ये दिन क्या आए / माया का मालकौंस / सुशोभित

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ये दिन क्या आए
सुशोभित


‘वहाँ मन बावरा / आज उड़ चला / जहाँ पर है गगन सलोना साँवला / जा के वहीं रख दे / कहीं मन रंगों में खोल के / सपने ये अनमोल से/ ये दिन क्या आए...'

मुकेश ने सलिल चौधुरी के लिए 'जागते रहो' में गाया, 'मधुमती' में गाया, 'आनंद' में गाया। दोनों के बीच यह एक लंबी, रचनात्मक सहभागिता रही, आपसदारी रही। दो विराट प्रतिभाएँ, सरलमना और अपने निज के प्रति अपनी प्रतिज्ञाओं पर अडिग। और तब, अपने जीवन की संध्यावेला में मुकेश ने सलिल दा के लिए फ़िल्म 'छोटी-सी बात' का यह गीत गाया । अपने सुपरिचित खरजदार स्वर के साथ, गहरी पाटदार आवाज़ में, मुकेश ने गाढ़ी रंगत का यह गीत गाया है। गीत शांत रस का है, जिसमें ज्यूँ एक दाह की आंच । सुख के दंश की (जी हाँ, दंश सुख का भी होता है) प्रतीति उसमें ज्यूँ गहरे घुल-मिली हो ।

इस दौरान, परदे पर कॉमिक क़िस्म के दृश्य चलते रहते हैं : रेस्तरां में भोज, पिंग-पॉन्ग का मुक़ाबला, पीले स्कूटर की दोहरी सवारी । यह बासु चटर्जी का मध्यमार्गी-मध्यवर्गी सिनेमा है। अमोल पालेकर, विद्या सिन्हा, असरानी और अशोक कुमार के हँसते - मुस्कराते चेहरे हमें नज़र आते हैं । परदे पर हो रही ये हलचलें हमें अपने में इतनी प्री- ऑक्यूपाई कर सकती हैं कि बहुत मुमकिन है हम इस गीत को पूरे समय चूकते रहें । या अगर गीत की लय को पकड़ भी लें तो उसके अंतर्भाव को चूक जाएँ ।

‘ये दिन क्या आए / लगे फूल हँसने / देखो बसंती बसंती / होने लगे मेरे सपने।'

योगेश के लिखे इस गीत में एक अनूठा ताप है, ताप की तृषा है, जिसे सलिल दा की अनुकूल संगीत - योजना ( जो यहाँ जैज़ संगीत की करुणार्त ऊष्णता के अनुरूप है) निरंतर रेखांकित करती रहती है । मन के कैनवास पर गाढ़े भूरे-धूसर रंगों का एक अमूर्तन उभरता है । साँझ की ललाई ब्रश में लेकर किसी ने कुछ लकीरें ज्यूँ खींची हों : संध्या के पटल पर तूलिकाघातों का तन्मय अनुक्रम । दूर क्षितिज पर जलते हुए खेत अब देर तक दहकने - सुलगने के बाद ज्यूँ राख में बदलते जा रहे हैं। पाखियों की एक पंक्ति आकाश के अनंत नील में बिला रही हो । जल में स्याही की बूँद जैसे फैलती है, वैसे ही परिवेश में तिमिर का दायरा गहरा रहा हो। और हमारा मन जैसे एक नौका हो, दूर दिशाओं में गुम, तट पर विकल खड़े हम हठात उसे लहरों पर डूबते-उतराते देखते हैं, और तब हमें लगता है कि हम उससे कितने अपरिचित हैं, अनभिज्ञ हैं, अपने ही मन से, कि उसकी डूब की भाषा भी हमारी अंगुलियों के पोरों पर नहीं टिकती, कि उसके भी हम साखी भर ही, कि उसे थाम तक नहीं सकते ताकि दिलासा भर ही दे सकें ख़ुद को, लंबी दोपहरियों के गहरे दुःखों में।

कुएँ में मिट्टी का फूटा घड़ा ज्यूँ डूबा जाता हो, ऐसा उन्मन मन, ऐसा मृण्मय मन, ऐसा उचटा मन।

यह मुकेश के गहन - गम्भीर स्वर का ही सामर्थ्य है, यश है, जो महज़ चंद मिनटों के गीत में हमारे भीतर इतने संसार रच दे, और मिटा दे|

कितना मार्मिक है एक महान गायक के स्वरों का यह सूर्यास्त ! उसकी उत्कटता का यह एक अंतिम स्मारक !