राग दरबारी / श्रीलाल शुक्ल / पृष्ठ 4
वैद्यजी थे, हैं और रहेंगे
4 कुछ घूरे, घूरों से भी बदतर दुकानें, तहसील, थाना, ताड़ीघर, विकास-खण्ड का दफ्तर, शराबख़ाना, कालिज-सड़क से निकल जाने वाले को लगभग इतना ही दिखाई देता था। कुछ दूर आगे एक घनी अमराई में बनी हुई एक कच्ची कोठरी भी पड़ती थी। उसकी पीठ सड़क की ओर थी; उसका दरवाजा, जिसमें किवाड़ नहीं थे, जंगल की ओर था। बरसात के दिनो में हलवाहे पेड़ों के नीचे से हटकर इस कोठरी में जुआ खेलते, बाकी दिनों वह खाली पड़ी रहती। जब वह खाली रहती, तब भी लोग उसे खाली नहीं रहने देते थे और नर-नारीगण मौका देखकर मनपसन्द इस्तेमाल करते थे। शिवपालगंज में इस कोठरी के लिए जो नाम दिया गया था, वह हेनरी मिलर को भी चौंका देने के लिए काफ़ी था। उसमें ठण्डा पानी मिलाकर कॉलेज के एक मास्टर ने उसका नाम प्रेम-भवन रख दिया था। घूरों और प्रेम-भवन के बीच पड़ने वाले सड़क के इस हिस्से को शिवपालगंज का किनारा-भर मिलता था। ठेठ शिवपालगंज दूसरी ओर सड़क छोड़कर था। असली शिवपालगंज वैद्यजी की बैठक में था। अपनी सीमा के आस-पास जहाँ भी ख़ाली ज़मीन मिले, वहीं आँख बचाकर दो-चार हाथ ज़मीन घेर लेनी चाहिए।
बैठक तक पहुँचने के लिए गलियारे में उतरना पड़ता था। उसके दोनों किनारों पर छप्पर के बेतरतीब ऊबड़-खाबड़ मकान थे। उनके बाहरी चबूतरे बढ़ा लिये गये थे और वे गलियारे पर हावी थे। उन्हें देखकर इस फिलासफी का पता चलता था कि अपनी सीमा के आस-पास जहाँ भी ख़ाली ज़मीन मिले, वहीं आँख बचाकर दो-चार हाथ ज़मीन घेर लेनी चाहिए।
अचानक यह गलियारा एक मैदान में खो जाता था। उसमें नीम के तीन-चार पेड़ लगे थे। जिस तरह वे पनप रहे थे, उससे साबित होता था कि वे वन-महोत्सवों के पहले लगाये गये हैं, वे किसी नेता या अफ़सर के छूने से बच गए हैं और उन्हें वृक्षारोपण और कैमरा-क्लिकन की रस्मों से बख्श दिया गया है।
इस हरे-भरे इलाके में एक मकान ने मैदान की एक पूरी-की-पूरी दिशा को कुछ इस तरह घेर लिया था कि उधर से आगे जाना मुश्किल था। मकान वैद्यजी का था। उसका अगला हिस्सा पक्का और देहाती हिसाब से काफ़ी रोबदार था, पीछे की तरफ़ दिवारें कच्ची थीं और उसके पिछे, शुबहा होता था, घूरे पड़े होंगे। झिलमिलाते हवाई अड्डों और लकलकाते होटलों की मार्फत जैसा 'सिम्बालिक माडर्नाइज़ेशन' इस देश में हो रहा है, उसका असर इस मकान की वास्तुकला में भी उतर आया था और उससे साबित होता था कि दिल्ली से लेकर शिवपालगंज तक काम करने वाली देशी बुद्धि सब जगह एक-सी है।
नं. १० डाउनिंग स्ट्रीट, व्हाइट हाउस, क्रेमलिन आदि मकानों के नहीं ताकतो के नाम हैं।
मकान का अगला हिस्सा, जिसमें चबूतरा, बरामदा और एक बड़ा कमरा था, बैठक के नाम से मशहूर था। ईंट-गारा ढ़ोने वाला मजदूर भी जानता था कि बैठक का मतलब ईंट और गारे की बनी हुई इमारत भर नहीं है। नं. १० डाउनिंग स्ट्रीट, व्हाइट हाउस, क्रेमलिन आदि मकानों के नहीं ताकतो के नाम हैं।
थाने से लौटकर रुप्पन बाबू ने दरबारे-आम, यानी बरामदे में भींड़ लगी देखी; उनके कदम तेज़ हो गये, धोती फड़फड़ाने लगी। बैठक में आते ही उन्हें पता चला कि उनके ममेरे भाई रंगनाथ शहर से ट्रक पर आये हैं; रास्ते में ड्राइवर ने उनसे दो रुपये ऐंठ लिये हैं।
एक दुबला-पतला आदमी गन्दी बनियान और धारीदार अण्डरवियर पहने बैठा था। नवम्बर का महीना था और शाम को काफ़ी ठण्डक हो चली थी, पर वह बनियान में काफ़ी खुश नज़र आ रहा था। उसका नाम मंगल था, पर लोग उसे सनीचर कहते थे। उसके बाल पकने लगे थे और आगे के दाँत गिर गये थे। उसका पेशा वैद्यजी की बैठक पर बैठे रहना था। वह ज्यादातर अण्डरवियर ही पहनता था। उसे आज बनियान पहने हुए देखकर रुप्पन बाबू समझ गये कि सनीचर 'फार्मल' होना चाहता है। उसने रुप्पन बाबू को एक साँस में रंगनाथ की मुसीबत बता दी और अपनी नंगी जाँघों पर तबले के कुछ मुश्किल बोल निकालते हुए ललककर कहा, "बद्री भैया होते तो मज़ा आता।"
रुप्पन बाबू रंगनाथ से छूटते ही बोले, "तुमने अच्छा ही किया रंगनाथ दादा। दो रुपिया देकर झगड़ा साफ़ किया। ज़रा-ज़रा-सी बात पर खून-ख़राबा करना ठीक नहीं।"
रंगनाथ रुप्पन बाबू से डेढ़ साल बाद मिल रहा था। रुप्पन बाबू की गम्भीरता को दिन-भर की सबसे दिलचस्प घटना मानते हुए रंगनाथ ने कहा, "मैं तो मारपीट पर उतर आया था, बाद में कुछ सोचकर रुक गया।"
रुप्पन बाबू ने मारपीट के विशेषज्ञ की हैसियत से हाथ उठाकर कहा, " तुमने ठीक ही किया। ऐसे ही झगड़ों से इश्टूडेण्ट कमूनिटी बदनाम होती है।" कन्धे पर टिकी हुई धोती का छोर, ताज़ा खाया हुआ पान, बालों में पड़ा हुआ कईं लीटर तेल - स्थानीय गुण्डागिरी के किसी भी स्टैण्डर्ड से वे होनहार लग रहे थे।
रंगनाथ ने अब उन्हें ध्यान से देखा। कन्धे पर टिकी हुई धोती का छोर, ताज़ा खाया हुआ पान, बालों में पड़ा हुआ कईं लीटर तेल - स्थानीय गुण्डागिरी के किसी भी स्टैण्डर्ड से वे होनहार लग रहे थे। रंगनाथ ने बात बदलने की कोशिश की। पूछा, "बद्री दादा कहाँ है? दिखे नहीं।"
सनीचर ने अपने अण्डरवियर को झाड़ना शुरु किया, जैसे कुछ चींटियों को बेदख़ल करना चाहता हो। साथ ही भौहें सिकोड़कर बोला, " मुझे भी बद्री भैया याद आ रहें हैं। वे होते तो अब तक॰॰॰!"
"बद्री दादा हैं कहाँ?" रंगनाथ ने उधर ध्यान न देकर रुप्पन बाबू से पूछा।
रुप्पन बाबू बेरुखी से बोले, " सनीचर बता तो रहा है। मुझसे पूछकर तो गये नहीं हैं। कहीं गये हैं। बाहर गये होंगे। आ जायेंगे। कल, परसों, अतरसों तक आ ही जायेंगे।"
उनकी बात से पता चलना मुश्किल था कि बद्री उनके सगे भाई हैं और उनके साथ एक ही घर में रहते हैं। रंगनाथ ने ज़ोर से साँस खींची।
सनीचर ने फर्श पर बैठे-बैठे अपनी टाँगे फैला दीं। जिस्म के जिस हिस्से से बायीं टाँग निकलती है, वहाँ उसने खाल का एक टुकड़ा चुटकी में दबा लिया। दबाते ही उसकी आँखे मुँद गयीं और चेहरे पर तृप्ति और संतोष का प्रकाश फैल गया। धीरे-धीरे चुटकी मसलते हुए उसने भेड़िये की तरह मुँह फैलाकर जम्हाई ली। फिर ऊँघती हुई आवाज़ में कहा, "रंगनाथ भैया शहर से आये हैं। उन्हें मैं कुछ नहीं कह सकता। पर कोई किसी गँजहा से दो रुपये तो क्या, दो कौड़ी भी ऐंठ ले तो जानें।"
"गँजहा" शब्द रंगनाथ के लिए नया नहीं था। यह एक तकनीकी शब्द था जिसे शिवपालगंज के रहने वाले अपने लिए सम्मानसूचक पद की तरह इस्तेमाल करते थे। आसपास के गाँवों में भी बहुत-से शान्ति के पुजारी मौका पड़ने पर धीरे-से कहते थे, "तुम इसके मुँह ना लगो। तुम जानते नहीं हो, यह साला गँजहा है।" कन्धे फ़र्श पर वहीं एक चौदह-पन्द्रह साल का लड़का भी बैठा था। देखते ही लगता था, वह शिक्षा-प्रसार के चकमे में नहीं आया है।
फ़र्श पर वहीं एक चौदह-पन्द्रह साल का लड़का भी बैठा था। देखते ही लगता था, वह शिक्षा-प्रसार के चकमे में नहीं आया है। सनीचर की बात सुनकर उसने बड़े आत्मविश्वास से कहा, "शहराती लड़के बड़े सीधे होते हैं। कोई मुझसे रुपिया माँगकर देखता तो॰॰॰।"
कहकर उसने हाथ को एक दायरे के भीतर हवा में घुमाना शुरू कर दिया। लगा किसी लॉरी में एक लम्बा हैण्डिल डालकर वह उसे बड़ी मेहनत से स्टार्ट करने जा रहा है। लोग हँसनें लगे, पर रुप्पन बाबू गम्भीर बने रहे। उन्होने रंगनाथ से पूछा, "तो तुमने ड्राइवर को रुपये अपनी मर्ज़ी से दिये थे या उसने धमकाकर छीन लिये थे?"
रंगनाथ ने यह सवाल अनसुना कर दिया और इसके जवाब में एक दूसरा सवाल किया, "अब तुम किस दर्जे में पढ़ते हो रुप्पन?"
उनकी शक्ल से लगा कि उन्हें यह सवाल पसन्द नहीं है। वे बोले, "टैन्थ क्लास में हूँ॰॰॰
"तुम कहोगे कि उसमें तो मैं दो साल पहले भी था। पर मुझे तो शिवपालगंज में इस क्लास से बाहर निकलने का रास्ता ही नहीं सूझ पड़ता।॰॰॰
"तुम जानते नहीं हो दादा, इस देश की शिक्षा-पद्धति बिल्कुल बेकार है। बड़े-बड़े नेता यही कहते हैं। मैं उनसे सहमत हूँ॰॰॰।
"फिर तुम इस कॉलिज का हाल नहीं जानते। लुच्चों और शोहदों का अड्डा है। मास्टर पढ़ाना-लिखाना छोड़कर सिर्फ़ पालिटिक्स भिड़कते हैं। दिन-रात पिताजी की नाक में दम किये रहते हैं कि यह करो, वह करो, तनख्वाह बढ़ाओ, हमारी गरदन पर मालिश करो। यहाँ भला कोई इम्तहान में पास हो सकता है॰॰॰?
"हैं। कुछ बेशर्म लड़के भी है, जो कभी-कभी इम्तहान पास कर लेते हैं, पर उससे॰॰॰।"
कमरे के अन्दर वैद्यजी मरीज़ों को दवा दे रहे थे। अचानक वें वहीं से बोले, "शान्त रहो रुप्पन। इस कुव्यवस्था का अन्त होने ही वाला है।"
जान पड़ा कि आकाशवाणी हो रही हैः 'घबराओ नहीं वसुदेव, कंस का काल पैदा होने ही वाला है।' रुप्पन बाबू शान्त हो गये। रंगनाथ ने कमरे की ओर मुँह करके जोर से पूछा, "मामाजी, आपका इस कॉलिज से क्या ताल्लुक है?"
"ताल्लुक?" कमरे में वैद्यजी की हँसी बड़े जोर से गूँजी। "तुम जानना चाहते हो कि मेरा इस कॉलिज से क्या सम्बन्ध है? रुप्पन, रंगनाथ की जिज्ञासा शान्त करो।"
रुप्पन ने बड़े कारोबारी ढ़ंग से कहा, "पिताजी कॉलिज के मैनेजर है। मास्टरों का आना-जाना इन्हीं के हाथ में है।"
रंगनाथ के चेहरे पर अपनी बात का असर पढ़ते हुए उन्होने फिर कहा, "ऐसा मैनेजर पूरे मुल्क में न मिलेगा। सीधे के लिए बिलकुल सीधे हैं और हरामी के लिए खानदानी हरामी।"
रंगनाथ ने यह सूचना चुपचाप हज़म कर ली और सिर्फ कुछ कहने की गरज़ से बोला, "और कोऑपरेटिव यूनियन के क्या हाल हैं? मामाजी उसके भी तो कुछ थे।"
"थे नहीं, हैं।" रुप्पन बाबू ने ज़रा तीखेपन से कहा, "मैनेजिंग डाइरेक्टर थे, हैं और रहेंगे।"
वैद्यजी थे, हैं और रहेंगे।
अंग्रेजों के ज़माने में वे अंग्रेजों के लिए श्रद्धा दिखाते थे। देसी हुकूमत के दिनों में वे देसी हाकिमों के लिए श्रद्धा दिखाने लगे। वे देश के पुराने सेवक थे। पिछले महायुद्ध के दिनों में, जब देश को ज़ापान से ख़तरा पैदा हो गया था, उन्होने सुदूर-पूर्व में लड़ने के लिए बहुत से सिपाही भरती कराये। अब ज़रूरत पड़ने पर रातोंरात वे अपने राजनीतिक गुट में सैंकड़ों सदस्य भरती करा देते थे। पहले भी वे जनता की सेवा जज की इजलास में जूरी और असेसर बनकर, दीवानी के मुकदमों में जायदादों के सिपुर्ददार होकर और गाँव के ज़मींदारों में लम्बरदार के रूप में करते थे। अब वे कोऑपरेटिव यूनियन के मैनेजिंग डाइरेक्टर और कॉलिज के मैनेजर थे। वास्तव में वे इन पदों पर काम नहीं करना चाहते थे क्योंकि उन्हें पदों का लालच न था। पर उस क्षेत्र में ज़िम्मेदारी के इन कामों को निभानें वाला कोई आदमी ही न था और वहाँ जितने नवयुवक थे, वे पूरे देश के नवयुवकों की तरह निकम्मे थे; इसीलिए उन्हें बुढ़ापे में इन पदों को सँभालना पड़ा था। हर बड़े राजनीतिज्ञ की तरह वे भी राजनीति से नफ़रत करते थे और राजनीतिज्ञों का मज़ाक उड़ाते थे।
बुढ़ापा! वैद्यजी के लिए इस शब्द का इस्तेमाल तो सिर्फ़ अरिथमेटिक की मजबूरी के कारण करना पड़ा क्योंकि गिनती में उनकी उमर बासठ साल हो गई थी। पर राजधानियों में रहकर देश-सेवा करने वाले सैंकड़ो महापुरूषों की तरह वे भी उमर के बावजूद बूढ़े नहीं हुए थे और उन्हीं महापुरूषों की तरह वैद्यजी की यह प्रतिज्ञा थी कि हम बुढ़े तभी होंगे जब कि मर जायेंगे और जब तक लोग हमें यक़िन नहीं दिला देंगे कि तुम मर गये हो, तब तक अपने को जीवित ही समझेंगे और देश-सेवा करते रहेंगे। हर बड़े राजनीतिज्ञ की तरह वे भी राजनीति से नफ़रत करते थे और राजनीतिज्ञों का मज़ाक उड़ाते थे। गांधी की तरह अपनी राजनीतिक पार्टी में उन्होने कोई पद नहीं लिया था क्योंकि वे वहाँ नये खून को प्रोत्साहित करना चाहते थे; पर कोऑपरेटिव और कॉलिज के मामलों में लोगों ने उन्हें मजबूर कर दिया था और उन्होंने मजबूर होना स्वीकार कर लिया था।
वैद्यजी का एक पेशा वैद्यक का भी था। वैद्यक में उन्हें दो नुस्ख़े ख़ासतौर से आते थेः 'ग़रीबों का मुफ़्त इलाज' और 'फ़ायदा न हो तो दाम वापस'। इन नुस्ख़ों से दूसरों को जो आराम मिला हो वह तो दूसरी बात है, खुद वैद्यजी को भी आराम की कमी नहीं थी।
उन्होंने रोगों के दो वर्ग बना रखे थेः प्रकट रोग और गुप्त रोग। वे प्रकट रोगों की प्रकट रुप से और गुप्त रोगों की गुप्त रुप से चिकित्सा करते थे। रोगों के मामले में उनकी एक यह थ्योरी थी कि सभी रोग ब्रह्मचर्य के नाश से पैदा होते हैं। कॉलिज के लड़कों का तेजहीन, मरियल चेहरा देखकर वे प्रायः इस थ्योरी की बात करने लगते थे। अगर कोई कह देता कि लड़को की तन्दुरुस्ती ग़रीबी और अच्छी खुराक न मिलने से बिगड़ी हुई है, तो वे समझते थे कि वह घुमाकर ब्रह्मचर्य के महत्व को अस्वीकार कर रहा है, और चूँकि ब्रह्मचर्य को न मानने वाला बदचलन होता है इसलिए ग़रीबी और खुराक की कमी की बात करने वाला भी बदचलन है। उनकी राय थी कि ब्रह्मचर्य का नाश कर सकने के लिए ब्रह्मचर्य का नाश न होने देना चाहिए।
ब्रह्मचर्य के नाश का क्या नतीजा होता है, इस विषय पर वे बड़ा ख़ौफ़नाक भाषण देते थे। सुकरात ने शायद उन्हें या किसी दूसरे को बताया था कि ज़िन्दगी में तीन बार के बाद चौथी बार ब्रह्मचर्य का नाश करना हो तो पहले अपनी कब्र खोद लेनी चाहिए। इस इण्टरव्यू का हाल वे इतने सचित्र ढ़ंग से पेश करते थे कि लगता था, ब्रह्मचर्य पर सुकरात उनके आज भी अवैतनिक सलाहकार है। उनकी राय में ब्रह्मचर्य न रखने से सबसे बड़ा हर्ज यह होता था कि आदमी बाद में चाहने पर भी ब्रह्मचर्य का नाश करने लायक नहीं रह जाता था। संक्षेप में, उनकी राय थी कि ब्रह्मचर्य का नाश कर सकने के लिए ब्रह्मचर्य का नाश न होने देना चाहिए।
उनके इन भाषणों को सुनकर कॉलिज के तीन-चौथाई लड़के अपने जीवन से निराश हो चले थे। पर उन्होंने एक साथ आत्महत्या नहीं की थी, क्योंकि वैद्यजी के दवाखाने का एक विज्ञापन थाः
'जीवन से निराश नवयुवकों के लिए आशा का संदेश!'
आशा किसी लड़की का नाम होता, तब भी लड़के यह विज्ञापन पढ़कर इतने उत्साहित न होते। पर वे जानते थे कि सन्देश एक गोली की ओर से आ रहा है जो देखने में बकरी की लेंडी-जैसी है, पर पेट में जाते ही रगों में बिजली-सी दौड़ाने लगती है। उनकी बातों से लगा कि पहले हिन्दुस्तान में वीर्य-रक्षा पर बड़ा ज़ोर था, और एक ओर घी-दूध की तो दूसरी ओर वीर्य की नदियाँ बहती थीं।
एक दिन उन्होंने रंगनाथ को भी ब्रह्मचर्य के लाभ समझाये। उन्होंने एक अजीब-सा शरीर-विज्ञान बताया, जिसके हिसाब से कई मन खाने से कुछ छटाँक रस बनता है, रस से रक्त, रक्त से कुछ और, और इस तरह आखिर में वीर्य की एक बूँद बनती है। उन्होंने साबित किया कि वीर्य की एक बूँद बनाने में जितना ख़र्च होता है उतना एक ऐटम बम बनाने में भी नहीं होता। रंगनाथ को जान पड़ा कि हिन्दुस्तान के पास अगर कोई कीमती चीज है तो वीर्य ही है। उन्होंने कहा कि वीर्य के हज़ार दुश्मन हैं और सभी उसे लूटने पर आमादा हैं। अगर कोई किसी तरकीब से अपना वीर्य बचा ले जाये तो, समझो, पूरा चरित्र बचा ले गया। उनकी बातों से लगा कि पहले हिन्दुस्तान में वीर्य-रक्षा पर बड़ा ज़ोर था, और एक ओर घी-दूध की तो दूसरी ओर वीर्य की नदियाँ बहती थीं। उन्होंने आख़िर में एक श्लोक पढ़ा जिसका मतलब था कि वीर्य की एक बूँद गिरने से आदमी मर जाता है और एक बूँद उठा लेने से ज़िन्दगी हासिल करता है।
संस्कृत सुनते ही सनीचर ने हाथ जोड़कर कहा, "जय भगवान की!" उसने सिर ज़मीन पर टेक दिया और श्रद्धा के आवेग में अपना पिछला हिस्सा छत की ओर उठा दिया। वैद्यजी और भी जोश में आ गये और रंगनाथ से बोले, "ब्रह्मचर्य के तेज का क्या कहना! कुछ दिन बाद शीशे में अपना मुँह देखना, तब ज्ञात होगा।"
रंगनाथ सिर हिलाकर अन्दर जाने को उठ खड़ा हुआ। अपने मामा के इस स्वभाव को वह पहले से जानता था। रुप्पन बाबू दरवाजे के पास खड़े थे। उन पर वैद्यजी के भाषण का कोई असर नहीं पड़ा था। उन्होंने रंगनाथ से फुसफुसाकर कहा, "मुँह पर तेज लाने के लिए आजकल ब्रह्मचर्य की क्या ज़रूरत? वह तो क्रीम पाउडर के इस्तेमाल से भी आ जाता है।"