राजकुमार की प्रतिज्ञा / यशपाल जैन / पृष्ठ 8
बाबा का आश्रम आ गया। आश्रम से कुछ दूर वे घोड़ों से उतर गये और पैदल वहां पहुंचे। बाबा आश्रम के पौधे को पानी पिला रहे थे। राजकुमार और उसके साथ एक गौरांग महिला को देखकर समझ गये कि वही पद्मिनी है। एक दूसरी राजकुमारी और थी। बड़ी आत्मीयता से उन्होंने उनका स्वागत किया और अंदर आश्रम मे ले गये।
साधु-संतों के प्रति पद्मिनी के मन में सदा से बड़े आदर-सम्मान की भावना रही थी। वह बार-बार बाबा के तेजस्वी चेहरे को देखती थी। उनके सान्निध्य में सारा आश्रम बड़ा भव्य लग रहा था। पद्मिनी ने उल्लसित होकर सांस ली और अपने आसन पर बैठकर आश्रम की एक-एक चीज को निहारने लगी। थोड़ी देर में बाबा के भक्तगण आ गये। वे मेहमानों को देखकर चले गये और थोड़ी देर में सुगंधित रंग-बिरंगे पुष्पों की मंजूषा लाये। उन पुष्पों का उपहार पाकर मेहमान आनंदविभोर हो उठे। बाबा ने कहा,
"हमारी यही सम्पदा है।"
बाबा के इस निश्छल व्यवहार से पद्मिनी ने सिर झुकाकर बाबा के चरणों में प्रणाम किया। बोली, "बाबा, इससे अधिक मूल्यवान धन-दौलत और क्या होगी!"
जाते समय राजकुमार ने उस आश्रम को सरसरी निगाह से देखा था। आज जी-भर कर देखा। पद्मिनी साथ थी। इससे उसे और भी आनंद आया। आश्रम की हर चीज से प्रेम टपक रहा था। वह एक अलौकिक संसार था। विषाद का वहां नाम नहीं था। उल्लास ही उल्लास था।
राजकुमार ने कहा, "पद्मिनी, ऐसे ही हमारी प्राचीन तपोवन रहे होंगे और ऐसे होंगे उनके संचालक। बाबा को देखो। लगता है, उनके भीतर अमृत भरा है।"
पद्मिनी तो ऐसा पहले से ही अनुभव कर रही थी। वह तो मानो अमृत से भरे सरोवर में अवगाहन कर रही थी।
आश्रम में वे तीन दिन रहे। उस धर्मालय को छोड़ने को उनका मन नहीं हो रहा था, पर राजगढ़ का मार्ग बड़ी बेचैनी से उनकी बाट जोह रहा था। बाबा कुछ दूर तक उनके साथ आये और आश्रम के जलाशय पर उन्हें आशीर्वाद देकर चले गये। जाते-जाते कह गये,
"किसी जमाने ने कण्व ऋषि ने इसी प्रकार राजा दुष्यंत को अपने आश्रम से विदाई दी थी।"
उनका मार्ग अभी निरापद नहीं था। कुछ रुकावटें और थीं, जिन्हें राजगढ़ पहुंचने से पहले पार करना था। अब आने वाली थी जादुई नगरी। राजकुमार ने चुपचाप उंगली की अंगूठी देखी। उसे अचानक विचार आया, यह अंगूठी उसकी तो रक्षा कर लेगी लेकिन यदि पद्मिनी के सामने कोई संकट आ गया तो क्या होगा? उसने मन को समझाया कि अब तक की सारी बाधाएं दूर होती गई हैं तो आगे की बाधाएं उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं कर सकेंगी।
वे लोग आगे बढ़ते गये। काफी चलने पर जब बस्ती की इमारतें दिखाई देने लगीं तो राजकुमार ने कहा, "यह लो, आ गई वह नगरी, जहां मैंने एक रात बिताई थी।" उसने उसे सारी बात सुना दी। सुनकर पद्मिनी के चेहरे का रंग फीका पड़ गया। यह देखकर राजकुमार ने कहा,
"पद्मिनी डरने की कोई बात नहीं है। तुम निश्चिंत रहो।"
नगरी में घुसकर वे सब जादूगरनी के घर पर गये। आज उस घर के बाहर बुढ़िया नहीं, युवती मिली। राजकुमार को देखते ही दौड़कर उसके पास आ गई। उसका चेहरा खिल रहा था। बोली, "मैं कब से तुम्हारी राह देख रही थी।" फिर उसने पद्मिनी की ओर देखकर कहा,
"वाह, यही हैं पद्मिनीजी। आओ बहन, अपने घर में आओ।"
दुसरी राजकुमारी का भी उसने सम्मान किया। वह उन्हें बड़े प्यार और आदर से अंदर ले गई। घर के ठाठ-बाट देखकर पद्मिनी का सारा भय काफूर हो गया। वहां डरावना कुछ नहीं था। एक आरामदेह पलंग पर उसने राजकुमार और पद्मिनी को बिठा दिया। फिर उनके लिए कुछ व्यंजन तैयार किये। सबने आनंद से खाना खाया। राजकुमार को अचंभा हो रहा था कि जब यहां बंदी बन कर रहा था, तब यह घर कैसा था और यहां का वातावरण कैसा था! आज? आज सबकुछ बदल गया था। वह महल जैसा था।
भोजन करके युवती ने कहा, "आप लोग थके होंगे। रातभर विश्राम कर लो। कल बड़े तड़के हम लोग यहां से रवाना हो जायेंगे।"
राजकुमार जब उसे बाल लौटाने लगा तो उसने कहा,
"अब मुझे इनसे क्या लेना-देना! मेरी मनोकामना पूरी हो गई। मुझे अब और क्या चाहिए?"
राजकुमार ने बालों को फैंका नहीं। उन्हीं की बदौलत तो उसे इतना बड़ा सौभाग्य प्राप्त हुआ था। उसने बड़े आदरभाव से उन्हें एके ओर को रख दिया।
बड़े सवेरे उठकर युवती ने राजकुमार और पद्मिनी को जगाया। वे उठे और तैयार होकर घर के बाहर आये। युवती ने आंसू भरी आंखों से हाथ जोड़कर उस घर से अंतिम विदा ली और राजकुमार और पद्मिनी के साथ रवाना हो गई।
चलते समय राजकुमार को वजीर के लड़के की याद आई, जिसने अपने प्राण मुंह में रखकर एक रात यहां बिताई थी। अब वह आज के खुशी के दिन के देखने के लिए वहां नहीं था। जहाज से उतरने के कुछ दिन बाद ही राजकुमार ने उसे राजगढ़ भेज दिया था, जिससे वहां उनके स्वागत की तैयारियां हो सकें।
वे सब आगे बढ़े। जादू की नगरी पीछे छूट गई। पद्मिनी और युवती के बीच बातें चल पड़ीं। पद्मिनी ने पूछा,
"बहन, तुम इस काम में कैसे पड़ गई?"
युवती ने उत्तर दिया, "यह हमारा पुश्तैनी धंधा है। कब से आरंभ हुआ, मैं नहीं जानती, पर मेरी मां ने मेरे पिता को उसी प्रकार पकड़ा था, जिस प्रकार मैंने राजकुमार को पकड़ा। मेरे पिता भी धवनगढ़ के राजकुमार थे। मेरी मां को सिद्धि प्राप्त थी कि आदमी को जो चाहे वह बना दे, सबसे आसान आदमी को मक्खी बनाकर रखना था। वह उड़ नहीं सकती थी। जहां चिपका दी, चिपकी रहती थी। मैंने अपनी मां से वह सिद्धि प्राप्त कर ली।"
पद्मिनी ने गंभीर होकर कहा, "यह अच्छा काम तो था नहीं।"
युवती ने इस पर क्रोध नहीं किया। सहज स्वर में बोली, "बहन, अच्छा हो या बुरा, पुश्तैनी धंधा तो चलता ही है।"
फिर वह थोड़ा चुप रहकर बोली, "तुम विश्वास नहीं करोगी, पर सच यह है कि मुझे भी वह अच्छा लगता था। रूप बदलते आदमी का शरीर सूख जाता था, उसका तेज मंद पड़ जाता था। जबतक वह वहां से निकल भागने का इरादा छोड़ नहीं देता था, हम भी अपने काम से बाज़ नहीं आते थे। मां उन्हें कुत्ता बना देती थी। बेचारे दिन-भर भौंकते रहते थे। अगर तुम उनकी हालत देखती तो तुम्हारा कलेजा बैठ जाता। पर हम लोगों की दया-ममता तो मर गई थी। मुझे खुशी है कि उस घिनौने धंधे से मेरा पिण्ड छूट गया।"
राजकुमार धीरे-धीरे कोई गीत गुनगुना रहा था। पद्मिनी ध्यान से सुनने लगी। उसके लिए यह एक नया अनुभव था।
प्यार से बढ़कर जगत में और क्या है?
नेह का नाता नहीं तो जिन्दगी का अर्थ क्या है?
हाट में सब कुछ तुम्हें मिल जायेगा,
इस धारा का राज्य भी तुमको सुलभ हो जायेगा।
किन्तु पा सकते नहीं तुमप्यार।
है बड़ा अनमोल मानव का दुलार।।
राजकुमार का कंठ सुरीला था। जब गीत समाप्त हुआ तो उसने देखा कि पद्मिनी मुग्ध भाव से उसे ताक रही है। वह हंसने लगा, पर पद्मिनी तो जाने किस लोक में विचरण कर रही थी।
बड़े आनंद से यात्रा आगे बढ़ती रही। सूर्य के पैर भी उनके साथ चलते रहे। रास्ते में उन्हें जलाश्य मिला, जिसके निर्मल जल में पक्षी किलोल कर रहे थे। दोपहर हो चुकी थी। राजकुमार ने घोड़े को रोक दिया। बोला, "आगे तो घना जंगल आयेगा। हम लोग यहीं पर भोजन कर लें और थोड़ा विश्राम भी।"
एक छायाकार वृक्ष के नीचे उन्होंने डेरा डाला, भोजन किया पर पक्षियों के प्रमोद ने उन्हें आराम नहीं करने दिया। वे आगे बढ़ चले। राजकुमार का अनुमान था कि वे दिन ढलने तक जंगल को पार कर लेंगे।
कुछ ही कदम चलने पर जंगल शुरू हो गया। जाते समय वहां के घोर अंधियारे में हाथ को हाथ नहीं सूझता था, दम घुटता था, पर इस समय तो उनके पास प्रकाश की अद्युत किरण थी। पद्मिनी ने ऐसा दृश्य पहले कभी नहीं देखा था। पर वह उससे भयभीत नहीं हुई, राजकुमार जिस गीत को गा रहा था, उसकी पहली दो कड़ियों को अपने कोमल स्वर से दोहराती रही:
प्यार से बढ़कर जगत में और क्या है?
नेह का नाता न हो तो जिन्दगी का अर्थ क्या है?
अब उसे सुनने की बारी राजकुमार की थी। उसका रोम-रोम पुलकित होता रहा।
व्यक्ति का सबसे बड़ा बल आत्मबल होता है। वह उसमें भरपूर था। राजकुमार को याद आया कि जाते समय उन्हें इस जंगल में एक बाघ मिला था, जिसका उसके साथी ने बिजली की गति से घोड़े से कूदकर काम तमाम कर दिया था। पर उसने वह घटना जानबूझ कर पद्मिनी को सुनाई नहीं। सूखे, धरती पर पड़े पत्तों से जब घोड़ों की टापें टकराती थीं तब ऐसा लगता था कि कोई खूंखार जानवर आया, परउस दिन एक छोटा जानवर भी उन्हें नहीं मिला।
पद्मिनी को पता था कि शेर-चीते, भेड़िये, जंगली सूअर घने वनों में बड़े आनंद से रहते हैं। उसकी इच्छा ऐसे जानवरों को दखने की थी, पर एक भी जानवर नहीं आया। पद्मिनी को बड़ी निराशा हुई।
जंगल पार हुआ। दिन ढलने को था। राजकुमार को अभी अपना एक और वचन पूरा करना था। वह बाग अधिक दूर नहीं था। वे लोग तेजी से आगे बढ़ते रहे। पद्मिनी को राजकुमार ने उस रात की दास्तान बड़े रसपूर्वक सुना दी थी। पद्मिनी का मन वहां पहुंचने को बड़ा आतुर हो रहा था।
थोड़ा आगे बढ़ने पर उन्हें बाग का विशाल फाटक दिखाई देने लगा। राजकुमार ने संकेत से पद्मिनी को बता दिया कि यही वह बाग है।
फाटक पहले की तरह खुला था। उनके अंदर घुसते ही बंद हो गया, पर आज राजकुमार को पिछली बार की तरह पेड़ पर छिपकर नहीं बैठना पड़ा वे सब मजे में खड़े-खड़े परियों के नजारे देखते रहे।
राजकुमारी जब सिंहासन पर आसीन हुई तो राजकुमार अपने आप पद्मिनी और दोनों अन्य सुन्दरियों को लेकर उसके सामने जा खड़ा हुआ। उन्हें देखकर राजकुमारी का रोम-रोम हर्षित हो उठा। अब वह उसके लिए कोई अजनबी राजकुमार नहीं था। उसके जीवन का एक अंग था।
राजकुमारी ने पद्मिनी को तत्काल पहचान लिया। बोली, "पद्मिनी बहन, तुम मेरे पास आ जाओ।" इतना कहकर वह सिंहासन से उठी और बड़े प्यार से हाथ पकड़ कर उसने उसे अपने पास बिठा लिया। इसी बीच राजकुमार ने दूसरी राजकुमारियों का परिचय करा दिया। राजकुमारी ने उनका भी स्वागत किया।
वह बाग अब उन विशेष मेहमानों की उपस्थिति से कई गुना जगमगा उठा।
राजकुमारी ने उनके ठहरने की व्यवस्था कर दी। उसने राजकुमार से कहा,
"मुझसे मिलने और मुझे विदा देने के लिए मेरी सखियां बहुत आतुर हैं। कल वे सब यहां इकट्ठी होंगी। परसों हम लोग यहां से प्रस्थान कर देंगे।" राजकुमार ने बड़ी प्रसन्नता से इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।
अगले दिन उस बाग की शोभा देखते ही बनती थी। दूर-पास की, छोटी-बड़ी सारी परियां वहां इकट्ठी हो गईं। उन्हें देखकर लगता था कि इंद्रलोक धरती पर उतर आया। सबके हृदय उमंग से भरे थे। राजकुमार ने सबका मन मोह लिया था और पद्मिनी ने तो जैसे सब पर जादू कर दिया था। उसके सौंदर्य को देखकर परियों की गर्दन नीची हो गई थी। पद्मिनी उनके बीच आमोद भरी मुद्रा में घूम रही थी। उसके जीवन में अब पूरी तरह नया मोड़ आ गया था।
वह रात और अगला दिन उनका बड़े आनंद से बीता। परियों की राजकुमारी का विशाल परिवार वहां जमा हो गया था। उन्होंने मेहमानों को नाना प्रकार के मूल्यवान उपहार दिये। राजकुमारी के माता-पिता भी आ गये। वे जिस लोक के स्वामी थे, वहां की प्रजा भी अपनी प्यारी राजकुमारी को विदा देने उमड़ पड़ी। जिसने उस समारोह को देखा, धन्य हो गया।