राजकुमार की प्रतिज्ञा / यशपाल जैन / पृष्ठ 5

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह कहकर मैना मौन हो गई। तोता भी कुछ नहीं बोला।

पर राजकुमार उठा और उसने अपने भाले से एक ओर मिट्टी खोद कर पेड़ की थोड़ी-सी जड़ काट ली और आकर अपने बिस्तर पर लेट गया।

सवेरा हुआ। दोनों मित्र उठे और तैयार होकर आगे बढ़ गये।

आगे उन्हें वही नगर मिला, जिसकी चर्चा मैना ने की थी। शहर में बार-बार मुनादी हो रही थी कि राजकुमारी को जो भी अच्छा कर देगा, राजा उसके साथ राजकुमारी को ब्याह देगा और अपना आधा राज्य दे देगा।

राजकुमार ने अपना घोड़ा महल के फाटक की ओर बढ़ा दिया। वजीर के लड़के ने उसे रोकना चाहा, पर वह कहां मानने वाला था। फाटक पर जब चौकीदार ने उसे रोका तो उसने कहा, "मैं राजकुमारी का इलाज करूंगा।"

राजकुमार को राजा के सामने पेश किया गया। राजा ने कहा, "बड़े-से-बड़े वैद्य इसका इलाज कर गये हैं, पर मेरी प्यारी बेटी को कोई भी अच्छा नहीं कर सका।"


राजकुमार कुछ बोला नहीं। थोड़ा पानी लेकर उसने जड़ को घिसा और बेहाश पड़ी राजकुमारी के होठों पर लगा दिया।

पानी का लगाना था कि राजकुमारी के बदन में कुछ हलचल हुई। राजकुमार ने फिर थोड़ा पानी उसके मुंह से लगाया तो उसने आंखें खोल दीं।

यह देख कर राजा का रोम-रोम पुलकित हो उठा। उसने राजकुमार को सीने से लगा लिया। कुछ ही देर में राजकुमारी उठकर बैठ गई और चलने-फिरने लगी।

अपनी शर्त के अनुसार राजा ने कहा, "अब तुम मेरी बेटी को और मेरे आधे राज्य को ग्रहण करो।"

राजकुमार ने राजकुमारी के अच्छा हो जाने पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए राजा को अपनी प्रतिज्ञा बता दी।

सुनकर राजा ने कहा,"कोई बात नहीं है। तुम अपनी प्रतिज्ञा पूरी करके लौटो तो बेटी को साथ ले जाना और मन हो तो यहीं राज करना।"

सारे नगर में शोर मच गया। प्रजा ने राजकुमार को घेर लिया। राजा ने बड़ी

कठिनाई से लोगों को रोका और बड़े मान-सम्मान से राजकुमार को विदा देते हुए कहा, "यहां से दस कोस पर पश्चिम में, एक बाबा गुफा में रहते हैं। तुम उनसे मिलते जाना। वह तुम्हारी मदद करेंगे।"

राजकुमार महल से बाहर आया तो वजीर का लड़का उसकी राह देख रहा था। उसे सारा समाचार मिल गया था। उसने राजकुमार को सीने से लगाकर कहा, "यह क्या चमत्कार हुआ?"

राजकुमार ने उसे पिछली रात की घटना सुनाकर कहा, "इस दुनिया में, सचमुच कभी-कभी चमत्कार हो जाता है। न हम उस पेड़ के नीचे ठहरते, न यह करिश्मा होता। हमें तोता-मैंना का उपकार मानना चाहिए।"

राजा ने उन्हें बाबा से मिलने को कहा था। राजकुमार ने उसी दिशा में प्रस्थान किया।

दस कोस पर उन्हें वही गुफा मिल गई। उसमें बाबा बैठे थे। राजकुमार घोड़े से उतर कर उनके पास गया और उन्हें प्रणाम करके सामने खड़ा हो गया।

बाबा आंखें बंद किये बैठे थे। थोड़ी देर में उन्होंने आंखें खोलीं और जिज्ञासा भाव से कहा, "कैसे आये हो?"

राजकुमार ने सारा हाल सुना कर कहा, "राजा ने कहा था कि मैं आपके दर्शन करूं।"

बाबा बड़ी आत्मीयता से बोले, "वत्स, तुमने काम बड़ा कठिन और जोखिम भरा उठाया है।"

राजकुमार ने कहा, "बाबा, काम कठिन जरूर है, लेकिन आदमी तो बना ही कठिन काम करने के लिए है।"

बाबा की आंखें चमक उठीं। बोले, "तुमने ठीक कहा। जो कठिन काम से बचे वह आदमी कैसा!"

कुछ रुक कर उन्होंने कहा, "अब तुम सिंहल द्वीप के पास आ गये हो, लेकिन वहां पहुंचने के लिए तुम्हें महासागर पार करना होगा। कैसे करोगे?"

राजकुमार ने कोई झिझक नहीं दिखाई। बोला, "बाबा, जो शक्ति मुझे यहां तक ले आई है, वही शक्ति इस कठिनाई का भी रास्ता निकालेगी।"

"शाबाश,वत्स" बाबा ने विभोर होकर कहा,‘‘आदमी तो निमित्त है। काम शक्ति ही कराती है।"

इतना कहकर बाबा ने खड़ाऊं की एक जोड़ी उसे देते हुए कहा, "इन्हें पहन कर तुम सहज ही समुद्र पार कर जाओगे। जाओ, मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ रहेगा।"

राजकुमार ने अत्यन्त कृतज्ञ भाव से बाबा के चरणों में सिर रखा और बाबा ने


समुद्र पार करने के लिए खड़ाऊ की जोड़ी दी। उसकी पीठ थपथपाकर उसे आशीर्वाद देकर विदा किया।

घोड़ों पर सवार होकर जब वे चले तो राजकुमार भाव-विह्वल हो रहा था। उसने वजीर के लड़के से कहा,‘‘राजा बड़ा उदार था। उसके साथ जो हुआ, उसका बदला उसने चुका दिया। इतनी बड़ी समस्या को सहज ही हल कर दिया।"

दोनों आगे बढ़े। उनकी अब विशाल सागर को देखने के लिए आतुरता थी।

पर सहसा एक चिन्ता ने राजकुमार को आ घेरा। वह तो खड़ाऊं की मदद से सागर पार कर लेगा, पर उसके साथी का क्या होगा!

उसने वजीर के लड़के से कहा, "मित्र, आगे की लड़ाई अब मुझे अकेले को ही लड़नी पड़ेगी। जबतक मैं लौट कर नहीं आऊं, तुम यहीं रुके रहोगे।"

वजीर का लड़का हतप्रभ हो गया। यह कैसे होगा? अकेला राजकुमार कैसे उस किले को फतह कर सकेगा?


जब उसने राजकुमार से अपनी आशंका व्यक्त की तो राजकुमार ने उसे धीरज बंधाते हुए कहा, "तुम चिन्ता मत करो। आगे के लिए मेरे पास सारे साधन हैं।"

फिर इधर-उधर की बातें करते हुए वे आगे बढ़ते गये। राजकुमार का मन परेशान था। वजीर का लड़का भीतर-ही-भीतर परेशान था। यदि राजकुमार को कुछ हो गया तो वह राजा को कैसे मुंह दिखायेगा? राजकुमार हिम्मत से आगे बढृ रहा था। साथी का दिल बैठ रहा था।

दिन भर चलने के बाद अंत में उन्हें दहाड़ता सागर सामने दिखाई पड़ा। बड़ी-बड़ी लहरें उठ-उठकर एक भयानक दृश्य प्रस्तुत कर रही थीं। तट पर पहुंच कर दोनों घोड़ों से उतर पड़े और निर्निमेष नेत्रों से सागर की विशाल जल-राशि को देखने लगे।


अगले दिन प्रात: प्रस्थान करने का निश्चय किया। बड़े तड़के उठकर राजकुमार ने अपने घोड़े को खूब प्यार किया, वजीर के लड़के के बहते आंसूओं को पोंछ कर उसे सीने से लगाया और सूर्य की प्रथम किरण के फूटते ही पैरों में खड़ाऊं पहन कर सागर के तट पर जा खड़ा हुआ। उसके बाद ज्यों ही पैर पानी पर रखा, उसका सारा बदन कांप उठा; लेकिन तभी उसने अनुभव किया कि वह पानी पर ऐसे खड़ा है, जैसे धरती पर खड़ा हो। फिर तो वह एक-एक कदम रखते हुए आगे बढ़ने लगा। वजीर का लड़का आश्चर्य से देख रहा था कि पानी पर यह इस प्रकार कैसे चल रहा है? धीरे-धीर राजकुमार आंखों से ओझल हो गया।

राजकुमार का वह पूरा दिन सागर पर चलते-चलते

समुद्र पर चलता राजकुमार बीता। समुद्र की छोटी-बड़ी मछलियां दूसरे जीव-जन्तु उसकी तरफ आते थे, किन्तु उसके पास आने की हिम्मत नहीं कर पाते थे, कुछ दूर से ही भाग जाते थे।

राजकुमार बड़े आनंद से आगे बढ़ता गया। पर समुद्र का अंत उसे दिखाई नहीं देता था। पूरा दिन और पूरी रात उसने चलते-चलते बिताई। अगला दिन आया, तब उसे सागर का किनारा दीख पड़ा। वही था सिंहल द्वीप, जिसमें पद्मिनी को पाने के लिए वह घर से निकला था।

उस भूमि को देख कर उसे रोमांच हो आया, लेकिन दूर से ही उसने देखा कि काले-काले खूंखार राक्षस द्वीप की रक्षा के लिए खड़े हैं। राजकुमार ने भभूत की डिब्बी खोली और एक चुटकी भभूत मुंह में डाल ली। अब वह सबको देख सकता था। वह बेधड़क राक्षसों के बीच पहुंच गया। राक्षस बड़े ही डरावने थे। उनके रंग-रूप और चेहरों को देखकर रौंगटे खड़े हो जाते थे। उनके हाथों में हथियार देखकर प्राण सूख जाते थे। राजकुमार उस सबको देख कर सकपका रहा था, हालांकि उसे पता था कि कोई भी उसे देख नहीं पा रहा है।

राजकुमार ने निश्चय किया कि वह पहले शहर का एक चक्कर लगा ले। शहर को समझकर फिर आगे का कार्यक्रम तय करे। वह शहर में खूब घूमा। पद्मिनी के महल पर भी गया। किन्तु उसे लगा कि जोर-जबरदस्ती से महल में घुसना असंभव है। उसके लिए कोई जुगत करनी होगी।

नगर इतना सुन्दर और कलापूर्ण था कि अपने को भूल गया। ऐसा अनुपम नगर तो उसने पहले कभी नहीं देखा था। जगह-जगह पर हरी दूब के कालीन बिछे थे और रंग-बिरंगे पुष्पों से सारा शहर सुशोभित और महक रहा था। कदम-कदम पर गुलाब जल के फव्वारे चल रहे थे। सड़कें बड़ी साफ-सुथरी थीं। गंदगी का कहीं नाम भी नहीं था। बढ़िया पोशाकें पहन स्त्री-पुरुष, बच्चे इधर-उधर घूम रहे थे। उनका रूप बड़ा सलोना था।

राजकुमार उस सबको देखकर मुग्ध हो गया। उसे लग रहा था, जैसे वह इन्द्रपुरी में पहुंच गया है।

वह घूमता रहा, घूमता रहा। सहसा उसे ध्यान आया कि वह अदृश्य तो बन गया है, पर अपने असली रूप में कैसे आयेगा। यह सोचकर उसका मन व्यग्र हो गया। अब वह क्या करे?

उसकी हैरानी बढ़ती जा रही थी कि अचानक उसे उन बाबा का ध्यान हो आया, जिन्होंने भभूत की वह डिबिया दी थी। तभी उसे दिखाई दिया कि बाबा उसके सामने खड़े हैं। वह कह रहे थे कि यह ले दूसरी डिबिया, जिसकी भभूत खाते ही तू अपने असली रूप में आ जायेगा।

राजकुमार ने खुश होकर दूसरी डिबिया ले ली। बाबा अंतर्धान होते-होते कह गये कि दूसरी डिबिया का इस्तेमाल होशियारी से करना। यदि लोगों ने देख लिया तो राक्षस तुझे कच्चा ही खा जायेंगे।

अब राजकुमार ने, आगे क्या करना है, इस बारे में सोचा। सोचते-सोचते उसने काला और सफेद बाल निकाला। पहले उसने काला बाल जलाया। उस बाल का जलना था कि राक्षसों की फौज आकर खड़ी हो गई। उसने आदेश दिया कि पहरे के राक्षसों का खात्मा कर दो। देखते-देखते सारे राक्षस धराशायी हो गये। उसने थोड़े-से राक्षसों को रोककर शेष को विदा कर दिया।

इसके पश्चात उसने सफेद बाल जलाकर देवों को बुलाया।

उनके आने पर उसने कहा, "समुद्र के किनारे हीरे-जवाहरात तथा नाना प्रकार के आभूषणों से भरा एक जहाज खड़ा कर दो। पलक झपकते ही एक बड़ा ही सुन्दर जहाज खड़ा हो गया, उसमें हीरे-जवाहरात भरे थे और तरह-तरह के आभूषण थे। आभूषण एक से बढ़ कर एक थे।

यह सब होते ही नगर भर में खबर फैल गई कि परदेस से एक बहुत बड़ा सौदागर आया है। लोग अचंभे में रह गये कि ऐसा एकदम कैसा हो गया, लेकिन उनके सामने सौदागर मौजूद था और उसके पास बेशकीमती आभूषणों का भण्डार था।

यह खबर उड़ती-उड़ती राजमहल में पहुंची। पद्मिनी ने यह सब सुना तो उसका मन मचल उठा। उसने कहा,"उस व्यापारी को हमारे सामने लाओ।"

तुरंत पद्मिनी के दूत व्यापारी बने राजकुमार के पास पहुंचे और पद्मिनी का संदेश कह सुनाया। राजकुमार तो यह चाहता ही था। वह पद्मिनी से मिलने महल में पहुंचा तो वहां के दृश्य देखता ही रह गया। सबकुछ अनूठा था। महल का द्वार बहुत ही कला-कारीगरी पूर्ण था। अंदर लता-गुलमों के बीच फव्वारे अपनी बहार दिखा रहे थे। महल चारों ओर से घिरा था, किन्तु दूत के साथ होने के कारण उसे अंदर प्रवेश पाने में कोई कठिनाई नहीं हुई। पद्मिनी एक सजे-धजे कक्ष में सिंहासन पर विराजमान थी।

राजकुमार के कक्ष में प्रविष्ट होते ही उसने उसका अभिवादन किया। राजकुमार ने भी हाथ जोड़कर, सिर झुका कर अपना सम्मान व्यक्त किया।

पद्मिनी ने उसे बैठने का संकेत किया। वह आसन पर बैठ गया तो पद्मिनी ने पूछा, "तुम कहां से आये हो?"

पद्मिनी के मुंह से शब्द नहीं, मानों फूल झड़े हों।

राजकुमार एकटक उसकी ओर देखते हुए बोला, "मैं स्वर्ण-भूमि से आया हूं।"

"वहां क्या करते थे?" पद्मिनी ने अगला प्रश्न किया।

"जी, मैं हीरे-जवाहरात का व्यापारी हूं।" राजकुमार ने उत्तर दिया।

"यहां कैसे आये?" पद्मिनी ने थोड़ा गंभीर होकर पूछा।

"सुना था, आप आभूषणों और हीरे-जवाहरात की पारखी और प्रेमी हैं।" राजकुमार का संक्षिप्त उत्तर था।

"तो तुम कुछ आभूषण लाये हो?"

"जी हां।"

"कहां हैं?"

"समुद्र के किनारे मेरा जहाज खड़ा है।" राजकुमार ने सहज भाव से कह दिया।

पद्मिनी ने मुस्करा कर कहा, "तो तुम उन्हें मुझे दिखा सकते हो?"

"अवश्य। मैं तो यहां आया ही इस काम से हूं।"

"ठीक है। अब तुम जाओ।" पद्मिनी ने धीमी आवाज में कहा, "कल मेरा दूत तुम्हारे पास आयेगा। उसके साथ कुछ बढ़िया आभूषण ले आना।"