राजर्षि / परिच्छेद 17 / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / जयश्री दत्त

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ध्रुव उसी दिन शाम को नक्षत्रराय को देखते ही "चाचा" पुकारते हुए दौड़ा हुआ आया, छोटे-छोटे दोनों हाथ उसके गले में डाल कर, उसके कपोल से कपोल छुआ कर, मुँह के पास मुँह ले गया। धीरे से बोला, "चाचा।"

नक्षत्र ने कहा, "छी:, ऐसी बात नहीं कहते, मैं तुम्हारा चाचा नहीं हूँ।"

ध्रुव अब तक उसे हमेशा चाचा कहता चला आ रहा था, आज अचानक मना सुन कर वह भारी आश्चर्य में पड़ गया। कुछ देर गंभीर चेहरा बनाए बैठा रहा; उसके बाद नक्षत्र की ओर बड़ी-बड़ी आँखें उठा कर बोला, "तुम कौन हो?"

नक्षत्रराय ने कहा, "मैं तुम्हारा चाचा नहीं हूँ।"

सुन कर ध्रुव को अचानक बहुत हँसी आई - इससे बड़ी असंभव बात इसके पहले कभी नहीं सुनी थी; वह हँसते हुए बोला, "तुम चाचा हो।" नक्षत्र जितना मना करने लगा, वह उतना ही कहने लगा, "तुम चाचा हो।" उसकी हँसी भी उतनी ही बढ़ने लगी। वह नक्षत्रराय को चाचा कह कर चिढ़ाने लगा। नक्षत्र बोला, "ध्रुव, तुम अपनी दीदी को देखने जाओगे?"

ध्रुव जल्दी से नक्षत्र का गला छोड़ते हुए खड़ा होकर बोला, "दीदी कहाँ है?"

नक्षत्र ने कहा, "माँ के पास।"

ध्रुव ने कहा, "माँ कहाँ है?"

नक्षत्र, "माँ एक जगह पर है। मैं तुम्हें वहाँ लेकर जा सकता हूँ।"

ध्रुव ने ताली बजाते हुए पूछा, "कब ले जाओगे चाचा?"

नक्षत्र, "इसी समय।"

ध्रुव आनंद में चीत्कार करते हुए नक्षत्र के गले से जोर से लिपट गया; नक्षत्र उसे गोद में उठा कर, चादर से ढक कर गुप्त द्वार से बाहर निकल गया।

आज रात भी लोगों का बाहर निकलना निषिद्ध है। इसी कारण मार्ग में न प्रहरी हैं, न पथिक। आकाश में पूर्ण चन्द्रमा है।

नक्षत्रराय मंदिर पहुँच कर ध्रुव को रघुपति के हाथों में सौंपने को तैयार हो गया। ध्रुव रघुपति को देख कर ताकत के साथ नक्षत्रराय से चिपट गया, किसी भी तरह छोड़ना नहीं चाहा। रघुपति ने उसे बलपूर्वक छीन लिया। ध्रुव 'चाचा' पुकारते हुए रो पड़ा। नक्षत्रराय की आँखों में आँसू आ गए, लेकिन रघुपति के सामने हृदय की यह दुर्बलता दिखाते हुए उसे भारी लज्जा आने लगी। उसने समझ लिया कि जैसे वह पत्थर का बना है। तब ध्रुव रोते-रोते 'दीदी' 'दीदी' पुकारने लगा, किन्तु दीदी नहीं आई। रघुपति ने वज्र-स्वर में धमकाया। डर के मारे ध्रुव का रोना बंद हो गया। उसका रुदन केवल सिसकियों में बाहर आने लगा। चतुर्दश देव-मूर्तियाँ देखती रहीं।

गोविन्दमाणिक्य रात में स्वप्न में क्रंदन सुन कर जाग पड़े। सहसा सुना, कोई उनकी खिड़की के नीचे कातर स्वर में पुकार रहा है, "महाराज! महाराज!"

राजा ने जल्दी से उठ कर चन्द्रमा के प्रकाश में देखा, ध्रुव का चाचा, केदारेश्वर है। पूछा, "क्या हुआ?"

केदारेश्वर बोला, "महाराज, मेरा ध्रुव कहाँ है?"

राजा ने कहा, "क्यों, अपनी शैया पर नहीं है?"

"नहीं।"

केदारेश्वर कहने लगा, "दोपहर के बाद से ध्रुव को न देख पाने के कारण, पूछने पर युवराज नक्षत्रराय के सेवक ने बताया, ध्रुव अंत:पुर में युवराज के पास है। सुन कर मैं निश्चिन्त था। बहुत रात होती देख मुझे आशंका हुई; खोजने पर पता चला, युवराज नक्षत्रराय महल में नहीं हैं। मैंने महाराज के साथ भेंट करने की प्रार्थना के लिए बहुत कोशिशें कीं, लेकिन प्रहरियों ने किसी भी तरह मेरी बात पर ध्यान नहीं दिया... इसी कारण खिड़की के नीचे से महाराज को पुकारा, आपकी नींद तोड़ दी है - मेरे इस अपराध को क्षमा कीजिए।"

राजा के मन में एक विचार विद्युत की भाँति कौंध गया। उन्होंने चार प्रहरियों को पुकारा, कहा, "सशस्त्र मेरा अनुसरण करो।"

एक बोला, "महाराज, आज रात मार्ग में बाहर निकलना निषिद्ध है।"

राजा बोले, "मैं आदेश दे रहा हूँ।"

केदारेश्वर साथ जाने को तैयार हुआ, राजा ने उसे लौट जाने को कह दिया। राजा चन्द्रालोक में निर्जन मार्ग पर मंदिर की ओर चल पड़े।

मंदिर का द्वार अचानक खुला, तो दिखाई पड़ा, नक्षत्र और रघुपति खड्ग सम्मुख रखे मदिरापान कर रहे हैं। प्रकाश अधिक नहीं है, केवल एक दीपक जल रहा है। ध्रुव कहाँ है? ध्रुव काली की मूर्ति के पैरों के निकट लेटे-लेटे सो गया है - उसके कपोलों पर आँसुओं की रेखा सूख गई है, दोनों होठ तनिक खुल गए हैं, चेहरे पर भय नहीं, चिन्ता नहीं - मानो यह पाषाण-शैया नहीं है, वह दीदी की गोद में सो रहा है। मानो दीदी ने चूम कर उसकी आँखों के आँसू पोंछ दिए हैं।

मदिरा पीकर नक्षत्र की हिम्मत खुल गई थी, किन्तु रघुपति स्थिर बैठा पूजा के लग्न की प्रतीक्षा कर रहा था - नक्षत्र के प्रलाप पर जरा भी ध्यान नहीं दे रहा था। नक्षत्र कह रहा था, "ठाकुर, तुम मन-ही-मन डर रहे हो। तुम सोच रहे हो, मैं भी डर रहा हूँ। कोई डर नहीं ठाकुर! डर किसका! डर किसको! मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा। तुम क्या समझते हो, राजा से डरता हूँ! मैं शाहशुजा से नहीं डरता, मैं शाहजहाँ से नहीं डरता। ठाकुर, तुमने कहा क्यों नहीं - मैं राजा को पकड़ लाता, देवी को संतुष्ट कर दिया जाता। इतने- से लड़के का रक्त ही कितना होगा!"

उसी समय मंदिर की दीवार पर परछाईं पड़ी। नक्षत्रराय ने पीछे देखा - राजा। क्षण भर में नशा हिरन हो गया। अपनी परछाईं से भी ज्यादा काला पड़ गया। सोते हुए ध्रुव को तेजी से गोदी में उठा कर गोविन्दमाणिक्य ने प्रहरियों को आदेश दिया, "इन दोनों लोगों को बंदी बनाओ।"

चार प्रहरियों ने रघुपति और नक्षत्रराय के दोनों हाथ पकड़ लिए। ध्रुव को छाती में दबा कर राजा ज्योत्स्नालोक में निर्जन मार्ग से महल लौट आए। उस रात रघुपति और नक्षत्रराय कारागार में रहे।