राजकुमार की प्रतिज्ञा / यशपाल जैन / पृष्ठ 9
<< पिछला पृष्ठ | पृष्ठ सारणी | अगला पृष्ठ |
तीसरे दिन उन्होंने वहां से विदा ली। राजकुमारी के पिता ने विदाई के समय राजकुमार को अंक में भर लिया। उनकी आंखों से कई बूंदें टपक पड़ीं। ममता केवल मर्त्यलोक की थाती नहीं है। ब्रह्माण्ड के सभी लोकों में मोह-ममता के सागर लहराते हैं। सच यह है कि बिना प्यार-ममता के कोई रह नहीं सकता। जिसके पास हृदय है, उसके पास प्यार की अनमोल सम्पदा है। मां ने बेटी को इतने आभूषण दिये कि उनको देखकर राजकुमारी अपने सिंहल द्वीप के आभूषणों को भूल गयी।
सबके जीवन का वह ऐसा अनुभव था, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता था।
अब उन लोगों ने राजगढ़ की ओर प्रस्थान किया। जब राजकुमार वजीर के लड़के के साथ वहां से चला था, उसका मन तरह-तरह की आशंकाओं से भरा था। सिंहल द्वीप का जो चित्र उसके सामने आया था, वह किसी भी साहसी के दिल को दहला सकता था, किन्तु राजकुमार तो प्रतिज्ञाबद्ध था। उसे वहां जाना और पद्मिनी को प्राप्त करना था। उसने अपना हौसला बनाये रक्खा। फिर भी उसके मन के एक कोने में थोड़ा डर छिपा था। वह वहा कैसे पहुंचेगा? किन्तु उसके बंद रास्ते एक के बाद एक खुलते गये। उसकी प्रतिज्ञा पूर्ण हुई। उसे वह बेशकीमती रत्न मिल गया, जिसे पाना बड़े भारी सौभाग्य की बात थी।
पूरी टोली उत्साह से भरकर अपने गंतव्य की ओर जा रही थी। राजकुमार के आनंद की सीमा नहीं थी। कहावत है कि जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि सफलता है। यदि सफलता नहीं मिलती तो व्यक्ति अनुभव करता है, वह पराजित हो गया। राजकुमार ने पद्मिनी को लाने की प्रतिज्ञा की थी। उसका सिंहल द्वीप पहुंच जाना और एक अभेद्य दुर्ग को बेध कर पद्मिनी को ले आना आश्चर्यजनक उपलब्धि थी, जिस पर सहज ही गर्व किया जा सकता था। राजकुमार को गर्व तो नहीं था पर उसे संतोष अवश्य था।
राजगढ़ अब भी काफी दूर था। राजकुमार बहुत दिनों के बाद लौट रहा था। तरह-तरह के विचार उसके मन में उठ रहे थे। सबसे छोटा होने के कारण वह राजा का सबसे लाडला बेटा था। उसके चले जाने और इतने दिन कोई खोज-खबर न मिलने पर उनकी क्या हालत हुई होगी। कहीं कुछ अनहोनी न हो गयी हो!
‘‘राजगढ़ अभी दूर है।’’
इस विचार के आते ही राजकुमार का सिर चकराने लगा। ऐसी स्थिति होती है तो प्रियजन के अनिष्ट की कल्पना सहज ही मन में उठ आती है।
राजकुमार ने बार-बार सिर झटका। मन ही मन बुदबुदाया, "नहीं-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। उसके पिता सकुशल हैं। जिस भाभी के कारण उसे इतने दिन का देशनिकाला मिला था, वह भी सानंद होंगी। उसके मन में उनके प्रति आक्रोश शांत हो गया था। कृतज्ञता का भाव उमड़ आया था। आखिर उन्हीं के उपालंभ से उसे पद्मिनी जैसी गुणवती और रूपमती नारी-रत्न का उपहार मिला।
राजकुमार को विचारमग्न देखकर पद्मिनी ने मुस्करा कर पूछा, "क्यों, क्या सोच रहे हैं? अब तो तुम्हारा मनचाहा हो गया। सपना साकार हो गया। कोई हैरानी है क्या?"
राजकुमार अपने में लौट आया। बोला, "अब मुझे कोई हैरानी नहीं है। पद्मिनी, आदमी के सामने विशाद हो या हर्ष, वह विचारों में डूब जाता है। मेरा मन भी पिता के लम्बे बिछोह की कल्पना से कुछ दु:खी हो उठा था, पर अब तो मेरे अंदर आनंद का सागर लहरा रहा है। तुम मिल गई, मैं धन्य हो गया।"
पद्मिनी राजकुमार के अंदर से निकले उद्गगारों को सुनकर विभोर हो उठी। बोली, "माता-पिता की याद तो मुझे भी सता रही है, किन्तु जो सौभाग्य मुझे मिला है, उसे न साराहूं तो मुझसे बढ़कर कृतध्न कौन होगा।"
कहते-कहते पद्मिनी की आंखें चमक उठीं। चेहरा आभा-मंडित हो गया।
उसके भावों तो ताड़कर राजकुमार अभिभूत हो गया। बोला, "पद्मिनी तुमसे कहीं अधिक भाग्य की सराहना मुझे करनी चाहिए। तुम्हें कोई भी राजकुमार मिल सकता था, पर पद्मिनी तो हर किसी के भाग्य में नहीं बदी थी।"
राजकुमार और पद्मिनी दोनों ही अब सब प्रकार के भार से मुक्त हो गये थे। उनके सामने अब भावी जीवन के मधुर सपने थे।
चलते-चलते उन्हें एक विशाल सरोवर मिला। जाते समय राजकुमार इतना चिंतित था कि उसका ध्यान उस ओर नहीं था, पर अब उसके मन की दशा भिन्न थी। सरोवर में पक्षी क्रीड़ा कर रहे थे और नाना वर्ण के कमल खिले थे। पास ही एक सुन्दर बाग था। राजकुमार ने कहा,
"हम लोग थोड़ी देर यहां ठहर जायें। सरोवर में स्नान कर लें और थोड़ा खा-पी लें। तरोताजा होकर राजगढ़ पहुंचेंगे तो हमारा आनंद और बढ़ जायेगा।"
राजकुमार के इस प्रस्ताव को पद्मिनी ने ही नहीं, सबने स्वीकार किया और वे वहां रुक गये।
सरोवर में जब उन्होंने स्नान किया तो पक्षी भी उनके भाग्य पर ईर्ष्या कर उठे, कमल के फूलों की चमक बढ़ गई और सरोवर तो जैसे धन्य हो गया। ऐसा सौभाग्य तो उसे पहले कभी नहीं मिला था।
स्नान करके उन सबने मिलकर खाना खाया। उनके आमोद-प्रमोद में वहां के पशु-पक्षी भी शामिल हो गये। पद्मिनी ने अपने हाथ से उन्हें खिलाया।
सूर्य सिर पर आ गया था। थोड़ी देर आराम करके वे आगे बढ़ चले। राजकुमार ने कहा, "दिन छिपने से पहले हमें राजगढ़ पहुंच जाना चाहिए।
रास्ते के खेत-खलिहान कभी-कभी उनका ध्यान खींच लेते थे, कभी कभी उड़ते हुए उनके पास से गुजर जाते थे। एक जगह झाड़ियों से घिरे मैदान में हिरण और उनके शावक उछल-कूद करते दीखे। पद्मिनी को वे बड़े अच्छे लगे। उसने राजकुमार से कहा, "एक हिरण को हम साथ क्यों न ले चलें। देखो, कितने आकर्षक हैं।"
राजकुमार ने हंसकर कहा, "नहीं, मैं ऐसा नहीं करूंगा। मुझे अपनी सीता खोनी नहीं है।"
पद्मिनी हंस पड़ी। वह सीता-हरण की कहानी कभी पहले सुन चुकी थी। बोली, "नहीं वह तो मैं नहीं चाहूंगी। कितनी साधना के बाद तो हम लोग मिल पाये हैं।"
थोड़ी देर में राजगढ़ की सीमा आ गई। सब रोमांचित हो उठे। वहां पर स्वयं राजा उपस्थित थे, सारी प्रजा उपस्थित थी। उन्होंने सारी टोली का स्वागत किया। पिता-पुत्र का जब मिलन हुआ तो मारे खुशी के उनकी आंखों से आंखू निकल पड़े। राजा को अपना खोया बेटा मिल गया था और बेटे को उस पर प्यार बरसाते पिता।
गाजे-बाजे के साथ सबने नगर प्रवेश किया। सजी-धजी नगरी बाहें फैलाकर उनका अभिनंदन कर रही थी। मकानों की छतों और छज्जों पर खड़ी स्त्रियां और बच्चे उनपर फूलों की वर्षा कर रहे थे। महल में रानियां उनकी आरती उतारने के लिए आतुर हो रही थीं।
बड़े उल्लास से राजकुमार ने अपनी वाग्दनाओं के साथ महल में पैर रक्खा। आरती के मंद-मंद प्रकाश और अगरू की महक से महल की शोभा में चार चांद लग गये।
थोड़ी देर में राजदरबार खचाखच भर गया। प्रजा भी अपने राजसी मेहमानों का स्वागत करना चाहती थी। राजकुमार जब चारों राजकुमारियों के साथ वहां आया तो प्रजा ने अपने प्यार दुलार से उन्हें सराबोर कर दिया।
छोटे राजकुमार के बिना जो राजदरबार सूना पड़ा था, फिर जगमगा उठा।
राजदरबार में राजकुमार तथा राजकुमारियों का स्वागत महल को देखकर सारी राजकुमारियों को अपने-अपने महल क्षण-भर के लिए याद आये, जिन्हें वे पीछे छोड़ आई थीं। तभी उन्हें ध्यान आया कि अब उन महलों से उनका सरोकार क्या है। वे अब राजकुमार से रिश्ता जुड़ जाने पर पराये हो गये हैं।
छोटे भाभी को राजकुमार के सामने आने में थोड़ा संकोच हो रहा था। मिलने-जुलने से अवकाश मिलने पर राजकुमार स्वयं भाभी के कक्ष में गया और उनके पैर छूकर आशीर्वाद मांगा। दोनों की आंखें बहने लगीं। भाभी कुछ कहें कि उससे पहले राजकुमार ने कहा,
"भाभी, मैं तुम्हारा अहसान कभी नहीं भूल सकूंगा। यदि तुमने मुझे उलहना न दिया होता तो यह हीरे-सी राजकुमारियां कैसे मिलतीं।"
भाभी के मुंह से बस यही निकला, "तुमने पद्मिनी को लाकर महल को जगमगा दिया।"
शुभ मुहूर्त्त देखकर राजकुमार के विवाह की तैयारियां की गईं। बड़ी धूमधाम से विवाह हुआ। राजकुमार को एक से बढ़कर एक राजकुमारियां मिल गईं। महल आलोक से भर गया। प्रजा आनंदित हुई, राजा सुखी हुआ।
पर कहानी खत्म नहीं हुई, और होती भी कहां? वह तो चलती रहती है।
जीवन स्वयं एक लम्बी कहानी है।
<< पिछला पृष्ठ | पृष्ठ सारणी | अगला पृष्ठ |