ये नयन डरे डरे / माया का मालकौंस / सुशोभित
सुशोभित
बीरेन नाग की फ़िल्म 'कोहरा' का गीत है यह । बीरेन दा ने दो ही फ़िल्में बनाईं और दोनों ही सस्पेंस थ्रिलर । उनकी पहली फ़िल्म थी 'बीस साल बाद', जो 1962 में आई थी और अपने ज़माने में बहुत बड़ी हिट थी । फिर उसके दो साल बाद उन्होंने उसी टीम - बिस्वजीत, वहीदा रहमान, हेमंत कुमार को लेकर यह फ़िल्म बनाई, जो अपने तईं एक 'मास्टरपीस' है – 'मोनोक्रोम' सिनमैटोग्राफ़ी, फ़िल्म-संपादन, ‘इंटीरियर्स' की सेट - डिज़ाइन और कथा में 'मोटिफ़' के निष्णात निर्वाह की नायाब बानगी । अल्फ्रेड हिचकॉक की किताब का एक पन्ना !
बहुत-सी चीजें ऐसी होती हैं, जो अपने वक़्त में उतनी मक़बूल नहीं होने पातीं, जितनी कि बाद की मुद्दतों में जाकर वे होती हैं । 'बीस साल बाद' की तुलना में ‘कोहरा’ उतनी क़ामयाब फ़िल्म साबित नहीं हुई थी, लेकिन बाद में उसकी एक ‘कल्ट फ़ॉलोइंग' बनी है। ख़ासतौर पर उसके गीत-संगीत के लिए कइयों के दिल में एक ख़ास जगह बन चुकी है । इस फ़िल्म का म्यूज़िकल स्कोर एक संगीतकार के रूप में हेमंत कुमार की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से भी है ।
गीत वहीदा रहमान और बिस्वजीत पर फ़िल्माया गया है । अत्यंत घने अवसाद में डूबी यह फ़िल्म है और पूरी फ़िल्म में हम वहीदा के चरित्र पर भी एक सजल नैराश्य की छाया देख सकते हैं । फ़िल्म में वहीदा हमेशा आँसुओं के बीच मुस्कराती नज़र आती हैं । बहुत शुरू में वहीदा पर फ़िल्माए एक अन्य लता - गीत में उनका 'कैरेक्टर स्केच' जैसे 'सेट' कर दिया जाता है । कैफ़ी आज़मी के वो मानीख़ेज़ बोल हैं : ‘ऐ बेक़रार दिल हो चुका है मुझको आँसुओं से प्यार / मुझे तू ख़ुशी ना दे नई रोशनी ना दे ।' यह अवसाद के प्रेम में पड़ चुकी एक नायिका है । उसकी मुस्कराहटों पर भी सोग का साया है। वह उस 'निर्वेद - परंपरा' की नायिकाओं में हैं, जिनके दिल में हमेशा एक 'पुण्य - विषाद' जमा रहता था । पचास और साठ के दशक की फ़िल्मों में ऐसे कई टूटे हुए दिल वाले चरित्र हमें मिला करते थे | उनका एक ‘ट्रैजिक’ लहज़ा हुआ करता था । उस 'पुण्य - विषाद' को हमने इधर के सालों में जेब से गिरे सिक्कों की तरह गँवा दिया है और आज की कला में एक वैसा लम्हा भूले से नहीं मिलता, जिसमें 'सजल विषाद' का एक ठहरा हुआ चित्रण हो।
‘ये नयन डरे डरे / ये जाम भरे भरे'
वहीदा को रिझाने में बिस्वजीत सफल रहते हैं। राजकुमारों जैसे चेहरे वाले बिस्वजित- गौरवर्ण, उन्नत भाल, घनी बरौनियां, तराशी हुई मूँछें और ललाट पर बालों की लट। ‘टैगोरवादी' मानकों के अनुरूप एक सुदर्शन और सुसंस्कृत नायक । वहीदा से ब्याह रचाकर बिस्वजीत उन्हें लेकर घर लौटते हैं । किंतु वे विधुर हैं । और उनकी मृत पत्नी का स्पर्श घर के हर कोने पर जैसे जीवित है । वहीदा इस घर में क़दम रखते ही तत्क्षण 'अन्य' हो जाती हैं। धक्क से दिल रह जाता है। अपनी नियति में न्यस्त त्रासदी पर उनका जो विश्वास था, मानो वह और पुख्ता हो गया हो। एक अनुपस्थित 'अन्य' की उपस्थिति में पल-पल जीने वाली वहीदा की जैसी तस्वीरें, जैसा ‘लोकाल', परिवेश में रोमांच कथा के 'मोटिफ़' का जैसा निर्वाह बीरेन दा ने यहाँ पर किया है, वह बेजोड़ है | हिंदी सिनेमा में 'महल', 'मधुमती' और ‘बीस साल बाद' जैसी सस्पेंस थ्रिलर फ़िल्मों की शृंखला में यह आती है, बांग्ला में कह लीजिए सत्यजित राय की 'तीन कन्या' का 'मोणिहार' प्रसंग | मुझे विश्वास है बीरेन दा ने कुछ प्रेरणाएँ 'मोणिहार' से प्राप्त की होंगी। ये वैसी फ़िल्में हैं, जिनके बारे में मेरे गुरु अजातशत्रु, जिनसे मैंने लिखना सिखा, कहते थे : 'इन फ़िल्मों को सिनेमाघर में देखते समय हमें हमेशा यह अहसास होता रहता है, जैसे हमारी कुर्सी के नीचे कोई सांप रेंगकर जा रहा हो और हम कभी भी गहरी साँस नहीं ले सकते।'
ये उसी प्रसंग का यह गीत है । मनुहार का गाना । यक़ीनन, वहीदा रूठी हैं कि तुम मुझे कहाँ ले आए हो । बिस्वजीत अपने दुनियावी ब्यौपार में व्यस्त हैं, लेकिन नववधू को मनाने का गुरुभार तो निबाहना ही है । इस गीत से बेहतर मनुहार और क्या हो सकती थी :
‘रात हसीं ये चाँद हसीं तू सबसे हसीं मेरे दिलबर और तुझसे हसीं तेरा प्यार तू जाने ना ।'
ये पंक्तियाँ अचूक हैं। कोई भी रूठी हुई स्त्री इन पंक्तियों के सामने ज़्यादा समय तक रूठी नहीं रह सकती । दुःख अभी बीता नहीं है, शिकायतें अभी हरी हैं, लेकिन यह मनुहार बहुत सम्मोहक और प्रणयाकुल है और दिल ही दिल में वहीदा को मुस्कराते हुए हम इस गीत में देख सकते हैं।
हेमंत कुमार की आवाज़ । फुसफुसाहटों भरा बांग्ला उच्चार । वैसी कोई शै फिर दूसरी नहीं हुई, जैसी कि हेमंत दा का स्वर था । उनका गाना गुनगुनाहटों से भरा हुआ है । भौरे के गुंजार का तत्व । तलस्पर्शी नादस्वर, जिसमें भूले से भी ‘तारसप्तक’ का एक स्पर्श नहीं। बांग्ला उच्चारण हमेशा गोलाइयों भरा होता है, जैसे झाग के बबूले । उसमें तीखे और तराशे हुए कोने - कंगूरे नहीं होते । रबींद्र संगीत के अनगिनत वर्षों की यह गान -परंपरा जैसे अपने अमूर्तन में पूरी की पूरी उठकर हेमंत दा के गायन में चली आई थी। वे बहुधा ना के बराबर साज़ों के साथ गाते थे और ध्वनि-मुद्रिका पर अनुगूँजों से भरी उनकी आवाज़ का वह स्थापत्य अनूठी विरासत है। एक अद्भुत, स्वाभिमानी, शालीन कलाकार, जो दुनिया - फ़ानी से इस तरह चुपचाप होकर गुज़र गया, जैसे समुद्र पर जहाज़ फिसलता है और अपने पीछे कोई लीक नहीं छोड़ जाता ।
एक ज़माना था, 1994-95 की यह बात है, जब केबल टीवी पर यह फ़िल्म और उसके गीत अकसर दिखाए जाते थे। हमारा लड़कपन इन गीतों के साथ बीता है। एक गहरा नॉस्टेल्जिया इससे नत्थी । ये एक ऐसा गीत भी है, जिस पर लिखने की फ़रमाइश मुझसे बहुधा की जाती रही है । आज यह आयोजन भी संपन्न हुआ । अस्तु ।