यथार्थ और फंतासी / राजकपूर सृजन प्रक्रिया / जयप्रकाश चौकसे
जयप्रकाश चौकसे
राजकपूर स्वतंत्र भारत के सपनों के सौदागर थे। भारतीय जनता को कड़वे यथार्थ से भागने का शौक है। बीसवीं सदी की क्रूरतम सच्चाइयाँ भी भारतीयों के अवतारवादी विश्वास को नहीं तोड़ सकी हैं। दरअसल चौपाल पर बैठकर अनंत कथा-सागर में गोते लगाने वाले लोगों की नब्ज पहचानकर राजकपूर ने अपना फिल्म-दर्शन कायम किया। उनकी फिल्में उस उफक पर खड़ी मिलती हैं, जहाँ हकीकत का प्रकाश आने को होता है और अफसाने का अंधेरा पूरी तरह गुजरा नहीं होता है। दरअसल उनकी फिल्में अलसभोर की होती थीं।
राजकपूर की फिल्मों के कथानक सामाजिक यथार्थ की भूमि में जन्म लेते थे, परन्तु उनका ऊपरी स्वरूप फंतासी की तरह दिखता था। जीवन के दुःख से भागकर आए हुए दर्शक फंतासी के नयनाभिराम स्वरूप में मनोरंजन पाते और पढ़े-लिखे दर्शक सामाजिक सन्दर्भ और पात्रों की मानवीयता से अभिभूत हो जाते। राजकपूर की जिन फिल्मों में फंतासी और सामाजिकता का सन्तुलन बिगड़ा, उन्हें जनता ने अस्वीकृत कर दिया, जैसे आह, जागते रहो, जोकर और सत्यम् शिवम् सुन्दरम् ।
राजकपूर स्वतन्त्र भारत के सपनों के सौदागर थे। भारत की जनता को कड़वे यथार्थ से भागने का शौक है और निरन्तर सपनों की दुनिया में खोए रहना बड़ा अच्छा लगता है। हमारा धर्म भी हमें यह सिखाता रहा है कि जब-जब भारत की धरती पर अत्याचार बढ़ते हैं, ईश्वर अवतार लेकर जनता को कष्टों से बचाते हैं। यह विश्वास भी एक तरह का सपना है। हम कष्ट से स्वयं नहीं लड़ेंगे। कोई अवतार हमारे लिए लड़ेगा, हमारे लिए जीतेगा और आवश्यकता हुई तो मरेगा। अवतारों में हमारा यकीन बीसवीं सदी की कड़वी सच्चाइयों भी नहीं तोड़ पाई हैं। दरअसल आम भारतीय के लिए जीवन का यथार्थ एक फंतासी है और धार्मिक पुस्तकों में वर्णित स्वर्ग एक हकीकत। हम भारतीय अनन्त भगौड़े हैं। हम चौपाल पर बैठकर अनन्त कथा-सागर में गोते लगानेवाले लोग हैं। फंतासी के प्रति हमारा आग्रह ही हमारी असली अफीम है। राजकपूर ने आम भारतीय की इस आदत को बहुत सही ढंग से पकड़कर अपना फिल्म-दर्शन स्थापित किया। उनकी फिल्में उस उफक पर खड़ी रहती थीं, जहाँ हकीकत का प्रकाश आने को होता है और अफसाने का अँधेरा-अभी पूरी तरह गुजरा नहीं होता है अर्थात् उनकी फिल्में अलसभोर की फिल्में होती थीं।
याद कीजिए आवारा का एक स्वप्न-दृश्य, जो राजकपूर के फिल्म-दर्शन का श्रेष्ठतम उदाहरण है। नायक अपराध के दलदल में फँसा है और नायिका के प्रेम से प्रेरित होकर उबरना चाहता है। अपराध उसका यथार्थ है और उच्च वर्ग की शिक्षित महिला से प्रेम उसका सपना है। पात्र के इस अंतर्द्वद को राजकपूर ने स्वप्न-दृश्य में प्रस्तुत किया है। नायक नर्क जैसे जीवन से तंग आकर आर्त्तनाद करता है, 'ये नहीं है जिन्दगी, जिन्दगी की चिता में जल रहा हूँ मैं... मुझको यह नरक न चाहिए, मुझको चाहिए फूल, मुझको चाहिए बहार...।' यह स्वप्न-दृश्य एक भव्य सेट पर फिल्माया गया है, जिसका एक हिस्सा नर्क का प्रतीक है, तो दूसरा स्वर्ग का। नायिका की प्रेरणा से नायक नर्क से निकलकर स्वर्ग की ओर बढ़ता है, परन्तु विशालकाय जग्गा दादा का चाकू उसे रोक लेता है। नींद से जागकर नायक की माँ की गोद में सिर रखकर रोता है और प्रण करता है कि वह मेहनत-मजदूरी कर जीएगा। भव्य सेट्स, अमर संगीत और महान अभिनय ने मिलकर इस स्वप्न-दृश्य को हिन्दी व्यावसायिक सिनेमा का श्रेष्ठतम स्वप्न-दृश्य सिद्ध किया है। राजकपूर के सिनेमा में पूरे देश ने सपने ही देखे हैं-'उनकी फिल्में उन्हीं भावनाओं से बनती हैं, जिनसे सपने बनते हैं!'
'आवारा' का स्वप्न-दृश्य फिल्म पूरी करने के बाद सबसे अन्त में फिल्माया गया है। मूल पटकथा में स्वप्न-दृश्य का जिक्र भी नहीं है। सम्पादन के समय राजकपूर ने महसूस किया कि ईमानदारी की रोटी का मोहताज और उसके पहले दृश्य आम दर्शक के लिए थोड़े उबाऊ हो रहे हैं और नायक का अंतर्द्वद्ध भी ठीक से उभरकर नहीं आ रहा है। राजकपूर ने स्वप्न-दृश्य की कल्पना की और यह स्वप्न-दृश्य जहाँ एक ओर कहानी की गति को कायम रखता है, वहाँ दूसरी ओर भरपूर मनोरंजन भी देता है। बिना स्वप्न-दृश्य के फिल्म की लागत बारह लाख रुपए थी ओर इतने ही धन में फिल्म बिक चुकी थी। फाइनेंसर ने राजकपूर को समझा दिया था कि स्वप्न-दृश्य के अतिरिक्त खर्च की पूरी जवाबदारी राजकपूर की होगी। वे वितरकों से एक पैसा भी बढ़ाने के लिए नहीं कह सकते। राजकपूर ने सहर्ष सारी जवाबदारी ली। यह निर्णय उन्हें हमेशा के लिए फिल्मों से बाहर कर सकता था, क्योंकि स्वप्न-दृश्य पर आठ लाख रुपए खर्च आया और बीस लाख रुपए की फिल्म आवारा वितरकों को बारह लाख रुपए में बेची गई। यह अलग बात है कि फिल्म ने अपार सफलता पाई और आठ लाख रुपए का 'ओवरफ्लो' भी जल्दी ही आ गया। वितरक को फिल्म के मूल्य पर पच्चीस प्रतिशत कमीशन मिलता है और उसके बाद की आय का आधा भाग निर्माता को मिलता है, जिसे 'ओवरफ्लो' कहते हैं।
राजकपूर ने अपने जीवन में अनेक जोखिम भरे निर्णय लिए हैं। इसका यह मतलब नहीं कि राजकपूर को जुआ खेलना पसन्द था। दरअसल राजकपूर को सिनेमा से बेइन्तहा प्यार था। सिनेमा के लिए राजकपूर कुछ भी कर सकते थे। राजकपूर ने ठीक इसी तरह का निर्णय 'प्रेम रोग' में भी लिया था, जब एमस्टरडम जाकर 'भँवरे ने खिलाया' गीत फिल्माया। राजकपूर की प्राथमिकता थी दर्शकों का मनोरंजन । अगर कोई गीत, कहानी को गति देता है और फिल्म को मनोरंजक बनाता है, तो राजकपूर ने खर्च की हर सीमा तोड़ दी है। इस प्रकार की गीत स्थितियों में यथार्थ और फंतासी का सन्तुलन बना रहता है। राजकपूर का इस तरह का प्रयोग 'सत्यम् शिवम् सुन्दरम्' में असफल रहा, क्योंकि पूरी फिल्म ही सपने के मानिन्द थी, फिर सपने में सपना दिखाने का क्या औचित्य था। दरअसल शशिकपूर ने गुजारिश की थी कि आवारा जैसा भव्य स्वप्न-दृश्य 'सत्यम् शिवम् सुन्दरम्' में भी हो। राजकपूर ने तभी कहा था कि 'आवारा' जैसे स्वप्न-दृश्य के लिए नरगिस और शंकर-जयकिशन की आवश्यकता होगी। राजकपूर ने आधी हकीकत बयान की थी। आवारा का स्वप्न-दृश्य फिल्म की कथा का स्वाभाविक अंग लगता है, जबकि 'सत्यम्' में वह थोपा हुआ दृश्य है।
आग, बरसात और आवारा के कथानक भारतीय जनमानस से जुड़े हुए थे, परन्तु 'आह' राजकपूर की स्वाभाविक फिल्म नहीं लगती। राजकपूर हमेशा यही मानते रहे कि जब 'आह' शुरू की थी, तब टी.बी. असाध्य रोग था। प्रदर्शन के समय तक क्षय रोग का सस्ता और आसान उपचार उपलब्ध हो गया। दरअसल 'आह', 'देवदास' परम्परा की फिल्म थी, जो राजकपूर की स्थापित 'छवि' के विपरीत थी। कथानक में न यथार्थ था और न ही फंतासी के तत्त्व थे। हाँ, 'आह' में अत्यन्त कर्णप्रिय संगीत अवश्य था, परन्तु फिल्म असफल ही रही, क्योंकि राजकपूर के चाहनेवाले उसे देवदास के रूप में नहीं देखना चाहते थे।
'जागते रहो' सफल बंगाली नाटक पर बनी फिल्म थी। यह महानगर के सभ्य समाज पर करारा व्यंग्य थी। एक बहुमन्जिला इमारत में समाज के सभी वर्गों के लोग रहते हैं। ऊपरी मन्जिलों में अमीर, शिक्षित मध्यम वर्ग के बीच के तलों पर और निचली मन्जिल पर गरीब वर्ग के लोग रहते हैं। एक छोटे-से गाँव से नायक नौकरी की तलाश में महानगर आता है। सारा दिन भूखा-प्यासा नायक इस क्रूर और पत्थर दिल शहर में भटकता है। वह बहुत प्यासा है और एक बहुमन्जिला इमारत में पानी पीने के लिए आता है। चौकीदार उसे चोर समझता है और शोर मचा देता है। मन्जिल-दर-मन्जिल, फ्लैट-दर-फ्लैट यह चोर सभ्य समाज का असली चेहरा देखता है-जाली नोट छापनेवाले, सट्टे और रेस के लिए बीवी के गहने चुरानेवाले, नकली डॉक्टर, बेइमान उद्योगपति इत्यादि। एक तरह से महानगर की असली तस्वीर। इस फिल्म को सेन्सर रोकना चाहती थी क्योंकि उन्हें लगा कि 'जागते रहो' भारत में वर्ग-संघर्ष की प्रेरणा दे सकती है। बाद में बंगाल सरकार के हस्तक्षेप से फिल्म प्रदर्शित हो सकी।
राजकपूर की यही मात्र फिल्म है, जिसमें फंतासी के कोई तत्त्व नहीं हैं। इसमें राजकपूर, अर्जुन की भाँति थे, जिसे केवल मछली की आँख अर्थात् सामाजिक सन्दर्भ ही दिखाई पड़ रहा है। राजकपूर ने इस गम्भीर कथा में भी जनता के मनोरंजन का प्रयास किया है। करारे व्यंग्य के बीच हास्य भी है। इस फिल्म को कार्लोवी वारी के अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में श्रेष्ठतम फिल्म का पुरस्कार प्राप्त हुआ था। इस पूरी फिल्मो में नायक कुछ नहीं बोलता । केवल अन्त में कहता है-'मैं थका-हारा-प्यासा, पानी पीने यहाँ चला आया और सब लोग मुझे चोर समझकर मेरे पीछे भागे, जैसे मैं आदमी नहीं, बावला कुत्ता हूँमैंने यहाँ हर किस्म के चेहरे देखे। मुझ गँवार को तुमने यही शिक्षा दी कि चोरी किए बगैर कोई बड़ा आदमी नहीं बन सकता...। क्या सचमुच चोरी किए बिना कोई बड़ा आदमी नहीं बन सकता? राजकपूर ने यह प्रश्न देश के अमीरों से पूछा है। यह वह जलता हुआ सवाल था, जिसने स्वतन्त्र भारत की आत्मा को झुलसा दिया। दरअसल 'जागते रहो' पिछली फिल्म 'श्री 420' का ही विस्तार है-फर्क सिर्फ इतना है कि 'श्री 420' में राजकपूर ने आधी हकीकत और आधा फसाना प्रस्तुत किया था, जो उनकी फिल्म और जिन्दगी का भी दर्शन था, जबकि 'जागते रहो' पूरी हकीकत का बयान था। भारत की जनता अनन्त चौपाल पर सारी उम्र आधी हकीकत आधा फसाना ही सुनना चाहती है और पूरी हकीकत या पूरे फसाने से मुँह मोड़ लेती है।
दरअसल 'जागते रहो' देश के बेइमान लोगों को एक कटघरे में खड़ा करती है। पूरी फिल्म उस हलफनामें की तरह है, जो गाँव के एक गरीब आदमी ने महानगर के लुटेरों के खिलाफ दिया है।
यह राजकपूर जैसे जागरूक फिल्मकार का ही काम था कि सन् 1954 और 56 में उसने भारतीय समाज का पूर्वानुमान लगा लिया था और भ्रष्टाचार के नंगे नाच के लिए लोगों को तैयार कर दिया था। 'जागते रहो' के समय उनके साथियों ने इस शुष्क विषय से बचने की सलाह दी थी और स्वयं राजकपूर भी परिणाम के प्रति शंकित थे। परन्तु सिनेमा के इस प्रेमी का दिल उस गम्भीर विषय पर आ गया था। उस समय राजकपूर की आयु भी मात्र तीस वर्ष की थी और देशप्रेम का भाव किसी *भी तरह हार मानना नहीं चाहता था। जो लोग राजकपूर को काइयाँ व्यापारी मात्र मानते रहे हैं, उन्हें जान लेना चाहिए कि बिना नायिका और रोमांटिक एंगल की फिल्म 'जागते रहो' राजकपूर ने क्यों बनाई? 'जागते रहो' इतनी यथार्थवादी फिल्म थी कि कथा का समय और फिल्म का समय लगभग एक ही है, अर्थात् पहले दृश्य में ही समय 1.20 निर्धारित हुआ और तीन घंटे बाद अलसभोर में फिल्म का घटनाक्रम समाप्त होता है।
जागते रहो की हकीकत में राजकपूर ने अपना कोई अफसाना नहीं मिलाया - इसलिए प्रारम्भ होते ही उसकी व्यावसायिक असफलता निश्चित थी, परन्तु सिनेमा के उस दीवाने को कौन रोक सकता था?
जोकर असफल होने के कई कारण हैं। यथार्थ और फंतासी तत्त्वों के बीच समन्वय का अभाव था, परन्तु असफल होने का असली कारण यह है कि इसे राजकपूर की आत्म-कथा कहकर प्रचारित किया गया, जबकि बमुश्किल यह राजकपूर की छवि की कथा थी। फिर इसमें वर्णित जोकर की मानसिक दशा विदेशी परिकल्पना हो सकती है। हमारे दर्शकों के लिए जोकर अर्थात् वह आदमी, जो फटा हुआ बाँस ठोंकता रहता है। भारतीय जीवन, विचारधारा में जोकर दार्शनिक नहीं होता! फिल्म जोकर ग्रीक दर्शन के अधिक निकट थी। फिल्म में हर पात्र मानकर चलता है कि राजू जोकर महान है-उसने किस दुखी आदमी की आँख से आँसू पोछा है-कहीं दिखाया तो नहीं गया। पूरी फिल्म आत्मग्लानि से भरी हुई थी। यह अत्यन्त दुख की बात है कि जब राजकपूर दिग्दर्शक-अभिनेता के रूप में अपने सर्वश्रेष्ठ स्वरूप में प्रस्तुत हुए, तब पटकथा और उसका मूल विचार ही धोखा दे गया।
फिल्म का पहला भाग शुद्ध कविता की तरह था और उसे लोगों ने बहुत अधिक पसन्द किया। सत्यजीत राय भी जोकर के पहले भाग से बहुत प्रभावित थे और उस भाग को एक स्वतन्त्र फिल्म की तरह प्रदर्शित किए जाने की उनकी इच्छा भी थी। जोकर का पहला भाग था-आधी हकीकत, आधा फसाना। दूसरा भाग आधी हकीकत तथा तीसरा आधा फसाना। इसलिए पहले भाग की लोकप्रियता में कोई सन्देह नहीं था। दूसरे भाग में माँ की मौत और तमाशे का जारी रखना सभी वर्ग के दर्शकों को अच्छा नहीं लगा। इसी भाग में हिन्दी और रूसी भाषा की परेशानियों वाले दृश्य आम जनता को अच्छे नहीं लगे। तीसरे भाग में यथार्थ और फंतासी के सन्तुलन का प्रश्न ही नहीं था सिर्फ कपोल कल्पना थी। 1986 में पुनः सम्पादित संस्करण बहुत सफल रहा और सबसे अधिक फुटेज तीसरे भाग के ही काटे गए।
पुनः सम्पादित संस्करण सफल रहा। कहानी तो वही थी, सिर्फ दूसरे और तीसरे भाग की लम्बाई कम हो गई थी। इन सोलह सालों में जोकर की महानता और तकनीकी गुणवत्ता के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका था और जनता को लगा कि हमने अपने प्रिय राजू के साथ इन्साफ नहीं किया है। दूसरा महत्त्वपूर्ण कारण यह था कि पन्द्रह से अठारह वर्ष आयु समूह के युवा वर्ग का राजकपूर से प्रथम परिचय 'राम तेरी गंगा' से हुआ था और वे इस निर्माता-निर्देशक के फैन अभी-अभी हुए थे। इस समूह को जोकर में अच्छा-खासा आनन्द आया, क्योंकि यह सबसे बड़ी मल्टी-स्टार फिल्म थी। तीसरा कारण यह रहा कि जोकर देखना फैशनेबल हो चुका था। अखबारवालों ने सोलह साल में इतना लिखा था कि जोकर नहीं देखना अक्षम्य अपराध बन चुका था। युवा पीढ़ी के दर्शकों ने तुलना कर देखा और उन्हें अपनी पीढ़ी के फिल्मकार 'इस प्यारे बूढ़े जोकर' के सामने बहुत फीके लगे। पूरे चालीस वर्ष तक राजकपूर ने सभी भारतीय युवा पीढ़ियों का प्यार पाया। हर वर्ग के दर्शक के साथ राजकपूर का रागात्मक तादात्म्य बना रहा। वह जवानी और मासूमियत का चिरन्तन चितेरा बना रहा।