रसीदी टिकट / अमृता प्रीतम / पृष्ठ 2
पहला भागः-खंडः- ऐक
‘‘--पृष्ठभूमि याद है-तब छोटी थी, जब डायरी लिखती थी तो सदा ताले में रखती थीं। पर अलमारी के अन्दर खाने की उस चाभी को शायद ऐसे संभाल-संभालकर रखती थी कि उसकी संभाल किसी को निगाह में आ गयी ।(यह विवाह के बाद की बात है)। एक दिन मेरी चोरी से उस अलमारी का वह खाना खेाला गया और डायरी को पढा गया। और फिर मुझसे कई पंक्तियों की विस्तार पूर्ध व्याख्या मांगी गयी। उस दिन को भुगतकर मेने वह डायरी फाड दी, और बाद में कभी डायरी न लिखने का अपने आपसे इकरार कर लिया।---’’
‘‘--- पर जिंदगी में तन समय ऐसे आए हैं-जब मैने अपने अन्दर की सिर्फ औरत को जी भर कर देखा है। उसका रूप इतना भरा पूरा था कि मेरे अन्दर के लेखक का अस्तित्व मेरे ध्यान से विस्मृत हो गया--दूसरी बार ऐसा ही समय मैने तब देखा जब एक दिन साहिर आया था तो उसे हल्का सा बुखार चढा हुआ था। उसके गले में दर्द था-- सांस खिंचा-खिंचा थां उस दिन उसके गले और छाती पर मैने ‘विक्स’ मली थी। कितनी ही देर मलती रही थी--और तब लगा था, इसी तरह पैरों पर खडे़ खडे़ पोरों से , उंगलियोें से और हथेली से उसकी छाती को हौले हौले मलते हुये सारी उम्र गुजार सतिी हूं। मेरे अंदर की सिर्फ औरत को उस समय दुनिया के किसी कागज कलम की आवश्यकता नहीं थी।--- लाहौर में जब कभी साहिर मिलने के लिये आता था तो जैसे मेरी ही खामोशी से निकला हुआ खामेाशी का एक टुकड़ा कुर्सी पर बैठता था और चला जाता था---वह चुपचाप सिगरेट पीता रहता था, कोई आधा सिगरेट पीकर राखदानी में बुझा देेता था, फिर नया सिगरेट सुलगा लेता था।और उसके जाने के बाद केवल सिगरेट के बड़े छोटे टुकडे़ कमरे में रह जाते थे। कभी --एक बार उसके हाथ छूना चाहती थी, पर मेरे सामने मेरे ही संस्कारों की एक वह दूरी थी जो तय नहीं होती थी-- तब कल्पना की करामात का सहारा लिया था। उसके जाने के बाद, मै उसके छोडे हुये सिगरेट को संभाल कर अलमारी में रख लेती थी, और फिर एक-एक टुकडे़ को अकेले जलाती थी, और जब उंगलियों के बीच पकड़ती थी तो बैठकर लगता था जैसे उसका हाथ छू रही हूं---- ’’
‘‘---देश विभाजन से पहले तक मेरे पास एक चीज थी जिसे मैं संभाल -संभाल कर रखती थी। यह साहिर की नज्म ताजमहल थी जो उसने फ्रेम कराकर मुझे दी थी। पर देश के विभाजन के बाद जोे मेरे पास धीरे धीरे जुडा है आज अपनी अलमारी का अन्दर का खाना टटोलने लगी हूं तो दबे हुए खजाने की भांति प्रतीत हो रहा है---
---एक पत्ता है जो मैं टॉलस्टाय की कब्र परसे लायी थी और एक कागज का गोल टुकडा है जिसके एक ओर छपा हुआ है’-एशियन राइटर्स कांफ्रेस और दूसरी ओर हाथ से लिखा हुआ है साहिर लुधियानवी यह कांफ्रेंस के समय का बैज है जो कांफ्रेस में सम्मिलित होने वाले प्रत्येक लेखक को मिला था। मैने अपने नाम का बैज अपने कोट पर लगाया हुआ था और साहिर ने अपने नाम का बैज अपने कोट पर । साहिर ने अपना बैज उतारकर मेरे कोट पर लगा दिया और मेरा बैज उतारकर अपने कोट पर लगा लिया और------’’
(उपन्यास का कापीराइट प्रकाशक राजकमल पेपरबैक्स के अधीन सुरक्षित होने के कारण समीक्षा स्वरूप प्रत्येक भाग का कुछ अंश ही सम्मिलित किया गया है। संकलनकर्ताः-डा0 अशोक कुमार शुक्ला)