राजकुमार की प्रतिज्ञा / यशपाल जैन / पृष्ठ 6

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राजकुमार ने पद्मिनी से विदा तो ली, लेकिन उसके रूप-लावण्य से इतना मोहित हो गया कि अपनी सुधि-बुधि खो बैठा। उसके लिए चलना मुश्किल हो गया। वह मुड़-मुड़ कर पीछे देखता था। ऐसी रूपसी तो उसने जीवन में कभी नहीं देखी थी। परियां अपनी सुन्दरता के लिए प्रसिद्ध होती हैं, लेकिन वे भी पद्मिनी के आगे पानी भरती थीं। चारों दिशाओं में उसकी ख्याति ठीक ही फैली थी।

पद्मिनी के मोहपाश में फंसा राजकुमार जब अपने जहाज पर आया तो पद्मिनी उसकी आंखों के आगे घूम रही थी। उसके अंग-प्रत्यंग से सौंदर्य टपक रहा था। राजकुमार की भूख-प्यास गायब हो गई, नींद उड़ गई। बिस्तर पर पड़ा-पड़ा उसकी याद में वह लम्बी सांसें लेता रहा।

तभी देखता क्या है कि खड़ाऊं वाले बाबा उसके सामने उसकी ओर देख रहे हैं। राजकुमार ने उठने की कोशिश की, पर उससे उठा नहीं गया।

बाबा निमिष भर चुपचाप खड़े रहे, फिर बोले,

"क्या तुम यहां आहें भरने के लिए आये हो। अपने उद्देश्य को भूल गये? जो अपने उद्देश्य को भूल जाता है, वह पतित हो जाता है। अब तुम आगे की सोचो और अपने काम को जल्दी से निबटाओ। ऐसी जगह देरी करना अच्छा नहीं होता। कौन जाने, क्या मुसीबत सिर पर आ जाये।"

यह चेतावनी देकर बाबा अंतर्धान हो गये।

राजकुमार सिर झटककर उठ खड़ा हुआ, पर पद्मिनी की खुमारी आसानी से दूर होने वाली नहीं थी। पूरा दिन पद्मिनी की याद मैं बीता। रात का अंधेरा होने आया तो वह चौंक पड़ा उसे याद आया कि अगले दिन पद्मिनी का दूत आने वाला है और उसे अच्छे-अच्छे आभूषण लेकर पद्मिनी के पास जाना है।

उसने उठकर अलमारियां खोलीं और उनमें से आभूषण निकाले। बात उतनी आभूषणों की नहीं थी, जितनी पद्मिनी को रिझाने की थी। उसने ऐसे आभूषण चुने, जिन्हें देखकर पद्मिनी रीझ उठे। कान के, गले के, वक्ष के, कटि के, पैरों के, उसने उन आभूषणों को चुना, जिन्हें अप्सराएं धारण करती हैं।

इन आभूषणों का चुनाव करके उसने सोने की चेष्टा की, लेकिन एक पल को भी उसे नींद नहीं आई। वह दिन का उजाला देखने का प्रयत्न करता रहा।

दिन निकलने से पहले ही वह उठकर तैयार हो गया।

सवेरा हुआ, दोपहर हुई, पर कोई भी उसे लेने नहीं आया। राजकुमार ने समझ लिया कि पद्मिनी भूल गई। शाम को जब वह निराश हो गया था तो बड़े सपाटे से दूत आया और उसे तत्काल रवाना होने को कहा। वह तो सवेरे से ही तैयार बैठा था।

दूत के साथ चल दिया।

जब वह महल में पहुंचा, पद्मिनी उसका इंतजार कर रही थी। आज वह दूसरे कक्ष में थी, जिसमें चारों ओर आदमकद शीशे लगे थे। प्रकाश से सारा कमरा आलोकित हो रहा था। पद्मिनी का सौंदर्य आज कई गुना निखर उठा था।

पिछले दिन की तरह पद्मिनी ने और राजकुमार ने एक-दूसरे का अभिवादन किया और पद्मिनी के संकेत पर राजकुमार उसके समीप ही बैठ गया।

राजकुमार ने डिब्बे-डिब्बियों में से आभूषण निकाल कर उसे दिखाना आरंभ किया। पद्मिनी एक-एक आभूषण को हाथ में लेकर अपने शरीर से लगाकर शीशे में देखती कि कैसा लगता है और जो उसे पसंद आता, उसे एक ओर को रख देती। कभी-कभी वह राजकुमार की भी सलाह लेती।

आभूषणों को देखते-देखते काफी देर हो गई तो पद्मिनी ने कहा, "अब हम कल देखेंगे।"

बड़े अनमने भाव से राजकुमार ने कहा, "जैसी आपकी मर्जी।"

राजकुमार चला तो आज उसकी हालत कल से भी अधिक मोहासिक्त थी। आज उसने पद्मिनी के जिस रूप की झांकी पाई थी, वह तो अलौकिक था। उसकी आंखें चौंधिया रही थीं।

आज एक नई कल्पना ने उसके मन-मस्तिष्क को झकझोर डाला था। कुछ ही समय में वह उसे वहां से ले जायेगा। तब उसके अनुपम सौंदर्य के भार को वह कैसे वहन कर पायेगा? वह राजकुमार है, इतने बड़े राज्य के राजा का पुत्र है, किन्तु कहां राजगढ़ का राज्य और कहां सिंहल द्वीप की इस अपूर्व सुन्दरी का वैभव। दोनों में जमीन-आसमान का अंतर था।

पर उठा कदम अब वापस तो लिया नहीं जा सकता था।

विचारों के अथाह सागर में डूबता-उतरता राजकुमार अपने जहाज पर आया। वह हाल-बेहाल हो रहा था। भूख-प्यास, नींद सब उससे रूठ गई थी।

वह बिस्तर पर पड़ा रहा। उसकी हालत सन्निपात के रोगी के समान हो रही थी। वह अपने से ही बात करता था, पर उसके शब्द अस्पष्ट थे। कभी उसकी आवाज तेज हो जाती थी, कभी मंद पड़ जाती थी। राजकुमार स्वयं हैरान था कि उसे क्या हो गया है।

यह सब होते हुए भी उसने राजमहल में जाने की तैयारी की। कल की अपेक्षा आज और भी बढ़िया चीजें, निकालीं। उसे भरोसा था कि पद्मिनी उन्हें अवश्य पसंद करेगी।

अगले दिन उसे अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। जल्दी ही पद्मिनी का दूत आ गया और वह दोपहर होने से पहले ही महल में पहुंच गया।

पद्मिनी इन आभूषणों को देखकर चकित रह गई। ऐसे आभूषण उसने पहले कभी नहीं देखे थे। उनमें से उसने ढेर सारे पसंद कर लिये। जब वह उन्हें लेने लगी तो उसने देखा कि वे अधूरे हैं। जोड़ीदार आभूषणों में से अधिकांश एक-एक थे। पद्मिनी ने पूछा, "यह क्या है?"

राजकुमार ने उत्तर दिया,

"अभी तो जहाज पर आभूषणों का भण्डार भरा पड़ा है। मैंने सोचा कि आप जब अपनी पसंद पूरी कर लेंगी तब उनकी जोड़ियां पूरी कर दूंगा।"

पद्मिनी ने खीजकर कहा, "यह तुमने क्यों सोचा!"

राजकुमार ने कहा, "इसलिए कि मेरी इच्छा थी कि आप एक बार आभूषणों के सारे भण्डार को देख लें। अगर आपको आपत्ति न हो तो एक बार स्वयं जहाज पर जाकर पूरे भण्डार को देख लें।"

इस सुझाव पर राजकुमारी थोड़ा सोच में पड़ी। अंत में उसने राजकुमार की बात मान ली और वह जहाज पर जाने को राजी हो गई।

इसके बाद राजकुमार पद्मिनी से छुट्टी लेकर अपने जहाज पर लौट आया।

नियत समय पर पद्मिनी जहाज पर आई। वहां आभूषणों का अथाह भण्डार था। उन्हें देखने में पद्मिनी इतना लीन हो गई कि वह समय को ही नहीं, अपने को भी भूल गई। काम निबटाकर जाने को हुई तो राजकुमार ने कहा, "अब आप जाओगी कहां और कैसे?"

पद्मिनी चकित होकर बोली, "क्यों?"

"क्यों क्या? देखती नहीं कि जहाज चल रहा है और हम किनारे से बहुत दूर निकल आये हैं।"

पद्मिनी पहले तो मजाक समझी। फिर उसने देखा कि जहाज सचमुच चल रहा है। मारे गुस्से के उसका चेहरा तमतमा उठा। उत्तेजित होकर बोली,

"तुमने मेरे साथ छल किया है। इसकी तुम्हें सजा मिलेगी।"

राजकुमार हंस पड़ा। बोला, "पद्मिनी जी, हम सिंहल द्वीप की सीमा से बहुत दूर निकल आये हैं।"

पद्मिनी को लेकर जहाज चल पड़ा

पद्मिनी मछली की तरह तड़फड़ाने लगी। उसके चेहरे का रंग फीका पड़ गया।

राजकुमार ने कहा, "घबराओ नहीं। मैं राजगढ़ का राजकुमार हूं।" इसके बाद उसने पद्मिनी को शुरू से लेकर आखिर तक की सारी कहानी सुनाई। फिर बोला,

"तुम्हें पाने के लिए मुझे बड़े पापड़ बेलने पड़े हैं।"

उस कहानी को सुनकर पद्मिनी का संताप काफी हद तक दूर हो गया। बोली, "इसके लिए इतना कपट करने की क्या जरूरत थी।"

"कपट नहीं किया होता तो क्या तुम राजी से आ जातीं?"

पद्मिनी ने इसका उत्तर नहीं दिया। पर जो होना था, वह हो चुका था, अब उसके सामने बचने का कोई रास्ता नहीं था। भाग्य के साथ समझौता करने के अलावा अब और क्या हो सकता था। आहत हिरनी की तरह वह राजकुमार के पास आ बैठी।

जहाज तेजी से आगे बढ़ रहा था। पद्मिनी आवेश और आवेग से थक कर चूर हो गई थी। उसे सूझ नहीं रहा था, क्या करे। मन उसका इतना आस्थिर हो रहा था कि एकाग्र भाव से कुछ सोच भी नहीं पा रही थी। इतने में जहाज बड़े जोर से इधर-उधर होने लगा। पद्मिनी ने भयभीत होकर राजकुमार की ओर देखा। राजकुमार ने उसे सांत्वना देते हुए कह,

"घबराने की कोई बात नहीं है। समुद्री तूफान आ गया है। थोड़ी देर में शांत हो जायेगा।"

तूफान का वेग बढ़ता गया। बड़ी-बड़ी लहरें उठकर जहाज से टकराने लगीं। जहाज डगमगाने लगा। किसी आसन्न खतरे की आशंका से वह राजकुमार से लिपट गई। राजकुमार ने धीरे-धीरे उसकी पीठ थपथपाई और उसे भरोसा दिया कि उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा। फिर हंस कर राजकुमार बोला,

"अब तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं है। तुम्हारी रक्षा की जिम्मेदारी अब तुम्हारी नहीं, मेरी है।"

राजकुमार उसे दुलारता रहा। तूफान का वेग धीरे-धीरे शांत होता गया। पद्मिनी तन-मन से बेहद थक गई थी। सो गई। पर राजकुमार की आंख नहीं लगी।

अचानक उसे बड़ा धीमा स्वर सुनाई दिया। राजकुमार ने विस्मित होकर इधर-उधर देखा। जहाज पर उन दोनों के सिवा कोई नहीं था, फिर वह स्वर किसका था?

पता चला कि एक तोता और एक मैना आपस में बातें कर रहे हैं। अपनी आदत के अनुसार तोते ने मैना से कुछ कहने को कहा और मैना ने वही बात दोहराई कि वह आपबीती कहे या परबीती। तोता बोला, "कुछ आपबीती कहो, कुछ परबीती।"

मैना ने कहा, "कल मेरी जान बाल-बाल बची।"

तोते ने व्यग्र होकर पूछा, "क्या हुआ?"

मैना बोली, "क्या कहूं, जमाना बड़ा खराब हो गया है। आदमी ने हमारा जीना हराम कर दिया है। हम उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ते, फिर भी वह हमारी जान लेने पर तुला रहता है। कल मैं एक पेड़ पर बैठी थी कि किसी आदमी ने मुझ पर जानलेवा हमला किया। वह तो पेड़ के पत्तों और टहनियों ने मुझे बचा लिया, नहीं तो जान जाने में कुछ कसर नहीं रही थी।"

तोते के मुंह से एक दीर्घ निश्वास छूटा। फिर फुसफुसाया, "जाको राखे साइयां, मारि न सकिये कोय।"

मैना ने कातर होकर कहा,

"मर भी जाते तो क्या? अब मेरे लिए रोने वाला कौन है? बच्चे बड़े होकर जाने कहां चले गये! अकेली जान रह गई है।"

मैना सिसकने लगी। तोते ने कहा,

"मैना इतना दु:खी क्यों होती हो? जिसका कोई नहीं होता, उसका भगवान होता है।" फिर कुछ चुप रहकर बोला, "अब कुछ परबीती कहो।"

मैना ने कहा, "क्या कहूं, चारों तरफ दु:ख है। इस जहाज पर दो बड़े प्यारे लोग हैं, लेकिन हाय!"

मैना एकदम खामोश हो गई। फिर उसने कहा, "इनकी सांसें गिनी चुनी हैं! बेचारे !"

तोता व्यथित हो उठा। बोला, "रुक-रुक कर क्यों बोलती हो। साफ-साफ कहो कि इन्हें क्या होने वाला है।"

मैना ने कहा, "सवेरे यह जहाज किनारे लग जायेगा। वहां वजीर का लड़का मिल जायेगा। उसने इन दोनों के ठहरने की व्यवस्था एक घर में की है। इनके ठहरने के कुछ ही देर बाद घर ढह जायेगा। दोनों उसमें दब जायेंगे।"

तोते ने व्यथित होकर कहा, "यह तो बड़ा बुरा होगा, मैना। अभी इन बेचारों ने दुनिया में देखा ही क्या है। क्या इनके बचने का कोई उपाय नहीं है?"

"है।" बोली, "ये वजीर के लड़के की बात न मानें और उस घर में न ठहरें। अगर कोई सुनता हो तो गांठ बांध ले कि अगर ये उस घर में ठहरे तो इनके प्राण किसी भी हालत में नहीं बचेंगे।"

तोते ने पूछा, ‘‘उसके बाद तो खैरियत है न?’’

मैना ने कहा, "कहावत है कि मुसीबत कभी अकेली नहीं आती। इनकी मुसीबत यहीं खत्म नहीं हो जाती। ये जहां ठहरेंगे, वहां भी एक मुसीबत इनका पीछा कर रही है।

"वह क्या?"तोते ने अधीर होकर पूछा।

मैना बोली, "सवेरे उठकर राजकुमारी जैसे ही अपने जूते में पैर डालेगी, उसमें बैठा सांप उसे काट लेगा।"