राजकपूर और संगीत / राजकपूर सृजन प्रक्रिया / जयप्रकाश चौकसे
जयप्रकाश चौकसे
विश्व सिनेमा में संभवतः राजकपूर ऐसे एकमात्र फिल्मकार हुए हैं, जिनके मन में पहले ध्वनियों का जन्म होता था, फिर दृश्य-संरचना का विचार रूपायित होता था। एक धुन अथवा एक दृश्य राजकपूर के मन के तहखाने में बरसों दबी रहती थी। सही समय पर तथा सही स्थान पर वह हिट बनकर उभरती थी। संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने राजकपूर की संगीत क्षमता के बारे में कहा है कि यदि वे संगीतकार बनना चाहते, सर्वश्रेष्ठ संगीतकार सिद्ध होते।
आमतौर पर निर्देशक कथा तय करने के बाद उसके दृश्यों के बारे में विचार करते हैं। सत्यजीत रॉय रेखाचित्र बनाकर अपनी पटकथा तैयार करते रहे हैं। दृश्य संरचना फिल्म माध्यम की आत्मा है। फिल्म की शूटिंग समाप्त होने के बाद सम्पादन होता है और फिर सारे संवादों को डबिंग थियेटर में कलाकारों द्वारा पुनः रिकॉर्ड किया जाता है। शूटिंग के समय बहुत-सी बाहरी ध्वनियाँ भी रिकॉर्ड हो जाती हैं, जिन्हें हटाने के लिए सारे संवाद पुनः रिकॉर्ड किए जाते हैं। इस डबिंग के बाद पार्श्व संगीत रिकॉर्ड किया जाता है और प्रभाव पैदा करनेवाली ध्वनियों जैसे पदचाप, दरवाजा खुलना, बादल या बिजली की आवाजें इत्यादि मिक्सिंग के समय ध्वनि-पट्ट पर रिकॉर्ड की जाती हैं। भारतीय फिल्मों के कबीर राजकपूर का हाल अजीब या 'जैसे औघड़ गुरु का, औघड़ ज्ञान, पहले भोजन, फिर स्नान'। दुनिया से सम्भवतः राजकपूर एकमात्र ऐसे निर्देशक हुए हैं, जिनके मन में पहले ध्वनियों का जन्म होता था, फिर दृश्य संरचना का विचार रूपायित होता था। कथा निश्चित करते ही राजकपूर संगीत के बारे में विचार प्रारम्भकर देते थे। राम तेरी गंगा मैली के मामले में तो पहले एक गीत उनके मन में आया। फिर फिल्म का नाम और बाद में कया लिखी गई। इस फिल्म की सम्पूर्ण पटकथा बनने के पहले ही 18 अप्रैल से 28 अप्रैल '83 तक सारे गाने रिकॉर्ड कर लिए गए थे। दरअसल 'गंगा मैली' एक 'एक्सटेम्पोर' फिल्म थी। एक त्वरित फिल्म जिसे राजकपूर ने मन में बसी परन्तु अलिखित पटकथा पर बनाया, क्योंकि उस दौर तक आते-आते माध्यम पर राजकपूर की पकड़ बहुत गहरी हो चुकी थी।
राजकपूर संगीत की ओर बचपन से ही आकृष्ट हुए थे, क्योंकि उनकी माँ रमासरनी देवी को गीत गाने का बहुत शौक था। उनका गला भी अत्यन्त सुरीला था। हमेशा गुनगुनाते रहना, उन्हें भला लगता था। भारतीय जीवन में जन्म से मृत्यु तक के सभी अवसरों के लिए लोक गीत हैं और राजकपूर की माँ के पास लोक गीतों का खजाना था जिन्हें उन्होंने अपनी ममता के साथ सभी सन्तानों पर लुटाया।
राजकपूर की तरह ही शम्मीकपूर को भी संगीत का ज्ञान है और अपनी अभिनीत सभी फिल्मों के संगीत पर शम्मीकपूर ने स्वयं काम किया है।
पृथ्वीराज कलकत्ता के न्यू थियेटर की फिल्मों में काम करते थे। उस समय राजकपूर बहुत छोटे थे, परन्तु नियमित रूप से न्यू थियेटर के संगीत कक्ष में जाया करते थे। वहाँ आर.सी. बोराल और के.एल. सहगल जैसे दिग्गज लोग रियाज किया करते थे। बालक राजकपूर कई बार तबला बजाने का प्रयास करते थे और संगीत कक्ष में मौजूद लोग उन्हें प्रेरणा देते थे और शिक्षा भी। न्यू थियेटर के संगीत कक्ष में ही राजकपूर ने रवीन्द्र संगीत भी सुना और टैगोर की कई कविताओं को याद भी किया। राजकपूर को बंगाली भाषा का अच्छा ज्ञान भी उसी दौर में हुआ। पृथ्वीराज को शास्त्रीय संगीत की सभाओं में जाने का शौक था और वे राजकपूर को साथ ले जाते थे। बाद में पृथ्वी थियेटर में भी शास्त्रीय संगीत की महफिलें लगती थीं, जहाँ राजकपूर हमेशा मौजूद होते थे। जब स्वयं राजकपूर प्रसिद्ध अभिनेता बने और उनके पास पैसा आया तो, उन्होंने स्वयं महान संगीतकारों और गायकों को अपने घर निमन्त्रित करने की परम्परा प्रारम्भ की। पाकिस्तान की खानाबदोश गायिका रेशमा को भारत में पहला निमन्त्रण राजकपूर ने ही दिया था। अपनी युवावस्था के आरम्भिक वर्षों में राजकपूर ने विधिवत् शास्त्रीय संगीत भी सीखा था, जहाँ उनकी मुलाकात मुकेश से हुई। इन गुरु-भाइयों के बीच जीवनभर की मित्रता का राज भी यही रहा है।
राजकपूर ने जवानी की दहलीज पर कदम रखने के पहले ही एक सजातीय कन्या का दिल जीत लिया पर यह विवाह नहीं हो पाया, क्योंकि कन्या के पिता घर-जंवाई चाहते थे। उन्हें राजकपूर के अभिनेता बनने की महत्त्वाकांक्षा नहीं जँची। जब राजकपूर आखिरी बार उस अल्हड़ लड़की से मिलने गए, तो उसने ठेंगा दिखाकर कहा था, 'ये गलियाँ, ये चौबारा, यहाँ ना आना दोबारा'। उसी अदा और मस्ती से यह गीत राजकपूर ने 40 वर्ष बाद 'प्रेम रोग' में प्रयोग किया। उस असफल प्यार से दुखी राजकपूर कश्मीर जाना चाहते थे, जहाँ वह लड़की अपने परिवार के साथ गई थी। पृथ्वीराज ने पैसे देने से इनकार कर दिया। आधी रात को पृथ्वीराज, टूटे हुए दिल के दर्द की आवाज सुनकर जाग गए। उन्होंने देखा कि एक दरख्त के नीचे बैठा युवा राजकपूर गीत गा रहा है और कुछ लोग मन्त्रमुग्ध होकर गीत सुन रहे हैं। यह बात देहरादून की है। दूसरे दिन सुबह पृथ्वीराज ने राजकपूर को पैसे भी दिए और कश्मीर जाने की इजाजत भी। पृथ्वीराज को इस बात का हमेशा अफसोस रहा कि राजकपूर ने गीत-संगीत को अपना पेशा नहीं बनाया। लक्ष्मी-प्यारे भी स्वीकार करते हैं कि राजकपूर यदि सिर्फ संगीतकार बनना चाहते, तो सर्वश्रेष्ठ संगीतकार सिद्ध होते।
बचपन से ही गीत-संगीत में रुचि के कारण दृश्य संरचना के पहले ही राजकपूर के मन में ध्वनियों का जन्म होता था और इन्हीं ध्वनियों का दृश्य रूपान्तर उनके फिल्म तकनीक का सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। एक तरह से राजकपूर के लिए पूरी फिल्म 'ऑपेरा' की तरह होती थी। पाश्चात्य देशों में सिर्फ गीतों के द्वारा पूरी कथा को मंच पर प्रस्तुत करने की विधा को 'ऑपेरा' कहते हैं। 'ऑपेरा' में मूल-कथा के 'मॉटिफ' पर पूरी रचना आधारित होती है। राजकपूर की फिल्मों में संगीत की धुरी पर सारा कथानक घूमता था।
राजकपूर के जीवन का सबसे दुःखद समय था, जब जागते रहो असफल हो गई थी और नरगिस, सुनील दत्त से शादी करके उनसे दूर चली गई थी। आलोचकों ने राजकपूर को समाप्त घोषित कर दिया था। उन दिनों राजकपूर, अर्जुनदेव रश्क की कहानी जिस देश में गंगा बहती है खरीद चुके थे। जब राजकपूर की मौजूदगी में रश्क ने शंकर-जयकिशन को कहानी सुनाई, तो शंकर ने कहा कि इस कथा में संगीत के लिए कोई जगह नहीं है। बेहतर होगा यदि राजकपूर इसका संगीत भी सलिल चौधरी (जागते रहो में सलिल चौधरी का संगीत था, क्योंकि फिल्म बंगाली और हिन्दी में बनी थी) से लें। जयकिशन, शंकर की तरह मुँहफट नहीं थे, परन्तु उन्हें राजकपूर से यह उम्मीद नहीं थी कि वे एक दस्यु-सुधार कथा चुनेंगे। वह भी ऐसे संकट के समय जब आर.के. का अस्तित्व ही खतरे में था। 'आग' से 'जागते रहो' तक के फाइनेंसर पुरी साहब भी आर. के. छोड़ चुके थे, यद्यपि इसका कारण रश्क की कहानी नहीं था। राजकपूर ने बैठक स्थगित कर दी। कुछ ही दिनों बाद राजकपूर ने शंकर, जयकिशन, शैलेन्द्र, हसरत और मुकेश के साथ कहानी पर विचार किया। इस बार राजकपूर ने पूरी पटकथा सभी गीत, स्थितियों के साथ सविस्तार सुनाई और सभी लोग स्तम्भित रह गए कि इस दस्यु-सुधार कथा में ग्यारह गीतों के लिए जगह निकल आई है। डाकू फिल्म में केवल एक दृश्य डाके का है और पूरी कथा ने एक 'ऑपेरा' का स्वरूप ले लिया है। इसी फिल्म में डाकू नायक राजू से उसका परिचय पूछते हैं और वह डफ बजाना शुरू करता है, जिसके साथ गाँव की साधारण गतिविधियों की ध्वनियाँ जुड़ जाती हैं-लुहार का हथौड़ा, महिलाओं की थालियाँ इत्यादि। मूल गीत के शुरू होने से पहले तीन मिनट का अमर संगीत है। राजकपूर की फिल्मों में ध्वनि पूरी कथा में अंतःसलिला की भाँति प्रवाहित होती रहती है और गीत स्थितियों के समय सतह पर आ जाते हैं।
पटकथा तैयार करते समय राजकपूर अपने सहयोगी लेखकों को बार-बार कहते थे कि एक दृश्य को दूसरे दृश्य से जोड़ने के लिए तकनीकी जगलरी के बारे में नहीं सोचते हुए, उस संगीत और रस के बारे में विचार करो, जो सारी कथा को एक सुर में बाँधती है और फिल्म के समग्र प्रभाव को बनाए रखती है। राजकपूर का सारा ध्यान सुर और रस की ओर रहता था। शायद इसी कारण दर्शकों से उनका लायात्मक तादात्म्य हमेशा बना रहा।
'राम तेरी गंगा मैली' की शूटिंग के लिए कुंज मौसा (सईद जाफरी) के घर का सैट लगा था, जो कहानी के अनुसार एक धंधा छोड़कर घर बैठी बाईजी का घर था। नायक नरेन (राजीव कपूर) को वहाँ आकर अपने मौसा से निवेदन करना था कि वे गंगोत्री जाकर गंगा (मंदाकिनी) को ले आएँ। वह गंगा के बगैर जीवित नहीं रह सकता। शूटिंग की सारी तैयारी हो चुकी थी। फिल्म के हिसाब से यह एक साधारण सूचना देनेवाला दृश्य था। सैट पर पहुँचकर राज साहब को एक पुरानी बंदिश याद आ गई- 'लाड़ला कन्हैया मोरा, खेलन को माँगे चाँद खिलौना'। उन्हें लगा कि जब नरेन और कुंज मौसा बात कर रहे हैं, तब बाईजी पीछे बैठी रियाज कर रही हैं और यही बन्दिश गा रही हैं। दृश्य में भी अमीर परिवार का एक लाड़ला एक न मिलनेवाली कठिन-सी चीज माँग रहा है। राज साहब ने इस पुरानी बन्दिश को रिकॉर्ड करके ही शूटिंग की। कोई भी निर्देशक एक छोटी-सी सूचना मात्र देने वाले दृश्य के लिए इतना खर्च नहीं करता। राजकपूर का विश्वास था कि फिल्म बनाने में छोटी-छोटी चीजों का बहुत महत्त्व है, क्योंकि समग्र प्रभाव इन चीजों के मिलने से ही बनता है।
राजकपूर चेहरा भूल सकते थे, परन्तु वे कभी कोई धुन नहीं भूलते थे। सागर, मध्यप्रदेश के गीतकार विठ्ठलभाई पटेल के घर सन् 1964 में तीसरी कसम की शूटिंग के समय उन्होंने 'झूठ बोले कौआ काटे' सुना था और 1973 में 'बॉबी' में इसका प्रयोग उन्होंने किया। प्रेमरोग में प्रयुक्त 'ये गलियाँ, ये चौबारा' उन्होंने 40 वर्ष पूर्व सुना था। पाँचवें दशक में रूमानिया के दौरे पर एक पार्टी से लौटते समय उनके दिमाग में एक घुन गूँजी थी, जिसे उन्होंने मेरा नाम जोकर में इस्तेमाल किया- 'जीना यहाँ, मरना यहाँ'। जोकर का अमर गीत 'जाने कहाँ गए वो दिन' उनकी पाँचवें दशक की फिल्मों में पार्श्व संगीत की तरह बजती रही थी। 'ओ बसन्ती पवन पागल' (जिस देश में गंगा बहती है) भी 'आह' के पार्श्व संगीत का ही हिस्सा थी।
बॉबी के दिनों में उन्होंने लक्ष्मी-प्यारे के संगीत कक्ष में एक धुन बनाई थी, 'वो कहते हैं उम्र नहीं है प्यार की, नादां हैं क्या जाने कली खिल चुकी बहार की'। उन दिनों संगीतकार राजेश रोशन लक्ष्मी-प्यारे के यहाँ काम सीखते थे। पंद्रह वर्ष बाद राजेश रोशन ने फिल्म 'दरियादिल' में इस गाने का प्रयोग किया। राजकपूर ने रेडियो पर गीत सुना और बहुत नाराज हुए। राजेश रोशन का खयाल था कि पन्द्रह वर्षों में राजकपूर धुन भूल गए होंगे या अब उसका प्रयोग नहीं करना चाहते हों। राजेश इस बात से अनभिज्ञ थे कि राजकपूर की कार्य-प्रणाली ही विचित्र है। एक कथा, एक विचार, एक धुन बरसों उनके सीने के तहखाने में दबे रहने के बाद सही जगह पर, सही मौके पर हिट बनकर उभरती थी।
'राम तेरी गंगा मैली' में गंगा (मंदाकिनी) की यात्रा (गंगोत्री से कलकत्ता तक) के दृश्यों की परिकल्पना की जा रही थी। हिन्दू कुरीतियों पर हिन्दी कथा पत्रिका 'सारिका' के एक अंक में छपा था कि रेल के डिब्बे में एक प्यासे बालक को एक बूढ़ी स्त्री ने गंगा जल नहीं दिया, क्योंकि वह इस पवित्र जल को अपने आखिरी वक्त के लिए ले जा रही थी। इससे प्रेरणा लेकर राजकपूर ने एक अद्भुत और मार्मिक दृश्य की कल्पना की जिसमें गंगा का बच्चा भूख से बिलख रहा है और तीन दिन की भूखी-प्यासी माँ के आँचल में दूध नहीं है। मूढ़ सहयात्री गंगाजल देने से इनकार करती है। इस दृश्य की कल्पना करते समय राजकपूर के दिमाग में रेल की रिम गूँज उठी। रात के सन्नाटे में पटरियों पर रेल के पहियों से उत्पन्न रिद्म पर राजकपूर ने निम्न पंक्तियों की रचना की-
आ...आ... आ...
मैं जानूं मेरा राजदुलारा भूखा है
दूध कहाँ से लाऊँ, आँचल सूखा है
अपनी आँख में आँसू लेकर कैसे कहूँ
चुप हो जा, मुन्ने हो सके तो सोजा...
रेल की रिद्म और लता की आवाज ने एक अवर्णनीय दृश्य का संयोजन किया था।
इसी फिल्म में जब मंदाकिनी को अन्धा दलाल कोठे पर छोड़ने आता है, तो वाराणसी के रेलवे स्टेशन से ही पार्श्व में पुरानी बन्दिश बजती है, जो कोठे पर जाकर मुखर हो उठती है। बानगी प्रस्तुत है-
प्रीतम की पगली भई, तक तक पी की राह
सैंयाँ सैंयाँ रटती मैं डोली...
साईं इतना रूठ ना, आदर करे न कोई
दुर-दुर करे सहेलियाँ, साईं मुड़-मुड़ देखे न कोई...
राजकपूर ने फिल्मों में पारम्परिक गीतों और बोलों तथा बन्दिशों का बहुत प्रयोग किया है। दुःख इस बात का है कि ये छोटे-छोटे टुकड़े रिकॉर्ड में नहीं हैं। जिस देश में गंगा बहती है, में जब राजकपूर पद्मिनी को लेकर पुलिस स्टेशन आते हैं और राका का गुमनाम पत्र आता है कि वह पुलिसवालों के परिवार को मार देगा, तब राजकपूर सोते-सोते जाग उठते हैं और निश्चय करते हैं कि वे डाकुओं के गुप्त स्थान पर जाएँगे और उन्हें हिंसा छोड़कर देश की मुख्यधारा में मिलने को कहेंगे। उस समय उन्होंने निम्न पंक्तियों का प्रयोग किया है-
कबीरा सोया क्या करे उठ न रोवे दुःख जाका वासा भोर में सो क्यों सोये सुख जीवन-मरण विचार कर पूरे काम निवार जिन पंथों तुझे चलना सोई पंथ संवार...
'मेरा नाम जोकर के' अविस्मरणीय ट्रेन दृश्य में राजू ट्रेन के साथ दौड़कर अपने साथियों को फूल बाँटता है और एक अंग्रेजी गीत गाता है। इसी फिल्म में सिमी और मनोज की शादी के समय अंग्रेजी पंक्तियों का प्रयोग है- 'गिव मी ए स्माइल...'।
राजकपूर अपनी फिल्म के संगीत के प्रति इतने जागरूक थे कि कई बार वे अपने संगीतकारों से बहुत नाराज हो जाते थे। प्रेमरोग में प्यारे की इच्छा नहीं थी कि बहुत पुरानी बन्दिश 'मैं तेरा इन्तजार करता हूँ' का प्रयोग किया जाए। प्यारे इस गीत-स्थिति पर दूसरा गीत प्रयोग करना चाहते थे, परन्तु राजकपूर चौथे दशक की इस धुन के प्रयोग का मन बना चुके थे। यह बड़ी अजीब बात है कि जिस धुन को लेकर प्यारे ने इतना हल्ला मचाया था, उसी धुन को उन्होंने थोड़े से परिवर्तन के साथ सुभाष घई की फिल्म सौदागार (1991) में इस्तेमाल किया है। दरअसल लाख मनमुटाव के बाद भी राजकपूर लक्ष्मी-प्यारे को बहुत प्यार करते थे और इनके मन में भी आज तक राजकपूर के लिए आदर कायम है और शायद राजकपूर को याद करते हुए ही उन्होंने सौदागर में इस धुन का प्रयोग किया है।
राजकपूर ने पारम्परिक गीतों का प्रयोग 'आवारा' से ही प्रारम्भ कर दिया था। 'हो भय्या... तेरी नाव में है तूफान...'। आवारा के रिकॉर्ड में एक गीत नहीं है- 'जुलुम सहे भारी जनक दुलारी'- गर्भवती लीला चिटणीस को पृथ्वीराज घर से बाहर निकालते हैं-उस समय इस रचना का प्रयोग हुआ है।
राजकपूर ने संगीत का शास्त्रीय अध्ययन तो बहुत थोड़े समय ही किया, परन्तु संगीत की सारी प्रेरणा उन्हें अपनी माँ से मिली, जो लोक-गीतों और पारम्परिक गीतों का चलता-फिरता कोश थीं। राजकपूर ने बिना किसी गुरु के ही बहुत से वाद्य यन्त्र बजाने सीख लिए थे। पियानो उनका मनपसन्द वाद्य था। उनकी बड़ी पुत्री रितु नन्दा भी एक जमाने में अच्छा पियानो बजाती थी। राजीव कपूर भी इसका ज्ञान रखते हैं। शम्मीकपूर को भी संगीत का अद्भुत ज्ञान है। राजकपूर की धर्मपत्नी, कृष्णा कपूर ने शादी के बाद सितार नहीं बजाया, परन्तु एक जमाने में सितार से ही उनके प्रेम का तार जुड़ा था। राजकपूर की बनाई हुई धुनों का प्रयोग दूसरों ने भी किया है। दत्ताराम जानते थे कि 'आँसू भरी हैं, जीवन की राहें' उन्होंने राज साहब से ही ली है। कन्हैया का लोकप्रिय गीत 'मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो' भी राजकपूर की धुन है।
एक बार शैलेन्द्र और शंकर का झगड़ा हुआ, तो राजकपूर ने सुलह कराई और कहा 'हम भी हैं, तुम भी हो आमने-सामने, देख लो क्या असर कर दिया प्यार के नाम ने'- बस इस तरह 'जिस देश' का गीत बन गया। दरअसल राजकपूर ने अपनी फिल्मों के अधिकांश मुखड़े इसी तरह बातचीत में ही बनाए हैं। बॉबी की शूटिंग के दरम्यान प्रेमनाथ से झगड़ा हो गया। शाम को राजकपूर ने उन्हें मनाने की कोशिश की। प्रेमनाथ खामोश ही रहे और कुछ भी सुनने से इनकार कर दिया। राजकपूर ने कहा, 'सुन साहिब सुन, प्यार की धुन, मैंने तुझे चुन लिया, तू भी मुझे चुन' । तेरह बरस बाद 'राम तेरी गंगा मैली' में 'साहिबा' का प्रयोग हुआ है।
इस तरह रोजमर्रा की बातचीत में दूसरे फिल्मकार तो गीत नहीं बनाते हैं। दरअसल राजकपूर का जीवन ही संगीतमय था और चौबीसों घंटे वे रस में डूबे रहने वाले प्राणी थे। उनके व्यक्तित्व के पोर-पोर में प्रेम समाया था और उनका चलना-फिरना सब तालमय होता था। इस तरह का जीवन शायद किशोर कुमार का भी था। राजकपूर टेबल से तबले का काम लेते थे। उनकी टीम के सदस्य भी नितान्त सुरीले थे। शैलेन्द्र को कबीर की वाणी मुखाग्र थी। मुकेश रामायण गुनगुनाना पसन्द करते थे। जयकिशन हमेशा बीट गिनते रहते थे। नरगिस तो नदी थीं राजकपूर के जीवन गीत का अंतरा थीं और कृष्णा कपूर को 'स्थायी' मानना होगा।