राग दरबारी / श्रीलाल शुक्ल / पृष्ठ 5

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

na |रचनाकार=श्रीलाल शुक्ल |संग्रह=राग दरबारी / श्रीलाल शुक्ल }}

अध्याय:5
ये गँजहो के चोंचले हैं

5. पुनर्जन्म के सिद्धांत की ईजाद दीवानी की अदालतों में हुई है, ताकि वादी और प्रतिवादी इस अफ़सोस को लेकर मर सकते हैं कि मुक़दमे का फ़ैसला सुनने के लिए अभी अगला जन्म तो पड़ा ही है।


पुनर्जन्म के सिद्धांत की ईजाद दीवानी की अदालतों में हुई है, ताकि वादी और प्रतिवादी इस अफ़सोस को लेकर मर सकते हैं कि मुक़दमे का फ़ैसला सुनने के लिए अभी अगला जन्म तो पड़ा ही है ।

वैद्यजी की बैठक के बाहर चबूतरे पर जो आदमी इस समय बैठा था, उसने लगभग सात साल पहले दीवानी का एक मुक़दमा दायर किया था; इसलिए स्वाभाविक था कि वह अपनी बात में पूर्वजन्म के पाप, भाग्य, भगवान, अगले जन्म के कार्यक्रम आदि का नियमित रूप से हवला देता ।

उसको लोग लंगड़ कहते थे। माथे पर कबीरपंथि तिलक, गले में तुलसी की कण्ठी, आँधी-पानी झेला हुआ दढ़ियल चहेरा, दुबली-पतली देह, मिर्ज़ई पहने हुए। एक पैर धुटने के पास से कटा था, जिसकी कमी एक लाठी से पूरी की गयी थी। चेहरे पर पुराने ज़माने के उन ईसाई संतो का भाव, जो रोज़ अपने हाथ से अपनी पीठ पर खींचकर सौ कोड़े मारते हों।

उसकी ओर सनीचर ने भंग का गिलास बढ़ाया और कहा,”लो भाई लंगड़, पी जाओ। इसमें बड़े-बड़े माल पड़े हैं।“

लंगड़ ने आँखें मूँदकर इनकार किया और थोड़ी देर दोनों में बहस होती रही जिसका सम्बन्ध भंग की गरिमा, बादाम-मुनक्के के लाभ, जीवन की क्षण-भंगुरता, भोग और त्याग-जैसे दार्शनिक विषयों से था। बहस के अंत में सनीचर ने अपना दूसरा हाथ अण्डरवियर में पोंछकर सभी तर्कों से छुटकारा पा लिया और सांसारिक विषयों के प्रति उदासीनता दिखाते हुए भुनभुनाकर कहा,”पीना हो तो सटाक से गटक जाओ, न पीना हो तो हमारे ठेंगे से!”

लंगड़ ने जोर से साँस खींची और आँखें मूँद लीं, जोकि आत्म-दया से पीड़ीत व्यक्तियों से लेकर ज़्यादा खा जानेवालों तक में भाव-प्रदर्शन की एक बड़ी ही लोकप्रिय मुद्रा मानी जाती है। सनीचर ने उसे छोड़ दिया और एक ऐसी बन्दर-छाप छलाँग लगाकर, जो डार्विन के विकासवादी सिद्धांत की पुष्टि करती थी, बैठक के भीतरी हिस्से पर हमला किया। वहाँ प्रिंसिपल साहब, क्लर्क, वैद्यजी, रंगनाथ आदि बैठे हुए थे। दिन के दस बजने वाले थे।

सनीचर ने भंग का गिलास अब प्रिंसिपल साहब की ओर बढ़ाया और वही बात कही,”पी जाइए मास्टर साहब, इसमें बड़े-बड़े माल हैं।“

प्रिंसिपल साहब ने वैद्यजी से कहा,”कॉलिज का काम छोड़कर आया हूँ। इसे शामके लिए रखा जाये।“

वैद्यजी ने स्नेहपूर्वक कहा,”सन्ध्याकाल पुनः पी लीजिएगा।“

”कॉलिज छोड़कर आया हूँ......।“ वे फिर बोले। बुश्शर्ट, जो उनकी फ़िलासफी के अनुसार मैली होने के बावजूद, क़ीमती होने के कारण पहनी जा सकती थी।

रूप्पन बाबू कॉलिज जाने के लिए घर से तैयार होकर निकले। रोज़ की तरह कन्धे पर पड़ा हुआ धोती का छोर। बुश्शर्ट, जो उनकी फ़िलासफी के अनुसार मैली होने के बावजूद, क़ीमती होने के कारण पहनी जा सकती थी। इस समय पान खा लिया था और बाल संवार लिये थे। हाथ में एक मोटी-सी किताब, जो ख़ासतौर से नागरिकशास्त्र के घंटे में पड़ी जाती थी और जिसका नाम ‘जेबी जासूस’ था। जेब में दो फ़ाउण्टनपेन, एक लाल और एक नीली स्याही का, दोनों बिना स्याही के। कलाई में घड़ी, जो सिद्ध करती थी कि जो जुआ खेलता है उसकी घड़ी तक रेहन हो जाती है और जो जुआड़ियों का माल रेहन रखता है उसे क़ीमती घड़ी दस रूपये तक में मिल जाती है।

रूप्पनबाबू ने प्रिंसिपल साहब की बात बाहर निकलते-निकल्ते सुन ली थी; वे वहीं से बोले,”कॉलिज को तो आप हमेशा ही छोड़े रहते है। वह तो कॉलिज ही है जो आपको नहीं छोड़ता।“

प्रिंसिपल साहब झेंपे, इसलिए हँसे और ज़ोर से बोले,”रूप्पन बाबू बात पक्की कहते हैं।“

सनीचर ने उछलकर उनकी कलाई पकड़ ली। किलककर कहा, “तो लीजिए इसी बात पर च्ढ़ा जाइए एक गिलास।“

वैद्यजी संतोष से प्रिंसिपल का भंग पीना देखते रहे। पीकर प्रिंसिपल साहब बोले,”सचमुच ही बड़े-बड़े माल पड़े हैं।“

वैद्यजी ने कहा, “भंग तो नाममात्र को है। है, और नहीं भी है। वास्तविक द्रव्य तो बादाम, मुनक्का और पिस्ता हैं। बादाम बुद्धि और वीर्य को बढ़ाता है। मुनक्का रेचक है। इसमें इलायची भी पड़ी है। इसका प्रभाव शीतल है। इससे वीर्य फटता नहीं, ठोस और स्थिर रहता है। मैं तो इसे पेय क एक छोटा-सा प्रयोग रंगनाथ पर भी कर रहा हूँ।“

प्रिंसिपल साहब ने गरदन उठाकर कुछ पूछना चाहा, पर वे पहले ही कह चले, “इन्हे कुछ दिन हुए, ज्वर रहने लगा था। शक्ति क्षीण हो चली थी। इसीलिए मैंने इन्हे यहाँ बुला लिया है। दो पत्ती भंग की भी। देखना है, छः मास के पश्चात जब ये यहाँ से जायेंगे तो क्या हो कर जाते हैं।“

कॉलिज के क्लर्क ने कहा,”छछूँदर-जैसे आये थे, गैण्डा बनकर जायेंगे। देख लेना चाचा।“

जब कभी क्लर्क वैद्यजी को ‘चचा’ कहता था, प्रिंसिपल साहब को अफसोस होता था कि वे उन्हे अपना बाप नहीं कह पाते।

जब कभी क्लर्क वैद्यजी को ‘चचा’ कहता था, प्रिंसिपल साहब को अफसोस होता था कि वे उन्हे अपना बाप नहीं कह पाते। उनका चेहरा उदास हो गया। वे सामने पड़ी हुई फ़ाइलें उलटने लगे।

तब तक लंगड़ दरवाजे पर आ गया। शास्त्रों में शूद्रों के लिए जिस आचरण का विधान है, उसके अनुसार चौखट पर मुर्गी बनकर उसने वैद्यजी को प्रणाम किया। इससे प्रकट हुआ कि हमारे यहाँ आज भी शास्त्र सर्वोपरी है और जाति-प्रथा मिटाने की सारी कोशिशें अगर फ़रेब नहीं हैं तो रोमाण्टिक कार्रवाइयाँ हैं। लंगड़ भीख-जैसी माँगते हुए कहा,”तो जाता हूँ बापू!”

वैद्यजी ने कहा, “जाओ भाई, तुम धर्म की लड़ाई लड़ रहे हो, लड़ते जाओ। उसमें मैं क्या सहायता कर सकता हूँ!”

लंगड़ ने स्वाभाविक ढंग से कहा,”ठीक ही है बापू! ऐसी लड़ाई में तुम क्या करोगे? जब कोई सिफ़ारिश-विफ़ारिश की बात होगी, तब आकर तुम्हारी चौखट पर सिर रगड़ूँगा।“

ज़मीन तक झुककर उसने उन्हे फिर से प्रणाम किया और एक पैर पर लाठी के सहारे झूलता हुआ चला गया। वैद्यजी ज़ोर से हँसे। बोले,”इसकी भी बुद्धि बालको की-सी है।“ हँसते ही वैद्यजी का चेहरा मुलायम हो गया, नेतागीरी की जगह भलमनसाहत ने ले ली। एक आचारवान महापुरूष की जगह वे बदचलन-जैसे दिखने लगे।

वे बहुत कम हँसते थे। रंगनाथ ने चौंक कर देखा, हँसते ही वैद्यजी का चेहरा मुलायम हो गया, नेतागीरी की जगह भलमनसाहत ने ले ली। एक आचारवान महापुरूष की जगह वे बदचलन-जैसे दिखने लगे।

रंगनाथ ने पूछा, “यह लड़ाई कैसी लड़ रहा है?”

प्रिंसिपल साहब समने फैली हुई फ़ाइलें और चेक-बुकें, जिसकी आड़ में वे कभी-कभी यहाँ सवेरे-सवेरे भंग पीने के लिए आते थे, समेटने लगे थे। हाथ रोककर बोले, “इसे तहसील से एक दस्तावेज़ की नकल लेनी है। इसने क़सम खायी है कि मैं रिश्वत न दूँगा और क़ायदे से ही नक़ल लूँगा, उधर नक़ल बाबू ने कसम खायी है कि रिश्वत लूँगा और क़ायदे से ही नक़ल दूँगा। इसी की लड़ाई चल रही है।“

रंगनाथ ने इतिहास में एम.ए. किया था और न जाने कितनी लड़ाइयों के कारण पढ़े थे। सिकन्दर ने भारत पर कब्ज़ा करने के लिए आक्रमण किया था; पुरू ने, उसका कब्ज़ा न होने पाये, इसलिए प्रेतिरोध किया था। इसी कारण लड़ाई हुई थी। अलाउद्दीन ने कहा था कि मैं पद्मिनी को लूँगा, राणा ने कहा कि मैं पद्मिनी को नहीं दूँगा। इसलिए लड़ाई हुई थी। सभे लड़ाईयों की जड़ में यही बात थी। एक पक्ष कहता था, लूँगा; दूसरा कहता था, नहीं दूँगा। इसी पर लड़ाई होती थी।

पर यहाँ लंगड कहता था, धरम से नक़ल लूँगा। बाबू कहता था, धरम से नक़ल दूँगा। फिर भी लड़ाई चल रही थी।

रंगनाथ ने प्रिंसिपल साहब से इस ऐतिह्हासिक विपर्यय का मतलब पूछा। उसके जवाब में उन्होने अवधी में एक कहावत कही, जिसका शाब्दिक अर्थ था : हाथी आते हैं, घोड़े जाते हैं, बेचारे ऊँट गोते खाते हैं। यह कहावत शायद किसी ज़िन्दा अजायबघर पर कही गये थी, पर रंगनाथ इतना तो समझ ही गया कि इशारा किसी सरकरी दफ़्तर की लम्बई, चौड़ाई और गहराई की ओर है। फिर भी वह लंगड़ और नक़ल बाबू के बीच चलनेवाले धर्मयुद्ध की डिज़ाइन नहीं समझ पाया। उसने अपना सवाल और स्पष्ट रूप से प्रिंसिपल साहब के सामने पेश किया।

उनकी ओर से क्लर्क बोला-”ये गँजहो के चोंचले हैं। मुश्किल से समझ में आते हैं।...

”लंगड़ यहाँ से पाँच कोस दूर एक गाँव का रहनेवाला है। बीवी मर चुकी है। लड़को से यह नाराज़ है और उन्हे अपने लिए मरा हुआ समझ चुका है। भगत आदमी है। कबीर और दादू के भजन गाया करता था। गाते-गाते थक गया तो बैठे-ठाले एक दीवानी का मुक़दमा दायर कर बैठा।"

”मुकदमे के लिए एक पुराने फ़ैसले की नक़ल चाहिए। उसके लिए पहले तहसील में दरख्वास्त दी थी। दरख्वास्त में कुछ कमी रह गयी, इसलिए वह ख़ारिज हो गयी। इस पर इसने दूसरी दरख्वास्त दी। कुछ दिन हुए, यह तहसील में नक़ल लेने गया। नकलनवीस चिड़ीमार निकला, उसने पाँच रूपये माँगे। लंगड़ बोला कि रेट दो रूपये का है। इसी पर बहस हो गयी। दो-चार वकील खड़े थे; उन्होने पहले नकलनवीस से कहा कि, भाई दो रूपये मे ही मान जाओ, यह बेचारा लंगड़ा है। नक़ल लेकर तुम्हारे गुण गायेगा। पर वह अपनी बात से बाल-बराबर भी नहीं खिसका। एकदम से मर्द बन गया और बोला कि मर्द की बात एक होती है। जो कह दिया, वही लूँगा।" तनख्वाह तो दारू-कलिया पर खर्च करते हैं और लड़कियाँ ब्याहने के लिए घूस लेते हैं।

”तब वकीलों ने लंगड़ को समझाया। बोले कि नक़ल बाबू भी घर-गिरिस्तीदार आदमी है। लड़कियाँ ब्याहनी हैं। इसलिए रेट बढ़ा दिया है। मान जाओ और पाँच रूपये दे दो। पर वह भी ऐंठ गया। बोला कि अब यही होता है। तनख्वाह तो दारू-कलिया पर खर्च करते हैं और लड़कियाँ ब्याहने के लिए घूस लेते हैं। नक़ल बाबू बिगड़ गया। गुर्राकर बोला कि जाओ, हम इसी बात पर घूस नहीं लेंगे। जो कुछ करना होगा क़ायदे से करेंगे। वकीलों ने बहुत समझाया कि ‘ऐसी बात न करो, लंगड़ भगत आदमी है, उसकी बात का बुरा न मानो,’ पर उसका गुस्सा एक बार चढ़ा तो फिर नहीं उतरा।"

”सच तो यह है रंगनाथ बाबू कि लंगड़ ने गलत नहीं कहा था। इस देश में लड़कियाँ ब्याहना भी चोरी करने का बहाना हो गया है। एक रिश्वत लेता है तो दूसरा कहता है कि क्या करे बेचारा! बड़ा खानदान है, लड़कियाँ ब्याहनी हैं। सारी बदमाशी का तोड़ लड़कियों के ब्याह पर होता है। इस देश में लड़कियाँ ब्याहना भी चोरी करने का बहाना हो गया है। एक रिश्वत लेता है तो दूसरा कहता है कि क्या करे बेचारा! बड़ा खानदान है, लड़कियाँ ब्याहनी हैं।

”जो भी हो, लंगड़ और नक़ल-बाबू में बड़ी हुज्जत हुई। अब घूस के मामले में बात-बात पर हुज्जत होती ही है। पहले सधा काम होता थ। पुराने आदमी बात के पक्के होते थे। एक रूपिया टिका दो, दुसरे दिन नकल तैयार। अब नये-नये स्कूली लड़के दफ़्तर में घुस आते है और लेने-देन का रेट बिगाड़ते है। इन्हीं की देखा-देखी पुराने आदमी भी मनमानी करते है। अब रिश्वत का देना और रिश्वत का लेना – दोनो बड़े झंझट के काम हो गये हैं।

“लंगड़ को भी गुस्सा आ गया। उसने अपनी कण्ठी छूकर कहा की जाओ बाबू, तुम क़ायदे से ही काम करोगे तो हम भी क़ायदे से ही काम करेंगे। अब तुमको एक कानी कौड़ी न मिलेगी। हमने दरख्वास्त लगा दी है, कभी-न-कभी तो नम्बर आयेगा ही।

“उसके बाद लंगड़ ने जाकर तहसीलदार को सब हाल बताया। तहसीकदार बहुत हँसा और बोला कि शाबाश लंगड़, तुमने ठीक ही किया। तुन्हे इस लेन-देन में पड़ने की कोई ज़रूरत नहीं। नम्बर आने पर तुम्हे नक़ल मिल जायेगी। उसने पेशकार से कहा, देखो, लंगड़ बेचारा चाय महिने से हैरान है। अब क़ायदे से काम होना चाहिए, इन्हे कोई परेशान न करे। इस पर पेशकार बोला कि सरकार, यह लंगड़ा तो झक्की है। आप इसके झमेले में न पड़ें। तब लंगड़ पेशकार पर बिगड़ गया। झाँय-झाँय होने लगी। किसी तरह दोनों में तहसीलदार ने सुलह करायी।"

”लंगड़ जानता है कि नक़ल-बाबू उसकी सरख्वास्त बेचारी तो चींटी की जान-जैसी है। उसे लेने के लिए कोई बड़ी ताकत न चाहिए। दरख्वास्त को किसी भी समय खारिज कराया जा सकता है। फिस का टिकट कम लगा है, मिसिल का पता ग़लत लिखा है, एक ख़ाना अधूरा पड़ा है-ऐसी ही कोई बात पहले नोटिस-बोर्ड पर लिख दी जाती है और अगर उसे दी गये तारीख़ तक ठीक न किया जाये तो दरख्वस्त खारिज कर दी जाती है।"

“इसीलिए लंगड़ ने अब पूरी-पूरी तैयारी कर ली है। वह अपने गाँव चला आया है, अपने घर में उसने ताला लगा दिया है। खेत-पात,फ़सल, बैल-बधिया, सब भगवान के भरोसे छोड़ आया है। अपने एक रिश्तेदार के यहाँ डेरा दिया है और सवेरे से शाम तक तहसील के नोटिस-बोर्ड के आसपास चक्कर काटा करता है। उसे डर है कि कहीं ऐसा न हो कि नोटिस-बोर्ड पर उसकी दरख्वास्त की कोई खबर निकले और उसे पता ही न चले। चूके नहीं कि दरख्वास्त खारिज हुई। एक बार ऐसा हो भी चुका है। आदमी का जब करम फूटता है तभी उसे थाना-कचहरी का मुँह देखना पड़ता है।


"उसने नक़ल लेने के सब क़ायदे रट डाले है। फीस का पूरा चार्ट याद कर लिया है। आदमी का जब करम फूटता है तभी उसे थाना-कचहरी का मुँह देखना पड़ता है। लंगड़ का भी करम फूट गया है। पर इस बार जिस तरह से वह तहसील पर टूटा है, उससे लगता है कि पट्ठा नक़ल लेकर ही रहेगा।“

रंगनाथ ने अपने जीवन में अब तक काफ़ी बेवकूफ़ियाँ की थी। इसलिए उसे अनुभवी नहीं कहा जा सकता था। लंगड़ के इतिहास का उसके मन पर बड़ा ही गहरा प्रभाव पड़ा और वह भावुक हो गया। भावुक होते ही ‘कुछ करना चाहिए’ की भावना उसके मन को मथने लगी, पर ‘क्या करना चाहिए’ इसका जवाब उसके पास नहीं था।

जो भी हो, भीतर-ही-भीतर जब बात बरदाश्त से बाहर होने लगी तो उसने भुनभुनाकर कह ही दिया, “यह सब ग़लत है.....कुछ करना चाहिए!”

क्लर्क ने शिकारी कुत्ते की तरह झपटकर यह बात दबोचली। बोला, “क्या कर सकते हो रंगनाथ बाबू? कोई क्या कर सकता है? जिसके छिलता है, उसी के चुनमुनाता है। लोग अपना ही दुख-दर्द ढो लें, यही बहुत है। दूसरे का बोझा कौन उठा सकता है? अब तो वही है भैये, कि तुम अपना दाद उधर से खुजलाओ, हम अपना इधर से खुजलायें।“

क्लर्क चलने को उठ खड़ा हुआ। प्रिंसिपल ने चारों ओर निगाह दौड़ाकर कहा,”बद्री भैया दिखायी नहीं पड़ रहे हैं।“

वैद्यजी ने कहा,”एक रिश्तेदर डकैते में फँस गये हैं। पुलिस की लीला अपरम्पार है। जानते ही हो। बद्री वहीं गया था। आज लौटा रहा होगा।“

सनीचर चौखट के पास बैठा था। मुँह से सीटी-जैसी बजते हुए बोला, “जब तक नहीं आते तभी तक भला है।“

प्रिंसिपल साहब भंग पीकर अब तक भूल चुके थे कि अराम हराम है। एक बड़ा-सा तकिया अपनी ओर खींचकर वे इत्मीनान से बैठ गये और बोले, “बात क्या है?”

सनीचर ने बहुत धीरे-से कहा,”कोऑपरेटिव यूनियन में ग़बन हो गया है। बद्री भैया सुनेंगे तो सुपरवाइज़र को खा जायेंगे।“

प्रिंसिपल आतंकित हो गये। उसी तरह फुसफुसाकर बोले, “ऐसी बत है!”

सनीचर ने सिर झुक़ाकर कुछ कहना शुरू कर दिया। वार्तलाप की यह वही अखिल भारतीय शैली थी जिसे पारसी थियेटरों ने अमर बना दिया है। इसके सहारे एक आदमी दूसरे से कुछ कहता है और वहीं पर खड़े हुए तीसरे आदमी को कानोंकान खबर नहीं होती; यह दूसरी बात है कि सौ गज़ की दूरी तक फैले हुए दर्शकगण उस बात को अच्छी तरह सुनकर समझ लेते हैं और पूरे जनसमुदाय में स्टेज पर खड़े हुए दूसरे आदमी को छोड़कर, सभी लोग जान लेते हैं कि आगे क्या होनेवाला है। संक्षेप में, बात को गुप्त रखने की इस हमारी परम्परागत शैली को अपनाकर सनीचर ने प्रिंसिपल साहब को कुछ बताना शुरू किया।

पर वैद्यजी कड़ककर बोले, “क्या स्त्रियों की भाँति फुस-फुस कर रहा है? कोऑपरेटिव में ग़बन हो गया तो कौन-सी बड़ी बात हो गयी? कौन-सी यूनियन है जिसमें ऐसा न हुआ हो?”


कुछ रूककर, वे समझाने के ढंग पर बोले,”हमारी यूनियन में ग़बन नहीं हुआ था, इस कारण लोग हमें सन्देह की दृष्टि से देखते थे। अब तो हम कह सकते हैं कि हम सच्चे आदमी हैं। ग़बन हुआ है और हमने छिपाया नहीं है। जैसा है, वैसा हमने बता दिया है।“


साँस खींचकर उन्होंने बात समाप्त की,”चलो अच्छा ही हुआ। एक काँटा निकल गया...चिंता मिटी।“


प्रिंसिपल साहब तकिये के सहारे निश्चल बैठे रहे। आख़िर में एक ऐसी बात बोले जिसे सब जानते हैं। उन्होंने कहा,”लोग आजकल बड़े बेइमान हो गये हैं””


यह बात बड़ी ही गुणकारी है और हर भला आदमी इसका प्रयोग मल्टी-विटामिन टिकियों की तरह दिन में तीन बार खाना खाने के बाद कर सकता है। पर क्लर्क को इसमें कुछ व्यक्तिगत आक्षेप-जैसा जान पड़ा। उसने जवाब दिया, “आदमी-आदमी पर है। अपने कॉलिज में तो आज तक ऐसा नहीं हुआ।“


वैद्यजी ने उसे आत्मीयता की दृष्टि से देखा और मुस्कराये। कोऑपरेटिव यूनियनवाल ग़बन बीज-गोदाम से गेहूँ निकालकर हुआ था। उसी की ओर इशरा करते हुए बोले, “ कॉलिज में ग़बन कैसे हो सकता है! वहाँ गेहूँ का गोदाम नहीं होता।“

एक बार हँसी शुरू हुई तो आगे का काम भंग ने सँभाल लिया। वे हँसते ही रहे।


यह मज़ाक था। प्रिंसिपल साहब हँसे, एक बार हँसी शुरू हुई तो आगे का काम भंग ने सँभाल लिया। वे हँसते ही रहे। पर क्लर्क व्यक्तिगत आक्षेप के सन्देह से पीड़ित जान पड़ता था। उसने कहा, “पर चाचा, कॉलिज में तो भूसे के सैकड़ों गोदाम हैं। हरएक के दिमाग़ में भूसा ही भरा है।“


इस पर और भी हँसी हुई। सनीचर और रंगनाथ भी हँसे। हँसी की लहर चबूतरे तक पहुँच गयी। वहाँ पर बैठे हुए दो-चार गुमनाम आदमी भी असम्पृक्त भाव से हँसने लगे। क्लर्क ने प्रिंसिपल को आँख से चलने का इशारा किया।


यह हमारी गौरवपूर्ण परम्परा है कि असल बात दो-चार घण्टे की बातचीत के बाद अंत में ही निकलती है। अतः वैद्यजी ने अब प्रिंसिपल साहब से पूछा,”और कोई विशेष बात?”


“कुछ नहीं... वही खन्नावाला मामला है। परसों दर्जे में काला चश्मा लगाकर पढा रहे थे। मैंने वहीं फींचकर रख दिया। लड़कों को बहका रहे थे। मैंने कहा, लो पुत्रवर, तुम्हें हम यहीं घसीटकर फ़ीता बनाये देते हैं।“ प्रिंसिपल साहब ने अपने ऊपर बड़ा संयम दिखाया था, पर यह बात ख़त्म करते-करते अंत में उनके मुँह से ‘फिक-फिक’ जैसी कोई चीज़ निकल ही गयी। प्रत्येक बड़े नेता का एक-एक विरोधी है। सभी ने स्वेच्छा से अपना-अपना विरोधी पकड़ रखा है। यह जनतंत्र का सिद्धांत है।

वैद्यजी ने गम्भीरता से कहा, “ऐसा न करना चाहिए। विरोधी से भी सम्मानपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। देखो न, प्रत्येक बड़े नेता का एक-एक विरोधी है। सभी ने स्वेच्छा से अपना-अपना विरोधी पकड़ रखा है। यह जनतंत्र का सिद्धांत है। हमारे नेतागण चुपचाप अपनी चाल चलते रहते हैं। कोई किसी से प्रभावित नहीं होता। यह आदर्श विरोध है। आपको भी यही रूख अपनाना चाहिए।“


क्लर्क पर राजनीति के इन मौलिक सिद्धांतों का कोई असर नहीं हुआ। बह बोला “ इससे कुछ नहीं होता, चाचा! खन्ना मास्टर को मैं जानता हूँ। इतिहास में एम.ए. हैं, पर उन्हें अपने बाप तक का नाम नहीं मालूम। सिर्फ़ पार्टीबन्दी के उस्ताद हैं। अपने घर पर लड़कों को बुला-बुलाकर जुआ खिलाते हैं। उन्हें ठीक करने का सिर्फ़ एक तरीक़ा है। कभी पकड़कर दनादन-दनादन लगा दिये जायें।...”

बात जूता मारने की पद्धति और परम्परा पर आ गयी।

इस बात ने वैद्यजी को और भी गम्भीर बना दिया, पर और लोग उत्साहित हो उठे। बात जूता मारने की पद्धति और परम्परा पर आ गयी। सनीचर ने चहककर कहा कि जब खन्ना पर दनादन-दनादन पड़ने लगें, तो हमें भी बताना। बहुत दिन स हमने किसी को जुतिआया नहीं है। हम भी दो-चार हाथ लगाने चलेंगे। एक आदमी बोला कि जूता अगर फटा हो और तीन दिन तक पानी में भिगोया गया हो तो मारने में अच्छी आवाज़ करता है और लोगों को दूर-दूर तक सूचना मिल जाती है कि जूता चल रहा है। दूसरा बोला कि पढे-लिखे आदमी को जुतिआना हो तो गोरक्षक जूते का प्रयोग करना चाहिए ताकि मार तो पड़ जाये, पर ज्यादा बेइज़्ज़ती न हो। चबूतरे पर बैठे-बैठे एक तीसरे आदमी ने कहा कि जुतिआने का सही तरीक़ा यह है कि गिनकर सौ जूते मारने चले, निन्यानबे तक आते-आते पिछली गिनती भूल जाय और एक से गिनकर फिर नये सिरे से जूता लगाना शुरू कर दे। चौथे आदमी ने इसका अनुमोदन करते हुए कहा कि सचमुच जुतिआने का यही एक तरीका है और इसीलिए मैंने भी सौ तक गिनती याद करनी शुरू कर दी है।