राजकुमार की प्रतिज्ञा / यशपाल जैन / पृष्ठ 7
तोते के मुंह से निकला, "हे भगवान!" उसने आहत होकर पूछा, "क्या उससे बचने का कोई रास्ता नहीं है?"
मैना बोली, "रास्ता सब चीजों का होता है। यदि कोई सुनता हो तो राजकुमारी से पहले उठे और सांप को मारकर निकाल ले।"
"वहां से बचने के बाद तो फिर को कोई बाधा नहीं है?" तोते ने पूछा।
"एक बाधा और है।" मैना ने कहा।
"एक बाधा और है। "मैना ने कहा।
"वह क्या?"
"ये दोनों एक उड़नखटोले में बैठेंगे।" मैना बोली, "वह उड़नखटोला ऊपर जाकर खराब हो जायेगा और नीचे आ गिरेगा। उसमें ये दोनों मर जायेंगे।"
तोते ने कहा, "तुम्हारी ये बातें सुन-सुनकर मेरा दिल बैठा जा रहा है। जल्दी से बताओ कि इस आफत से बचने का कोई मार्ग है?"
मैना ने कहा, "अगर कोई सुनता हो तो वह इन्हें उड़नखटोले में न बैठने दे। इन सब बाधाओं से पार जाने पर इनकी जिन्दगी में आनंद ही आनंद है।"
तोते ने चैन की सांस ली।
राजकुमार मैना की एक-एक बात बड़े ध्यान से सुन रहा था। अपने ऊपर आने वाली आपदाओं से वह सिहर उठा, पर बचने के उपाय जानकर उसे खुशी हुई। उसने मन ही मन मैना का उपकार माना।
सवेरा होने में अब देर नहीं था। दोनों पक्षी उड़ गये। किनारा भी तो अब दूर नहीं था।•
जब जहाज किनारे आकर लगा तो राजकुमार ने देखा कि वजीर का लड़का वहां उपस्थित था। राजकुमार ने पद्मिनी से उसका परिचय कराते हुए कहा, "यह मेरा साथी है। सागर की यात्रा आरंभ करने तक मेरे दु:ख-सुख में इसने बराबर मेरा साथ दिया।"
वजीर का लड़का पद्मिनी को देखकर गदगद् हो गया। उस दिन वहीं रहने के लिए उसने एक भवन की व्यवस्था कर रक्खी थी। वहां पहुंचने पर राजकुमार को मैना की बात याद आ गई। राजकुमार ने कहा, "हमें यहां नहीं ठहराना। और कोई भवन देखो।"
वजीर के लड़के ने कहा, "आपके आने से पहले मैं यहां के सारे भवन देख चुका हूं। यह सबसे अच्छा है।"
पर राजकुमार ने उसकी एक न सुनी। वजीर के लड़के ने दूसरे भवन की खोज की। दूसरा भवन उस भवन के पास ही मिल गया। वे लोग उसमें ठहर गये। बड़ी देर तक राजकुमार उसे अपनी कहानी सुनाता रहा, फिर वे सो गये। आधी रात के बाद जोर की गड़गड़ाहट हुई। वजीर का लड़का उठकर बाहर आया तो देखा, पहला भवन गिरकर मिट्टी में मिल गया है। उसने राजकुमार की दूरंदेशी की भूरी-भूरी प्रशंसा की।
पद्मिनी तो सो गई, लेकिन राजकुमार रात-भर तारे गिनता रहा। भोर होने से पहले देखता क्या है कि एक काला विषैला सांप आया और कुण्डली मारकर पद्मिनी के जूते में बैठ गया। राजकुमार तो चिंतित होकर उस घड़ी की प्रतीक्षा कर जूते में बैठे सांप को मारा ही रहा था। उसने तलवार निकाल कर सांप के दो टुकड़े कर डाले और बाहर फैंक कर पद्मिनी के उठने की राह देखने लगा।
थोड़ी देर में पद्मिनी उठी। उसकी थकान दूर हो गई थी और उसके चेहरे की कांति लौट आई थी। उसने मुस्करा कर राजकुमार की ओर देखा। राजकुमार भी मुस्कराकर उसे पास गया और कुछ देर तक उसके मुलायम बालों को सहलाता रहा। पद्मिनी मन ही मन विभोर हो रही थी कि उसे अपने जीवन साथी के रूप में एक ऐसा सुन्दर और पराक्रमी व्यक्ति मिल गया।
वजीर के लड़के ने आगे की यात्रा उड़नखटोले से करने का विचार किया और एक उड़नखटोला मंगवा भी लिया। लेकिन राजकुमार ने उसमें बैठने से साफ इनकार कर दिया। वजीर के लड़के को बड़ा बुरा लगा, पर राजकुमार के आगे उसकी एक न चली। वे घोड़ों पर सवार होकर ही आगे बढ़े। उड़नखटोले में कुछ और लोग बैठ गये, लेकिन थोड़ी दूर जाकर उड़नखटोला धड़ाम से नीचे आ गिरा और उसमें बैठे सब लोगों की जाने चली गईं।
राजकुमार ने अनुभव किया कि मैना की भविष्यवाणी कितनी सच थी।
मार्ग में मनमोहक दूश्यों को देखते हुए वे लोग आगे बढ़ते गये। अपने द्वीप से पद्मिनी कभी बाहर नहीं गई थी। अब लम्बी-चौड़ी दुनिया उसके सामने थी। तरह तरह के लोग थे, तरह-तरह की उनकी पोशाकें थीं, तरह-तरह के उनके आचार-विचार थे।
राजकुमार ने कहा, "पद्मिनी, अब हम एक ऐसे बाबा के आश्रम में चल रहे हैं, जिनके हृदय में प्रेम का दरिया बहता है। जो भी उनके पास जाता है, उसका मन जीत लेते हैं। जिन खड़ाऊ को पहनकर मैंने सागर पार किया था, वे उन्होंने ही दिये थे।"
पद्मिनी आश्चर्य कर रही थी कि आखिर राजकुमार ने उस विशाल सागर को कैसे पार किया! अब उसका भेद खुल गया।
पद्मिनी ने कहा, "राजकुमार, संत लोग मोह-माया से परे होते हैं, लेकिन कोई-कोई संत ऐसे भी होते हैं, जो लोगों के दु:ख-दर्द को अपने ऊपर ले लेते हैं।"
कहते-कहते पद्मिनी के भीतर जैसे करुणा का स्रोत फूट पड़ा। उसने उसकी वाणी को अवरूद्ध कर दिया।
बाबा का आश्रम अब कुछ दूरी पर था। राजकुमार ने कहा, "हमें देर भले ही हो जाये, पर हम रुकेंगे बाबा के आश्रम में ही।" रास्ता काटने के लिए राजकुमार पद्मिनी को अच्छे-अच्छे किस्से सुनाता रहा। वह उन्हें ध्यान से सुनती रही। अंत में आसमान जब टिमटिमाते तारों से जगमगा उठा, वे आश्रम में पहुंच गये। बाबा कई दिन से उनकी राह देख रहे थे। इतनी देर कैसे हो गई, यह सोचकर उनका मन व्याकुल हो उठता था। राजकुमार को पद्मिनी के साथ सामने देखकर उनका हृदय हर्ष से पुलकित हो उठा। उन्होंने बड़ी ममता से उनका स्वागत किया और आश्रम के सर्वोत्कृष्ट कक्ष में उन्हें ठहराया। उस कक्ष में कोई दीवार नहीं थी। हरी-भरी वल्लरियों ने एक-दूसरे से लिपट कर उस कक्ष का निर्माण किया था। पद्मिनी उस कक्ष को देखकर रोमांचित हो उठी।
बाबा ने बड़े प्यार से कहा, "तुम लोग बड़ा सफर करके आये हो। थक गये होंगे। कुछ खा-पी लो और आराम से सो जाओ।"
रात बढ़ती जा रही थी, अंधकार गाढ़ा हो रहा था, पर उस घने अंधेरे में भी आश्रम की आत्मा अपनी माधुरी बिखेर रही थी। आश्रम के अंतेवासियों ने अपने शाही मेहमानों के लिए नाना प्रकार के व्यंजन तैयार कर दिये थे। बड़े उल्लास के वातावरण में मेहमानों ने आश्रम का प्रसाद पाया। प्रत्येक वस्तु इतनी स्वादिष्ट थी कि राजकुमार और पद्मिनी ने अनुभव किया, मानों वह किसी देवलोक में आये हों।
बाबा बराबर उनके नीचे रहे और उन्हें पुलकित देखकर स्वयं आनंद विभोर होते रहे। पद्मिनी ने कहा, "मैं तो सोच भी नहीं सकती थी कि यहां जंगल में इस प्रकार मंगल होगा। पर संतों की महिमा को कौन जानता है।"
यह सुनकर बाबा से चुप नहीं रहा गया। बोले, "पद्मिनी, आनंद भीतर की चीज़ है। जब आदमी का अंतर प्रमुदित होता है तो बाहर सब कुछ हरा-भरा दिखाई देता है।"
पद्मिनी ने सिर हिला कर बाबा के कथन को स्वीकृति दी।
प्रसाद ग्रहण करने के बाद सब सो गये।
बाबा ब्रह्म मुहूर्त में उठ गये। उन्होंने आश्रम का एक चक्कर लगाया, गोशाला में जाकर गायों को प्यार किया। तबतक राजकुमार और पद्मिनी उठकर वहां आ गये। बाबा ने हंसकर कहा, "पद्मिनी, तुम इस आश्रम में एक भी बूढ़ा पेड़ नहीं पाओगी, और देखो जब हम गायों को पुचकारते हैं, उनकी पीठ पर हाथ फिरते हैं तो उनके थनों से दूध की धारा बहने लगती है। पेड़-पौधे और पशु-पक्षी भी प्यार के भूखे होते हैं।"
पद्मिनी ने आश्रम में निगाह डाली तो सचमुच उसे एक भी बूढ़ा पेड़ दिखाई नहीं दिया और बाबा ने जब गायों को दुधाया और उनकी पीठ पर हाथ फिराया तो उनके थनों से दूध की धाराएं बहने लगीं। पद्मिनी चकित रह गई। ऐसा दृश्य उसने पहले कभी नहीं देखा था।
आश्रम में मेहमान एक दिन रहना चाहते थे। बाबा के प्रेम ने उन्हें चार दिन रोक लिया। वहां के वातावरण में पद्मिनी का मन इतना रम गया कि जब विदा होने का समय आया तो वह रोने लगी। बाबा का दिल भी भर आया। उन्होंने कहा, "पद्मिनी, आश्रम तुम्हारा है। जब जी में आये, फिर आ जाना।"
राजकुमार ने बाबा को खड़ाऊं लौटा दिये और उनका आशीर्वाद लेकर आगे बढ़ चले। राजगढ़ अभी दूर बहुत दूर था।
बाबा के आश्रम से निकलते ही अचानक राजकुमार को उस राजकन्या का ध्यान आया, जिसे उसने वृक्ष की जड़ से रोगमुक्त किया था। राजा ने उससे आग्रह किया था कि वह उनकी घोषणा के अनुसार पुत्री का वरण करे और उनका आधा राज्य ले ले।
राजकुमार ने अपने घोड़े को उसी नगर की ओर मोड़ दिया और कुछ ही समय में राजकुमार और पद्मिनी उस नगर में पहुंच गए। राजा राजकुमार के आगमन से बहुत आनन्दित हुए और जब उन्होंने पद्मिनी को देखा उनका हृदय गदगद् हो गया। उन्होंने राजकुमार और पद्मिनी का पूरे सम्मान के साथ स्वागत किया। राजा ने राजकुमार से राजकुमारी को साथ ले जाने का अनुरोध किया तो राजकुमार ने सहर्ष स्वीकार कर लिया, लेकिन जब राजा ने अपना आधा राज्य देने का प्रस्ताव किया तो राजकुमार ने उसे लेने में असमर्थता प्रकट की।
राजकुमार ने एक दिन वहां ठहर कर राजा का आतिथ्य स्वीकार किया और अगले दिन पद्मिनी और राजकुमारी को साथ लेकर राजगढ़ की ओर रवाना हो गया।
उनका अगला पड़ाव अब भभूत वाले बाबा के यहां था। मेहमानों का काफिला अब उसी ओर बढ़ रहा था। सूर्य की बाल-किरणें सारे वातावरण को बड़ी स्निग्धता प्रदान कर रही थीं। आकाश निर्मल था। पक्षी कलरव कर रहे थे। सबके मन उमंग से भरे थे। उन्हें राजगढ़ पहुंचने की जल्दी थी, पर मार्ग के अनुपम दूश्य उनके पैरों में जंजीर डाल रहे थे। पर्वत श्रृंखला पार करते हुए तो वे इतने अभिभूत हुए कि घोड़ों पर से उतर पड़े और उपत्यकाओं की हरियाली तथा पर्वत शिखरों पर सुहावनी धूप की सुनहरी चादर देखकर सबके मन आनंद से उछलने लगे।
पद्मिनी ने प्रकृति की उस छटा का जी-भर कर पान करते हुए राजकुमार का हाथ पकड़ लिया। बोली, "राजकुमार, आदमी अगर इतना ऊंचा उठ जाये, इतना निर्मल हो जाये तो धरती पर स्वर्ग उतर आये।"
एक अलौकिक आभा से पद्मिनी का मुख-मुण्डल दीप्त हो रहा था। उसे देखकर ऐसा लगता था जैसे इंद्रलोक की कोई देवांगना इस धरती पर आ गई हो। वह मुस्कराती थी तो प्यार के धवल निर्झर बहने लगते थे। वह हंसती थी तो सारी वादी महकते पुष्पों से आच्छादित हो उठती थी।
बड़े स्नेह से भीग कर राजकुमार बार-बार उस कोमलांगी की ओर देखता था। उस अनमोल सम्पदा को पाकर वह बार-बार अपने भाग्य को सराहता था। उसे लगा, पर्वतों के उतार-चढ़ाव से पद्मिनी थक जायेगी। किन्तु पद्मिनी तो रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। उसने भावुक होकर कहा, "पद्मिनी तुम अब घोड़े पर बैठ जाओ। तुम्हारे पैर दर्द करने लगेंगे।"
पद्मिनी ने बड़े उल्लास से कहा, "क्यों तुम मुझे इस आनंद से वंचित करना चाहते हो?"
उसके इस उद्गार से ऊंचे-ऊंचे पर्वत शिखर निहाल हो गये, उपत्यकाएं मुस्करा उठीं और घने गगनचुम्बी वृक्षों की हरीतिमा और गहरी हो गई। जाते समय राजकुमार ने वह पर्वत-माला बिना इधर-उधर देखे योंही पार कर ली थी, किन्तु आज तो उसके साथ एक ऐसा प्रकाशपुंज था, जिसके आलोक में भीतर-बाहर कहीं भी अंधकार रह नहीं सकता था। वे लोग घोड़ों पर सवार हो गये।
पर्वतों को लांघ कर फिर मैदान में आ गये। राजकुमार ने हंसकर कहा, "हम लोग भी कैसे हैं, जहां घोड़ों पर बैठना चाहिए था, वहां बैठे नहीं, लेकिन जहां पैदल चल सकते थे, वहां घोड़ों पर सवार हो गये हैं।"
पद्मिनी यह सुनकर चुप न रह सकी। बोली, "राजकुमार आदमी पैदल चलता है तो धरती को उसका खोया बेटा मिल जाता है। पहाड़ों में पैदल न चलना पहाड़ों का अपमान करना है।"
पद्मिनी की इस बुद्धिमत्ता से राजकुमार का रोम-रोम पुलकित हो उठा। वह क्षण भर उसकी ओर देखता रह गया।
बाबा का आश्रम अब दूर नहीं था। राजकुमार ने कहा, "पद्मिनी, अब हम उन बाबा के आश्रम में पहुंच रहे हैं, जिन्होंने मुझे एक ऐसी चमत्कारी भभूत दी थी, जिसे खाकर मुझे कोई नहीं देख सकता था और मैं सबको देख सकता था।"
फिर कुछ रुककर बोला, "उसी भभूत को मुंह में डालकर मैंने तुम्हारे सिंहल द्वीप में प्रवेश किया था।"
पद्मिनी ने कहा, "तो तुम मेरे महल में भी आये होंगे।"
"नहीं।" राजकुमार बोला, "मैंने तुम्हारे महल को बाहर से देखा था।"
"भीतर क्यों नहीं आये?" राजकुमारी ने थोड़ा व्यग्र होकर पूछा।
"महल में जाना चाहता था, लेकिन जाने क्या सोचकर मुझे डर लगा। फाटक बंद था। खोलने की हिम्मत नहीं हुई। नगर का एक चक्कर लगाकर लौट आया। तभी मुझे अचानक ध्यान आया कि मैं अद्दश्य तो हो गया हूं, पर अपने असली रूप में कैसे आऊंगा? जब मैं इस चिन्ता में डूबा था कि यही बाबा सामने आ खड़े हुए।
मैंने उन्हें अपनी चिन्ता बताई तो उन्होंने भभूत की एक डिब्बी और दी और कहा कि इसे खाओगे तो अपने असली रूप में आ जाओगे। यह कहकर बाबा अंतर्धान हो गये।"
पद्मिनी यह सुनकर हंस पड़ी।