राजर्षि / परिच्छेद 19 / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / जयश्री दत्त
प्रहरियों ने जब निर्वासन के लिए तैयार रघुपति से पूछा, "ठाकुर, किस दिशा में जाएँगे," तो रघुपति ने उत्तर दिया, "पश्चिम की ओर जाऊँगा।"
नौ दिन तक पश्चिम की ओर यात्रा करने के बाद बंदी और प्रहरी ढाका शहर के आसपास आ पहुँचे। तब प्रहरी रघुपति को छोड़ कर राजधानी लौट आए।
रघुपति मन-ही-मन बोला, "कलियुग में ब्रह्म-शाप नहीं फलता, देखा जाए, ब्राह्मण में बुद्धि कितनी होती है! देखा जाए, गोविन्दमाणिक्य कैसा राजा है और मैं ही कैसा पुरोहित ठाकुर हूँ।"
त्रिपुरा की सीमा में मंदिर के कोने में मुगल राज्य के समाचार अधिक नहीं पहुँचते थे। इसी कारण रघुपति ढाका शहर पहुँच कर मुगलों की रीति-नीति और राज्य की अवस्था जानने का कुतूहली हुआ।
तब मुगल सम्राट शाहजहाँ का शासन-काल था। उनका तीसरा पुत्र, औरंगजेब दक्षिणापथ में बीजापुर-आक्रमण में नियुक्त था। उनका दूसरा पुत्र, शुजा बंगाल का अधिपति था, उसकी राजधानी राजमहल में थी। कनिष्ठ पुत्र, शहजादा मुराद गुजरात का शासनकर्ता है। ज्येष्ठ युवराज दारा राजधानी दिल्ली में ही रह रहा है। सम्राट की आयु सड़सठ वर्ष है। उनके बीमार होने के कारण दारा पर ही साम्राज्य का भार आ पड़ा है।
कुछ दिन ढाका में रह कर रघुपति ने उर्दू की शिक्षा प्राप्त की और अंत में राजमहल की ओर चल पड़ा।
जब तक राजमहल पहुँचा, तब तक भारतवर्ष में हल्ला मच चुका था। समाचार फैल गया कि शाहजहाँ मृत्यु-शैया पर लेटे हैं। इस समाचार को पाते ही शुजा सेना सहित दिल्ली की ओर दौड़ पड़ा। सम्राट के चारों ही पुत्र मृत्यून्मुखी शाहाजहाँ के सिर से एकदम झपट्टा मार कर मुकुट उड़ा लेने की तैयारी कर रहे हैं।
ब्राह्मण तत्काल अराजक राजमहल को छोड़ कर शुजा का पीछा करने में लग गया। सेवक-वाहक आदि को विदा कर दिया। साथ में जो दो लाख रुपया था, उसे राजमहल के पास वाले एक निर्जन कोने में गाड़ दिया। उसके ऊपर एक निशान बना दिया। बहुत थोड़ा-सा रुपया साथ में ले लिया। जली हुई झोपड़ियों, छोड़ दिए गए गाँवों, रौंदी हुई फसलों को देखते हुए रघुपति निरंतर चलता रहा। रघुपति ने संन्यासी का वेश धारण कर लिया। लेकिन संन्यासी वेश के होते हुए भी आतिथ्य दुर्घट है। कारण, सैनिक टिड्डों के समान जिस भी रास्ते से गुजरे हैं, उसके दोनों ओर केवल दुर्भिक्ष विराज रहा है। सैनिक घोड़ों और हाथियों को खिलाने के लिए बिना पकी फसल काट ले गए हैं। किसानों के कुठलों में एक दाना भी नहीं बचा है। चारों ओर केवल लुटाई के अवशेष बिखरे हैं। अधिकांश लोग गाँव छोड़ कर भाग गए हैं। भाग्यवश जो एक-दो लोग दिखाई पड़ जाते हैं, उनके चेहरे पर हँसी नहीं है। वे भयभीत हिरन के समान सतर्क रहते हैं। किसी पर भी वे न विश्वास करते हैं, न दया करते हैं। निर्जन रास्ते के किनारे पेड़ों के नीचे हाथ में लाठी लिए दो-चार लोग बैठे दिखाई पड़ जाते हैं; पथिकों के शिकार के लिए वे पूरे दिन प्रतीक्षा करते रहते हैं। धूमकेतु के पीछे आने वाली उल्का-बारिश के समान दस्यु, सैनिकों के पीछे-पीछे लुटने से बचे हुए को लूट ले जाते हैं। यहाँ तक कि, मृत-देह के ऊपर श्रृगाल-श्वान के समान बीच-बीच में सैनिकों और दस्यु-दल में लड़ाई छिड़ जाती है। निष्ठुरता सैनिकों का खेल हो गई है, रास्ते के किनारे निरीह पथिक के पेट में खप् करके तलवार की हूल मार देने अथवा उसके सिर से पगड़ी के साथ थोड़ी-सी खोपड़ी उड़ा देने को वे साधारण उपहास भर समझते हैं। गाँव के लोगों को अपने से डरता हुआ देख कर वे परम कौतुक अनुभव करते हैं। लूटने के बाद गाँव के लोगों को उत्पीड़ित करके वे आनंद प्राप्त करते हैं। दो मान्य ब्राह्मणों को पीठ से पीठ जोड़ कर एक साथ बाँध कर दोनों की नाक में नसवार डाल देते हैं। दो घोड़ों की पीठ पर एक आदमी को चढ़ा कर दोनों घोड़ों को चाबुक मार देते हैं; दोनों घोड़े दो विपरीत दिशाओं में दौड़ जाते हैं, बीच में आदमी गिर जाता है, उसके हाथ-पाँव टूट जाते हैं। इस प्रकार वे रोजाना नए-नए खेलों का आविष्कार करते हैं। गाँव अकारण जला दिए जाते हैं। कहते हैं, बादशाह की शान में आतिशबाजी कर रहे हैं। सैनिकों के मार्ग में इस प्रकार के अत्याचारों के सैकड़ों-सैकड़ों चिह्न मौजूद हैं। यहाँ रघुपति को आतिथ्य मिलेगा कहाँ! कोई दिन निराहार, कोई दिन अल्पाहार में काटने लगा। रात के अँधेरे में एक टूटी परित्यक्त झोपड़ी में थका हुआ शरीर लेकर सो गया था, सुबह उठ कर देखा, एक सिर-हीन देह को पूरी रात तकिया बना कर सोता रहा था। रघुपति ने एक दिन दोपहर में भूख लगने पर एक झोपड़ी में जाकर देखा, एक आदमी अपने टूटे संदूक पर उसकी कौली भरे पड़ा है - लगा, अपने लुटे हुए धन का शोक मना रहा था - निकट जाकर ठेलते ही वह लुढ़क कर गिर पड़ा। मात्र मृत देह, उसका जीवन बहुत पहले ही जा चुका था।
रघुपति एक दिन एक झोपड़ी में सोया हुआ है। रात व्यतीत नहीं हुई है, कुछ देर है। तभी धीरे-धीरे दरवाजा खुल गया। शरद के चन्द्रालोक के साथ-साथ कुछ परछाइयाँ भी झोपड़ी में आ पड़ीं। फिस् फिस् की आवाज सुनाई पड़ी। रघुपति चौंक कर उठ बैठा।
उसके उठते ही कई स्त्री-कंठ डरते हुए बोल पड़े, "उई माँ री!" एक पुरुष आगे बढ़ कर बोला, "कौन है रे?"
रघुपति ने कहा, "मैं ब्राह्मण हूँ, पथिक। तुम लोग कौन हो?"
"यह घर हमारा है। हम घर छोड़ कर भाग गए थे। मुगल सैनिक चले गए हैं, सुन कर अब आए हैं।"
रघुपति ने पूछा, "मुगल सैनिक किस दिशा में गए हैं?"
उन्होंने कहा, "विजयगढ़ की ओर। अब तक तो विजयगढ़ के जंगल में प्रवेश कर गए होंगे।"
रघुपति और अधिक कुछ न बोल कर तत्क्षण यात्रा पर निकल पड़ा।