ये रात भीगी-भीगी / माया का मालकौंस / सुशोभित
सुशोभित
'इठलाती हवा / नीलम का गगन / कलियों पे ये बेहोशी की नमी /
ऐसे में भी क्यूँ / बेचैन है दिल / जीवन में न जाने क्या है कमी।'
फ़िल्म ‘चोरी-चोरी’ का यह मशहूर दोगाना है । लता और मन्ना। लता के कंठ में जैसे राग का बिहाग है । मन्ना के कंठ में जैसे बैराग का बसेरा है । लता के स्वर को हताशाओं और मायूसियों का जैसे पता नहीं, मन्ना के स्वर को आशाओं और उम्मीदों की मानो ख़बर नहीं । ( बक़ौल साहिर, 'मुझे यक़ीन के हम अब कभी न बिछड़ेंगे / तुम्हें गुमान के हम मिलके भी पराए हैं ।") ये दोनों विवादी-स्वर मिलें तो करिश्मा तो होना ही है ।
कंठस्वरों का अपना एक निजी व्यक्तित्व होता है । जब ये स्वतंत्र व्यक्तित्व स्वयं को पहले ही ख़ुदमुख़्तार किन्हीं दो शख़्सियतों - यहाँ पर, राज कपूर और नरगिस–पर ‘सुपरइम्पोज़' करते हैं, तो एस्थेटिकली, हम ख़ुद को अजीब लेयर्स और एवेन्यूज़ के बीच फंसा हुआ पाते हैं। बात, लेकिन यहाँ ख़त्म नहीं हो जाती । क्योंकि हमारा पाला शंकर-जयकिशन के ग्रैंड ऑर्केस्ट्रा से पड़ा है, जिसे शैलेंद्र की निर्वेदमूलक प्रगीतात्मकता को एक झीना बाना पहनाना है, एक पश्मीना, जो यूँ तो क़ाएनात के सबसे बड़े राज़ को भी छिपा ले जाए, लेकिन धड़कनों की ज़रा-सी करवट को नुमायाँ होने से रोक भी न सके।
हस्बेमामूल यह कि जब हमारा साबका इस किस्म के टैलेंट वाली एक टीम वर्क से पड़ता है, तो हम अश- अश कर उठते हैं, अनेक कूचों में अपने हिस्से की गुमी हुई चाँदनी की तलाश करते हुए ।
परदे पर राज और नरगिस हैं । फ़िल्म में, ये दो किरदार अपनी-अपनी नियतियों के अनुगामी हैं, अपने-अपने स्पेस में धँसे हुए हैं, फिर भी, कुछ ऐसा हुआ है कि सहसा चंद लमहों, चंद रोज़ के लिए वे खुद को एक साझा स्पेस में पाते हैं । इस स्पेस को वे कैसे डिफ़ाइन करें ? क्या नाम दें ? क्या कहकर पुकारें ? यह जो कि एक अनक्लेम्ड टेरिटरी है, जिस पर किसी के दस्तख़त नहीं । उनकी राहें जुदा-जुदा हैं, मुख़्तलिफ़ है, जिसमें यह मुख़्तसर - सा लम्हा है, जिसे वे एक-दूसरे से साझा कर रहे हैं, अनमने-से, अधूरे - से, फिर भी जैसे एक मायने में शरीक़े - हयात । एक नदी-नाव संयोग है, सृष्टि के सभी संयोगों की भाँति, जो उन्हें साथ ले आया है, और जब तक वे उस पार नहीं लगते, तब तक मंझधार ही किनारा है । लेकिन, पानी पर लिखी इबारत किसे याद रहती है, कौन याद रखता है? बक़ौल गुलज़ार : 'पानियों में बह रहे हैं कई किनारे टूटे हुए / रास्तों में मिल गए हैं सभी सहारे छूटे हुए ।' ये इस भावदशा की अलग-अलग व्याख्याएँ हैं, जो इस गीत के भीतर सूत की रस्सी की तरह खुलती हैं।
इस पूरी द्वैधाग्रस्त सिचुएशन को मानो चींथता हुआ, चीरता हुआ शैलेंद्र का यह गीत है।
शैलेंद्र के बैरागी बोल हैं : 'ऐसे में कहीं क्या कोई नहीं / भूले से जो हमको याद करे / इक हल्की-सी मुस्कान से जो / सपनों का जहाँ आबाद करे ? ये रात भीगी भीगी / ये मस्त फ़िज़ाएँ / उट्ठा धीरे-धीरे वो चाँद प्यारा - प्यारा ।'
शैलेंद्र हमेशा राग के बीच में विराग को लक्ष्य करते हैं, सुख के भीतर दंश को चीन्हते हैं, वे दुनिया - फ़ानी की विवश - चेतना के अटूट गीतकार हैं और रागात्मकता के तन्मय क्षणों में भी उनकी नज़र बिछोह के, संयोग के भीतर वियोग के महान आस्तित्विक नियम पर टिकी रहती है । तिस पर, एसजे का भव्य ऑर्केस्ट्रा है, नॉक्चर्नल मौसम गढ़ता, रात के इशारे बुनता हुआ, जिसमें साँस की लय भी तारों की टिमटिमाहट के साथ सिहरती है और हमारा जी करता है कि पतले पनीले उजाले से ख़ूब बातें करें, चाँदनी को ओढ़ें, तिमिर के नशे को अपनी धमनियों में घुलने दें और ख़ुद एक पारदर्शी नौका बन जाएँ, हवा में तैरती हुई ।
यह कॉलरिज की कविताओं से निकला हुआ एथॉस है, जिसे एसजे का संगीत यहाँ पर सजीव - साकार कर देता है । 'फ्रॉस्ट एट मिडनाइट ।' अर्धरात्रि में हिमपात। आकांक्षा पर अन्यमनस्कता का पाला । और रात के स्वप्निल अवगुंठन को चीरता हुआ लता-स्वर है, टेरता हुआ, डाकता हुआ, हाँकता हुआ, पुकारता-बुलाता-आवाहन करता वह अपूर्व-अनिर्वचनीय स्वर । तिस पर मन्ना की मरघटी आवाज़ है। और दो एकांत हैं। एक राज का, दूसरा नरगिस का । दो एकांत मिलकर एक बड़ा एकांत बन जाते हैं, और तब यह बड़ा एकांत एक तीसरा किरदार होता है, दो के बीच हमेशा मौजूद |
यह गीत इन मायनों में मक़बूल है, कि वह उस एक किरदार को, तनहाई के उस तीसरे आयाम को, उन दो लोगों के ऐन बीच में ला खड़ा करने में और हमें उसे सजीव दिखाने में क़ामयाब हो जाता है । उनके रास्ते अलग हैं, लेकिन वे चंद लम्हों के हमसफ़र भी हैं । हमसफ़र होने का अपना गौरव होता है, और इस गीत में, अपने इन चंद लमहों के बीतेपन को, रीतेपन को, ख़ालीपन को, जैसे वे एक अनन्य गरिमा के साथ सेलिब्रेट करते हैं, स्वीकार की उदात्त भंगिमा लिए, जो कि इस गीत का अनिवार्य अंतर्भाव है।
कुछ चीजें कभी-कभी बस यूँ ही घट जाती हैं, जैसे कि हिंदी सिनेमा का यह ग्रैंड रोमैंटिक लिरिक-सॉन्ग, जिसको सुनकर ज़मीनपारी रूमानियतों का महाकवि भी पानी की अपनी क़ब्र में करवटें बदलता होगा ।