे का घाव सुलगता है...लपटें छोड़ता है... मन में चैन नहीं। मन हवेली में बिंधा हुआ...किशना...तरुण बाबू...मालकिन...मालिक। एक-एक चेहरा...एक-एक दृश्य साफष् दिखता है उन्हें यहां लेटे-लेटे। कौन किससे क्या चाहता है...कौन किससे कैसा बर्ताव करता है। कौन मारता है...कौन सहता है। वे सबके खून का रंग जानते हैं...नस-नस पहचानते हैं। हवेली की दीवारें भी उनसे बोलती हैं। अब वहां से कुछ नहीं मिलने का ...ईंटें-ही-ईंटें...वार-ही-वार...दीवारों का पलस्तर उधड़ रहा है। सब कुछ भरभरा- कर गिरेगा...अब दबेगा किशना...सिर्फ किशना...उन्होंने उसे खूंटे से बांध रखा है...खुद खाट पर पड़े आराम भोगते हैं। खाते हैं...पीते हैं, बतियाते हैं...वह घर में बैठा चोटें खाता है। कराहें उठती हैं, मन की दीवारों पर बजती हैं धमाधम। कुछ भी तो नहीं पता, वे कब खाट से उठेंगे...उठेंगे तो क्या पहले जैसी भाग-दौड़ हो पाएगी...न हो सकेगी तो कौन उन्हें ढोएगा...हवेली में लपकती आती अंधी आग। किसे जलाएगी...किसे बचाएगी। वह कुछ नहीं कर पाएंगे ...खाट पर पड़े-पड़े किशना के माथे की चोटें देखा करेंगे। तू चला क्यों नहीं जाता किशना...भाग क्यों नहीं जाता? तू कहता है, तू मुझे छोड़कर कैसे जा सकता है...हां, कैसे जा सकता है... पर...पर मैं तो तुम्हें छोड़कर जा सकता हूं...जा सकता हूं किशना...सच कहता हूं, मैं जा सकता हूं बेखटके...संतोष के साथ...शांति के साथ...कपड़ा इधर से काटो या उधर से...क्या फर्ष्कष् पड़ता है! दोनों छोर अलग हो जाते हैं। नहीं किशना, नहीं...यह मरना नहीं, मुक्ति है। मैं बीच से निकल गया तो सब कड़ियां अलग हो जाएंगी। एक दरवाज़ा बंद हो जाएगा। एक सिलसिला खत्म हो जाएगा... अपने को वह उस भूमिका में सोचने लगते हैंक्या हो सकता है? यहां बंधे-बंधे...जमादार? ...फिनायल? ...चाकू? ...गले या कलाई की नसें...देखा जाएगा, फिलहाल तो किशना... एक गद्गद उत्तोजना उनके मन में लहरा गई। वह कुछ कर पाएंगे। किशना को उसका भविष्य दे पाएंगे। उन्होंने उसके लिए कुछ भी नहीं किया। न देखा, न भाला, न दुलारा, न संवारा...मालिक की पीठ पीछे उन्हें ढूंढ़ता-ढूंढ़ता अभागा इसी तरह बड़ा हो गया। ...देखा जाए तो उनके पास देने को था ही क्या...एक अपना आप और दूसरा पसीने की गंध से लिखा हुआ गुलामी का इतिहास। इन दोनों में से एक ही चीज़ है जो वे किशना को दे सकते हैं...कहीं तू भी तो इसे आत्महत्या नहीं समझेगा...नहीं समझेगा, न बचवा। इस हत्या का पाप मुझे नहीं लगने का...नहीं, नहीं लगने का मेरे बचवा...तुम जान जाओगे ...ज़रूर जान जाओगे। ख़ूब सारा मोह मेरे मन में है...खूब, खूब। मोह-माया- ममता न होती तो यह सब क्यों... राहत-सी हुई। जितना सोचते थे, उतनी ही चैन पड़ती थी। भय, ताप, बेचैनी कुछ भी नहीं। उतने मजबूर नहीं हैं जितना अपने-आपको लगते थे...कुछ कर रहे हैं...कुछ तो कर पा रहे हैं!

मन कोमल है...हलका है...प्रतीक्षा में है। किशना आया तो माथे की चोट देखकर इरादे फिर से हरे हो गए भीतर। आ जा यहां! उन्होंने उसे प्यासी लालसा से देखा। खाट पर बिठाया। पीठ पर हाथ फेरा, फिर हाथ थामे लेटे रहे। किशना इन सब स्पर्शों-संवादों से परे था, बोला, बापू, मालकिन ने बुलाया था कल रात...बहुत देर बातें करती रहीं... वह हैं कि कुछ भी सुन नहीं रहे हैं...बस देख रहे हैं उसे। जी में आ रहा है...बुक्का मारकर रो पड़ें...उसे छाती से बांध लें और वैसे बंधे-बंधे अपने मरने की कामना करें। उस विकट इच्छा को लेकर मरें तो फिर उसी में जनमेंगे...आगे- आगे तक यह हिसाब चलता रहेगा... सुना नहीं बापू? हां, क्या कहती थीं मालकिन? वह चकित है। वह पहले वाली हवेली के नाम से चट उठ बैठने की बापू की उतावली कहां गई? बापू कहां खोये हैं? सारे रास्ते वह क्या कुछ सोचता आया था! यह सब बातें कितनी नई हैं...बापू की आंखों में आंसू ला देने वाली। मालकिन ने कहा थातरुण बाबू ने ग़लत किया है...तुम्हें मारा है...वह मूर्ख है, अल्हड़ है...ठीक हो जाएगा...न हो जाएगा तो सब तुम्हारे बापू की तरह किस्मत वाले तो नहीं होते...तू सयाना है, समझदार है किशना...भूल जा। तुझ पर इस समय सबका भार है। मेरा...मालिक का...तुम्हारा...घर का। कहती थीं, वह सब जानती हैं...समझती हैं। कॉलेज की फीस मुंशी के हाथ भिजवा दी है...कुछ दिन छुट्टी की अर्जी भी दिलवा दी है। कहती थीं...उन्हें मुझ पर भरोसा है...तरुण बाबू से भी ज्यादा भरोसा... तुम सुन क्यों नहीं रहे बापू? वह झल्लाया। 'सुन रहा हूं...सिर्फ तुम्हें ही सुन रहा हूं, किशना। मालकिन ने कहा, उन्हें मुझ पर बहुत भरोसा है...तरुण बाबू से भी ज्यादा...तुम्हारे बाद मुझ पर...सिर्फ मुझ पर... तुम क्या सोचते हो? 'सोचूंगा क्या...भरोसा है तो ठीक है। पर मैं सच कहता हूं, बापू, मैं इस ममता-वमता के चक्कर में नहीं आने वाला। वह मुझे बांध रही हैं तुम्हारी तरह। मैं नहीं बंधने वाला। तुम्हारे लिए मैं यहां बैठा हूं...सिर्फ तुम्हारे लिए...तुम जब तक चंगे नहीं हो जाते, तब तक बैठा हूं...। जो कहोगे, करूंगा, जैसे रखेंगे रहूंगा, पर यह जान लो, मैं तुम्हें उस जालिम के हाथ नहीं छोड़ने का...तुम्हें साथ लेकर जाउं+गा...तुमने अब तक मुझे बांधकर रखा है, मैं अब तुम्हें बांधकर रखूंगा...छोडूंग़ा नहीं...चलोगे न बापू? ...तुमने आज तक कभी मेरी बात नहीं मानी...कभी मेरा मन नहीं रखा...इस बार...इस बार... उन्होंने किशना का हाथ छाती पर रख रखा था। होठ फड़फड़ा रहे थे। और बंद आंखों की कोरों से पानी चलता चला आ रहा था, छलाछल।


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