राजर्षि / परिच्छेद 20 / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / जयश्री दत्त
विजयगढ़ का विशाल जंगल ठगों का अड्डा है। जो रास्ता जंगल में से होकर गुजरा है, उसके दोनों ओर कितने ही नर-कंकाल दबे हैं, उनके ऊपर केवल जंगली फूल खिल रहे हैं, और कोई निशान नहीं। जंगल में वट है, बबूल है, नीम है, सैकड़ों-सैकड़ों प्रकार की लताएँ और झाड़ियाँ हैं। जगह-जगह तलैया अथवा जलाशय की तरह दिखाई पड़ता है। लगातार पत्तों के सड़ने से उनका जल पूरी तरह हरा हो गया है। छोटी-छोटी टेढ़ी-मेढ़ी बटियाँ साँपों के समान इधर से, उधर से अँधेरे जंगल में प्रवेश कर रही हैं। पेड़ों की डाल-डाल, पात-पात पर लंगूर हैं। वट वृक्ष की शाखाओं से सैकड़ों-सैकड़ों जटाएँ और लंगूरों की पूँछें झूल रही हैं। भग्न मंदिर का प्रांगण शेफाली के सफेद-सफेद फूलों और लंगूरों के दाँतों की चमक से पूरी तरह ढका है। शाम को बड़े-बड़े छतनार पेड़ों पर झुण्ड के झुण्ड तोतों के शोर से घना अंधकार मानो दीर्ण-विदीर्ण होता रहता है। आज इस विशाल जंगल में लगभग बीस हजार सैनिकों ने प्रवेश किया है। शाखा-प्रशाखाओं, लताओं-पत्तों, घासों-झाड़ियों से भरा यह विशाल जंगल तीक्ष्ण नख-चंचु वाले सैनिक बाजों का एकमात्र नीड़ लग रहा है। सैनिकों का जमावडा देख कर असंख्य कौवे झुण्ड बना कर काँव-काँव करते हुए आकाश में उड़ते घूम रहे हैं - हिम्मत करके डालों पर आकर नहीं बैठ रहे हैं। किसी तरह के शोर-शराबे के लिए सेनापति की मनाही है। सैनिक पूरे दिन चल कर शाम को जंगल में पहुँच कर सूखी लकड़ियाँ इकट्ठी करके खाना पका रहे हैं और आपस में धीरे-धीरे बातें कर रहे हैं - उनकी उसी गुन गुन से सारा जंगल गम गम कर रहा है, शाम को झींगुर की झंकार सुनाई नहीं पड़ रही है। पेड़ों के तनों से बँधे घोड़े बीच-बीच में खुरों से धूल उड़ा रहे हैं और हिनहिना रहे हैं - उससे सारा जंगल चौंक पड़ रहा है। भग्न मंदिर के निकट खाली स्थान पर शाहशुजा का शिविर लगा है। और सबका पड़ाव आज पेड़ों के नीचे ही है।
रघुपति को पूरे दिन लगातार चल कर जंगल में प्रवेश करते हुए रात हो गई है। अधिकांश सैनिक सन्नाटे में सो रहे हैं, थोड़े-से चुपचाप पहरा दे रहे हैं। बीच-बीच में कहीं-कहीं आग जल रही है - मानो अंधकार ने बडे कष्ट से नींद से भारी लाल आँखें खोल रखी हैं। रघुपति ने जंगल में पैर रखते ही मानो बीस हजार सैनिकों के श्वास-प्रश्वास को सुन लिया। जंगल हजारों पेड़ों की शाखाएँ फैलाए पहरा दे रहा है। जैसे धूसर मस्तक वाला उल्लू अपने सद्यजात शिशु पर पंख फैलाए बैठा रहता है, उसी प्रकार जंगल के बाहर की विराट रात्रि जंगल के भीतर की सघनतर रात्रि को दबाए उसे डैनों से ढक कर चुपचाप बैठी है - एक रात्रि जंगल के भीतर मुँह घुसाए सो रही है, एक रात्रि जंगल के बाहर सिर उठाए जाग रही है। उस रात्रि में रघुपति जंगल के किनारे सो रहा।
सुबह दो-चार खोंचे खाकर हड़बड़ाते हुए जाग गया। देखा, भरी दाढ़ी वाले पगड़ी बाँधे तूरानी सैनिक उससे विदेशी भाषा में कुछ कह रहे हैं; सुन कर उसने निश्चित अनुमान लगा लिया - गाली है। उसने भी बंग-भाषा में उन्हें साला बक दिया। वे लोग उसके साथ खींचातानी करने लगे।
रघुपति बोला, "मजाक सूझ रहा है?" किन्तु उनके व्यवहार से मजाक का कोई लक्षण प्रकट नहीं हुआ। वे उसे अकातर भाव से जंगल में खींच कर ले जाने लगे।
वह असाधारण असंतोष प्रकट करते हुए बोला, "खींचतान क्यों कर रहे हो? मैं खुद ही चल रहा हूँ। इतने रास्ते मैं आया किसलिए हूँ?"
सैनिक हँसने लगे और उसकी बाँग्ला बातों की नकल करने लगे। धीरे-धीरे उसके चारों ओर सैनिकों का बड़ा हुजूम इकट्ठा हो गया, उसे लेकर भारी हंगामा मचने लगा। उत्पीड़न की भी सीमा न रही। एक सैनिक ने एक गिलहरी की पूँछ पकड़ कर उसके मुँड़े सिर पर छोड़ दी - देखने की इच्छा थी कि फल समझ कर खाता है या नहीं! एक सैनिक उसकी नाक के सामने एक मोटे बेंत को टेढ़ा करके पकड़े उसके साथ-साथ चलने लगा, उसे छोड़ देता, तो रघुपति की नाक की उच्च महिमा के सम्पूर्णत: समूल लुप्त हो जाने की आशंका थी। सैनिकों की हँसी से जंगल गूँजने लगा। आज दोपर में युद्ध करना होगा, इसी कारण सुबह रघुपति को लेकर वे बहुत खेल रचाने लगे। खेल की इच्छा पूरी होने के बाद ब्राह्मण को शुजा के पास ले गए।
रघुपति ने शुजा को देख कर सलाम नहीं किया। वह देवता और स्व-वर्ण को छोड़ कर और किसी के सम्मुख कभी भी सिर नहीं झुकाता। सिर उठाए खड़ा रहा; हाथ उठा कर बोला, "शहंशाह की जय हो।"
शुजा मदिरा का प्याला लिए सभासदों के साथ बैठा था; आलस्य विजड़ित स्वर में नितांत उपेक्षा के भाव से कहा, "क्या, माजरा क्या है?"
सैनिक बोले, "जनाब, दुश्मन का जासूस छिप कर हमारी ताकत और कमजोरी का पता लगाने के लिए आया था; हम लोग उसे पकड़ कर हुजूर के पास ले आए हैं।"
शुजा ने कहा, "अच्छा अच्छा! बेचारा देखने आया है, उसे सब कुछ अच्छी तरह दिखा कर छोड़ दो। देश लौट कर कहानी सुनाएगा।"
रघुपति ने गलत-सलत हिन्दुस्तानी में कहा, "मैं सरकार के यहाँ काम की प्रार्थना करता हूँ।"
शुजा ने आलस्य भाव से हाथ हिला कर उसे जल्दी से चले जाने का संकेत किया। बोला, "गरम!" जो हवा कर रहा था, वह दुगुने जोर से हवा करने लगा।
दारा ने अपने पुत्र सुलेमान को राजा जयसिंह के अधीन शुजा के आक्रमण का प्रतिरोध करने भेजा है। उसकी विशाल सेना निकट पहुँच गई है, समाचार आ गया है। उसी कारण विजयगढ़ के किले पर अधिकार करके वहाँ सेना इकट्ठी करने के लिए शुजा बेचैन हो गया है। किला और सरकारी खजाना शुजा के हाथों सौंप देने का प्रस्ताव लेकर दूत विजयगढ़ के अधिपति विक्रम सिंह के पास गया था। विक्रम सिंह ने उसी दूत से कहलवा भेजा, "मैं केवल दिल्लीश्वर शाहजहाँ और जगदीश्वर भवानीपति को जानता हूँ - शुजा कौन है? मैं उसे नहीं जानता।"
शुजा ने जड़ता भरे स्वर में कहा, "बड़ा बेअदब है! नाहक फिर लड़ाई करनी पड़ेगी। भारी झमेला है।"
रघुपति ने यह सब सुन लिया। सैनिकों के हाथ से छूटते ही विजयगढ़ की ओर चल पड़ा।