राजर्षि / परिच्छेद 18 / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / जयश्री दत्त
अगले दिन न्याय। न्यायालय में लोगों की भीड़। न्यायाधीश के आसन पर राजा विराजमान हैं, सभासद चारों ओर बैठे हैं। दोनों बंदी सामने हैं। किसी के भी हाथों में हथकड़ी नहीं हैं। केवल सशस्त्र प्रहरी उन्हें घेरे हुए हैं - रघुपति पाषाण-मूर्ति की भाँति खड़ा है, नक्षत्रराय का सिर झुका हुआ है।
रघुपति का दोष सिद्ध करते हुए राजा उससे बोले, "तुम्हें क्या कहना है?"
रघुपति ने कहा, "आपको मेरा न्याय करने का अधिकार नहीं है।"
राजा ने कहा, "तो तुम्हारा न्याय कौन करेगा?"
रघुपति, "मैं ब्राह्मण हूँ, मैं देव-सेवक हूँ, मेरा न्याय देवता करेंगे।"
राजा, "पाप का दण्ड और पुण्य का पुरस्कार देने के लिए संसार में देवताओं के सहस्रों अनुचर हैं। हम भी उन्हीं में से एक हैं। इस विषय में मैं तुम्हारे साथ बहस नहीं करना चाहता - मैं पूछ रहा हूँ, तुमने कल शाम को बलि की मंशा से एक बालक का अपहरण किया था या नहीं!"
रघुपति ने कहा, "हाँ।"
राजा ने कहा, "तुम अपराध स्वीकार करते हो?"
रघुपति, "अपराध! किस बात का अपराध! मैं माँ के आदेश का पालन कर रहा था, माँ का कार्य कर रहा था, तुमने उसमें बाधा पहुँचाई - अपराध तुमने किया है? मैं तुम्हें माँ के सामने अपराधी घोषित करता हूँ, वे तुम्हारा न्याय करेंगी।"
राजा ने उसकी बात का कोई उत्तर न देकर कहा, "मेरे राज्य का विधान है, जो व्यक्ति देवता के नाम पर बलि देगा अथवा देने की कोशिश करेगा, उसे निर्वासन का दण्ड दिया जाएगा। मैंने वही दण्ड तुम्हारे लिए निर्धारित किया है। तुम आठ वर्ष के लिए निर्वासित कर दिए गए हो। तुम्हें प्रहरी मेरे राज्य के बाहर छोड़ आएँगे।"
प्रहरी रघुपति को सभा-गृह से ले जाने को तैयार हो गए। रघुपति ने उनसे कहा, "रुक जाओ।" राजा की ओर देख कर बोला, "तुम्हारा न्याय पूरा हुआ, अब मैं तुम्हारा न्याय करूँगा, ध्यान दो। चतुर्दश देवताओं की पूजा में दो रात, जो कोई रास्ते में बाहर निकलेगा, वह पुरोहित के द्वारा दण्डित होगा, यही हमारे मंदिर का विधान है। इसी प्राचीन विधान के अंतर्गत तुम मेरे समक्ष दण्ड के भागी हो।"
राजा ने कहा, "मैं तुम्हारा दण्ड भोगने के लिए प्रस्तुत हूँ।"
सभासद बोले, "इस अपराध के लिए केवल अर्थ-दण्ड दिया जा सकता है।"
पुरोहित बोला, "मैं तुम पर दो लाख मुद्रा का दण्ड लगाता हूँ। इसी समय भरना होगा।"
राजा ने कुछ देर सोचा, फिर बोले, "तथास्तु।" कोषाध्यक्ष को बुला कर दो लाख मुद्राओं का आदेश कर दिया। प्रहरी रघुपति को बाहर ले गए।
रघुपति के चले जाने पर राजा ने नक्षत्रराय की ओर देख कर दृढ़ स्वर में कहा, "नक्षत्रराय, तुम अपना अपराध स्वीकार करते हो या नहीं!"
नक्षत्रराय बोला, "महाराज, मैं अपराधी हूँ, मुझे क्षमा कीजिए।"
कह कर भागते हुए राजा के पैरों से लिपट गया।
महाराज विचलित हुए, कुछ देर तक बोल नहीं पाए। अंत में आत्म-संवरण करके कहा, "नक्षत्रराय, उठो, मेरी बात सुनो। मैं क्षमा करने वाला कौन होता हूँ? मैं अपने विधान से खुद बँधा हुआ हूँ। जिस प्रकार बंदी बँधा हुआ होता है, वैसे ही न्यायाधीश भी बँधा हुआ होता है। मैं एक ही अपराध के लिए एक व्यक्ति को दंड दूँ और एक व्यक्ति को क्षमा कर दूँ, यह कैसे संभव है? तुम ही फैसला करो।"
सभासद बोले, "महाराज, नक्षत्रराय आपका भाई है, अपने भाई को क्षमा कर दीजिए।"
राजा ने दृढ़ स्वर में कहा, "आप सब चुप रहिए। मैं जब तक इस आसन पर हूँ, तब तक न किसी का भाई हूँ, न किसी का बंधु।"
चारों ओर के सभासद चुप हो गए। सभा में सन्नाटा छा गया। राजा गंभीर स्वर में कहने लगे, "तुम सब सुन चुके हो - मेरे राज्य का विधान है, जो व्यक्ति देवता के नाम पर जीव-बलि देगा अथवा देने की कोशिश करेगा, उसे निर्वासन का दण्ड दिया जाएगा। नक्षत्रराय ने कल शाम को पुरोहित के साथ षड्यंत्र रच कर बलि की मंशा से एक बालक का अपहरण किया था। इस अपराध के सिद्ध हो जाने के आधार पर मैं उसके लिए आठ वर्ष के निर्वासन के दण्ड का निर्धारण करता हूँ।"
जिस समय प्रहरी नक्षत्रराय को ले जाने को तैयार हुए, तब राजा ने आसन से उतर कर नक्षत्रराय को आलिंगन में भर लिया; रुद्ध कंठ से कहा, "वत्स, केवल तुम्हारा ही दण्ड नहीं हुआ, मेरा भी दण्ड हो गया। न जाने पूर्व जन्म में क्या अपराध किया था। जब तक तुम बंधु-बांधवों से दूर रहो, तब तक भगवान तुम्हारे साथ रहें, तुम्हारा कल्याण करें।"
देखते-देखते समाचार फैल गया। अंत:पुर में रोना-धोना मच गया। राजा एकांत कक्ष का द्वार बंद करके बैठ गए। हाथ जोड़ कर कहने लगे, "प्रभु, अगर कभी मैं अपराध करूँ, तो मुझे क्षमा मत करना, मुझ पर तनिक भी दया मत करना। मुझे अपने पाप का दण्ड दो। पाप करके दण्ड को ढोया जा सकता है, किन्तु क्षमा का भार नहीं ढोया जा सकता, प्रभु!"
नक्षत्रराय के प्रति राजा के मन में दुगुना प्रेम जागने लगा। नक्षत्रराय का बचपन का चेहरा उन्हें याद आने लगा। उसने जो सब खेल किए थे, बातें की थीं, काम किए थे, वे एक-एक कर उनके मन में उभरने लगे। एक-एक दिन, एक-एक रात अपने सूर्यालोक में, अपने तारा खचित आकाश में शिशु नक्षत्रराय को लेकर उनके सम्मुख प्रकट हो गए। राजा की दोनों आँखों से आँसू झरने लगे।